सुमित्रानन्दन पन्त (1900-1977 ई.) की काव्य यात्रा के विविध चरण | sumitranandan pant ki kavyayatra ke vividh charan
सुमित्रानन्दन पन्त (1900-1977 ई.) की काव्य यात्रा के विविध चरण
sumitranandan pant ki kavyayatra ke vividh charan
कविवर सुमित्रानन्दन पन्त (sumitranandan pant) हिन्दी के एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविता का स्वरूप एवं स्वर समय के साथ बदलता रहा। उनकी प्रारम्भिक कविताएं छायावादी काल की हैं जिनमें प्रकृति सौन्दर्य की प्रधानता है किन्तु बाद में उनकी कविताओं ने प्रगतिवाद का रास्ता अपना लिया। शोषण का विरोध करने वाली पन्त की प्रगतिवादी रचनाओं में गरीबों के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गई है। कालान्तर में पन्त की काव्य यात्रा का विकास अन्तश्चेतनावादी कविताओं के रूप में हुआ जहाँ वे अरविन्द दर्शन से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। पन्त काव्य का चतुर्थ चरण नवमानवतावादी कविता का है, जहाँ वे ‘नवमानवता’ का सन्देश सुनाते दिखते हैं। पन्त काव्य के इस क्रमिक विकास को चार चरणों में निम्न प्रकार विभक्त किया जा सकता है:
1. छायावादी युग (1918-1934 ई.)
2. प्रगतिवादी युग (1935–1945 ई.)
3. अन्तश्चेतनावादी युग (1946–1948 ई.)
4. नवमानवतावादी युग (1949 ई. के उपरान्त)
छायावादी युग (1918-1934 ई.) Chhayavadi Yug
पन्त की काव्य
यात्रा का प्रथम चरण, छायावादी रचनाओं का काल है। इस काल के अन्तर्गत उनकी निम्न कृतियां प्रकाश
में आयीं जिनके नाम हैं— उच्छ्वास (1920), ग्रन्थि (1920), वीणा (1927), पल्लव (1928) और गुंजन (1932 ई.)।
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार
पन्तजी की पहली कविता ‘गिरजे का घण्टा’ है जो 1916 ई. की रचना है। ‘ज्योत्स्ना’ नामक गीतिनाट्य भी इसी काल का है। इन सभी रचनाओं में छायावादी कविता की
विशेषताएं उपलब्ध होती हैं।
प्रकृति
सुन्दरी की अपूर्व छटा से युक्त इन कविताओं की विषय वस्तु एवं शिल्प ‘छायावादी’ है । कवि प्राकृतिक सुषमा की ओर आकृष्ट है। अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों की
भांति वह प्रकृति को गहन आश्चर्य के रूप में देखता है। प्रकृति प्रेम से
ओतप्रोत कवि को नारी सौन्दर्य में भी इतना आकर्षण नहीं दिखता जितना प्रकृति
में । इसीलिए वह कहता है :
“छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया।
बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन ।
भूल अभी से इस जग को?”
युवती के
केशों की छाया से वृक्षों की छाया उसे कहीं अधिक आकृष्ट करती है तथा भ्रमरी
की मधुर गुंजार के सम्मुख कोकिल कंठी युवती का गान उसे फीका लगता है। इसीलिए
वह प्रकृति के सान्निध्य में रहना चाहता है । पन्त जी ने स्वयं स्वीकार किया
है, “वीणा से ग्राम्या तक मेरी सभी रचनाओं में प्रकृति सौन्दर्य के प्रति प्रेम
किसी न किसी रूप में विद्यमान है।”
देख वसुधा का यौवन भार
गूंज उठता है जब मधुमास ।
पृथ्वी के
यौवन को देखकर भ्रमर गुंजार करने लगते हैं। पृथ्वी की वासंती सुषमा पर किसी
युवती के यौवन का आरोप है।
इसी प्रकार वे संध्या
सुन्दरी को व्योम (आकाश) से चुपचाप उतरते हुए चित्रित करते हैं :
कौन तुम रूपसि कौन?
व्योम से उतर रही चुपचाप
छिपी निज छाया छवि में आप
सुनहला फैला केश कलाप
मधुर, मंथर, मृदु मौन
पंत जी ने
छायावाद की रहस्यवादी प्रवृत्ति को भी अपने
काव्य में अपनाया है। इस दृष्टि से उनकी ‘मौन निमन्त्रण’ कविता उल्लेखनीय है। टिमटिमाते हुए तारे उन्हें अज्ञात सत्ता का ‘मौन निमन्त्रण’ देते से प्रतीत होते हैं :
स्तब्ध ज्योत्स्ना में जब संसार
चकित रहता शिशु सा नादान ।
विश्व की पलकों पर सुकुमार
विचरते हैं जब स्वप्न अजान ॥
न जाने नक्षत्रों से कौन
निमन्त्रण देता, मुझको मौन॥
छायावादी
कवियों ने नारी को सम्मान देते हुए उसे पुरुष की प्रेरक शक्ति माना है। पंत
जी उसे “देवि, मां, सहचरि, प्राण” सम्बोधन देकर उसे गौरव प्रदान करते हैं।
छायावादी कवि
प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं। वे यह मानते
हैं कि कविता का जन्म ‘वियोग’ से होता है :
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान।
निकलकर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान।।
प्रगतिवादी युग Pragativadi Yug (1935–1945 ई.)
पंत जी
की काव्य यात्रा का दूसरा चरण
प्रगतिवादी विचारधारा से युक्त कविताओं का माना जाता है।
उसे यथार्थवादी युग का नाम भी
दिया गया है। सन् 1935 ई. से 1945 ई. तक की उनकी रचनाएं इसी विचारधारा से अनुप्राणित हैं। छायावादी रचनाओं में
कल्पना की प्रधानता थी, किन्तु प्रगतिवादी रचनाओं में वे कल्पना के इन्द्रधनुषी गगन से यथार्थ के
कठोर धरातल पर उतर आए। अपनी प्रगतिवादी रचनाओं में पंत जी ‘सुन्दरम्’ से ‘शिवम्’ की भूमि पर पदार्पण करते दिखाई पड़ते। हैं।
इस काल की तीन रचनाएं
उल्लेखनीय हैं— ‘युगान्त’ (1935 से 1936 ई.), ‘युगवाणी’ (1936 से 1938 ई.) और
‘ग्राम्या’ (1939 से 1940 ई.) ।
‘युगान्त’ में कवि ने पुरातनता, रूढ़िवादिता एवं निष्क्रिय मान्यताओं के प्रति तीव्र आक्रोश व्यक्त करते हुए
स्पष्ट घोषणा की कि जो पुराना पड़ गया है, निष्प्रभ (प्रभाहीन) एवं मृतप्राय हो गया है, जिसकी उपयोगिता समाप्त हो गई है, उसे नष्ट हो जाना चाहिए।
द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र,
हे स्ररत ध्वस्त हे शुष्क शीर्ण
हिम ताप पीत मधुवात भीत,
तुम वीतराग जड़ पुराचीन ॥
जो पुराना
पड़ गया है, उसे अपना स्थान खाली कर देना चाहिए जिससे नूतनता का विकास हो सके। युग के
कोकिल (कवि) को वे ऐसे पावक (पवित्र करने वाला,
आग) कणों (विद्रोही विचारों) की वर्षा करने के लिए कहते हैं जिससे
जीर्ण, पुरातन नष्ट हो जाए :
गा कोकिल बरसा पावक कण।
नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन ॥
‘युगवाणी’ में कवि का स्वर और भी तीव्र हो गया और वह मार्क्सवादी विचारधारा से
प्रभावित होकर शोषण का विरोध करने लगा। ‘ताज’ नामक कविता में वे स्पष्ट घोषणा करते हैं कि जब संसार में लोग भूखे, नंगे और आवासविहीन हों, तब ‘ताजमहल’ जैसे स्मारक बनाने की आवश्यकता नहीं है। जीवित लोग तो जीवन की मूलभूत
सुविधाओं के लिए तरस रहे हों, और मृत लोगों के लिए संगमरमर के भव्य स्मारक बनाए जायें, यह कहाँ का न्याय है:
हाय! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन ।
जब विषण्ण निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन ॥
स्फटिक सौध में हो शृंगार मरण का शोभ।
नग्न, क्षुधातुर वास विहीन रहें जीवितजन॥
कवि ने एक
ऐसे युग की आवश्यकता पर बल दिया, जिसमें वर्गभेद कम हों, जीवन की मूलभूत सुविधाएं सर्वजन सुलभ हों। पूंजीवाद की भर्त्सना, श्रमिकों के प्रति सहानुभूति जैसे मार्क्सवादी तत्वों से भी पंत जी प्रभावित
रहे।
पंत जी
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से प्रभावित होते हुए भी
‘गांधीवाद’ के समर्थक रहे। इसीलिए इस काल को यथार्थवादी काल कहना अधिक उचित है क्योंकि
वे ‘आदर्श’ के धरातल पर पूर्णतः टिके दिखाई नहीं देते।
‘युगवाणी’
में मार्क्सवाद और गाँधीवाद का समन्वय है ।
पंतजी बाह्य रूप से मार्क्सवाद के समर्थक होते हुए भी आंतरिक रूप से
गांधीवाद से प्रभावित थे। सामूहिक विकास के लिए मार्क्सवादी सिद्धान्तों की
उपयोगिता वे स्वीकारते हैं तो वैयक्तिक विकास के लिए गांधीवाद का समर्थन करते
हैं। इस प्रकार उनके ‘युगवाणी’ संकलन में तत्कालीन युग की दोनों प्रमुख विचारधाराएं मार्क्सवाद और गांधीवाद
देखी जा सकती हैं।
इस काल की
तीसरी प्रमुख रचना ‘ग्राम्या’ है, जिसमें कवि ने ग्राम्य जीवन की यथार्थ झांकी प्रस्तुत की है। ‘ग्राम युवती’, ‘गांव के लड़के’, ‘वह बुड्ढा’, ‘ग्रामश्री’, ‘कहारों का नृत्य’
आदि कविताएं ग्रामीण जीवन एवं ग्राम्य संस्कृति का यथार्थ चित्र प्रस्तुत
करती हैं। यथा ग्रामीण युवती का यह चित्र दर्शनीय है :
इठलाती आती ग्राम युवति
वह गजगति सर्प डगर पर।
सरकाती पट, खिसकाती लट शरमाती झट
वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट॥
प्रगतिवादी काल की रचनाओं का कला विधान भी छायावादी कविताओं से भिन्न है।
भाषा में सरलता है। छन्द के बन्धन खुल गए हैं तथा शैली में स्वाभाविकता का
समावेश हो गया है । कवि की भावुकता पर बौद्धिकता का अंकुश लग गया है। इतना
अवश्य कहा जा सकता है कि छायावादी रचनाओं में जो सरसता एवं कलात्मकता
है, उसका अभाव प्रगतिवादी रचनाओं में है। यहाँ
कम से कम शब्दों में तथा
शिल्प सजगता से मुक्त होकर अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया गया है।
अन्तश्चेतनावादी युग (Antashchetanvadi Yug) (1946-1948 ई.)
पंत की
काव्य यात्रा का तीसरा चरण अन्तश्चेतनावादी (आंतरिक चेतना) युग कहलाता है।
मार्क्सवाद एवं गांधीवाद की मान्यताओं से प्रभावित कवि को अभी पूर्ण
सन्तुष्टि नहीं मिल सकी। मार्क्सवाद में जहाँ उसे आक्रोश दिखाई दिया वहीं
गांधीवाद सामूहिक जीवन के लिए कोई आदर्श प्रस्तुत न कर सका। इसी काल में पंत
जी गम्भीर रूप से बीमार हो गए और वे ‘कल्पना’ नामक फिल्म के सम्बन्ध में मद्रास गए। वहाँ से पांडिचेरी जाकर उन्होंने
महर्षि अरविन्द के दर्शन किए। अरविन्द आश्रम के निकट सम्पर्क में आकर वे
अरविन्द साहित्य से प्रभावित हुए। अरविन्द जी की पुस्तक
“भागवत जीवन” (The Divine Life) से वे इतने प्रभावित हुए कि उनके जीवन की दिशा ही बदल गई ।
पंत जी की
अन्तश्चेतनावादी रचनाओं में प्रमुख हैं—
स्वर्ण किरण (1946-47) और स्वर्ण धूलि (1947-48)।
अरविन्द
दर्शन अन्तश्चेतनावादी (आंतरिक चेतना) है जिसमें चेतना के विभिन्न स्तरों की
कल्पना की गई है, यथा:
जड़त्व > प्राण > मन> ऊर्ध्वचेतन > ब्रह्म
स्वर्णकिरण’ और ‘स्वर्णधूलि’ में अरविन्द दर्शन से प्रभावित कविताओं का संकलन है। अब कवि यह विश्वास करने
लगा कि आर्थिक समता ही सब कुछ नहीं है अपितु मानसिक और आन्तरिक समता अत्यन्त
आवश्यक है। इसके लिए प्रत्येक मानव को अपने अन्तःकरण में तप, संयम, श्रद्धा, आस्तिकता आदि भावों को स्थान देना चाहिए :
फिर श्रद्धा विश्वास प्रेम से मानव अन्तर हो अन्तःस्मित।
संयम तप की सुन्दरता से जग जीवन शतदल दिक् प्रहसित।
व्यक्ति विश्व में व्यापक समता हो जन के भीतर से स्थापित।
मानव के देवत्व से ग्रथित जन समाज जीवन हो निर्मित।।
कवि ने
यहाँ बुद्धिवाद का विरोध किया है और त्याग, तपस्या, संयम, श्रद्धा, विश्वास और ईश्वर प्रेम की भावना को अपनाने पर बल दिया है।
नवमानवतावादी युग (Navmanvatavadi Yug (1949 ई.के उपरांत)
पंत काव्य
के क्रमिक विकास का चतुर्थ चरण ‘नवमानवतावादी’ कविताओं का युग है। ‘नवमानवतावाद’ जीवन में मूल्यों को प्रथम स्थान देने का उपदेश देता है। इसमें व्यक्ति की
स्वतन्त्रता और समानता को महत्व प्रदान कर व्यक्ति के गौरव एवं सम्मान को आगे
बढ़ाने का संदेश दिया जाता है ।
इस युग की
रचनाओं मे प्रमुख है— उत्तरा, कला और बूढ़ा चांद (1959 ई.), अतिमा (1955 ई.), लोकायतन (1961 ई.), चिदम्बरा, अभिषेकिता और समाधिता। इनमें से कुछ काव्य संकलन
पूर्वकाव्य संकलनों से निर्मित है।
‘चिदम्बरा’ पर कविवर पन्त को 1992 ई. भारतीय साहित्य का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ है। ‘उत्तरा’ की कविता ‘गीत विहग’ में उन्होंने नवमानवता का सन्देश इन शब्दों में दिया है :
“मैं नवमानवता का सन्देश सुनाता”
‘अतिमा’ में संकलित ‘संदेश’ कविता में कवि ने मन को विराट आत्मा से युक्त कर प्रेम, सौन्दर्य एवं लक्ष्ययुक्त जीवन की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा दी है:
मन को विराट की आत्मा से कर सर्वयुक्त
तुम प्यार करो सुन्दरता में रहना सीखो।
जो अपने ही में पूर्ण स्वयं है लक्ष्य स्वयं
कवि यही महत्तर ध्येय मनुज के जीवन का।।
‘उत्तरा’ से लेकर ‘अभिषेकिता’ तक की उनकी सभी रचनाएं मानवता को उन्नत बनाने के लिए दिए गए सन्देशों से
युक्त हैं। जाति-पांति एवं वर्ग की संकीर्णता से स्वयं को मुक्त कर लेना
चाहिए और व्यक्ति को अपने अन्दर मानवीय गुणों का विकास करना चाहिए। मानव हृदय
जब प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है तभी उनके बीच की खाई नष्ट हो जाती है। पंत
जी ने यहाँ विश्वबन्धुत्व एवं लोककल्याण की भावना पर विशेष बल दिया है। वे
कहते हैं:
वह हृदय नहीं जो करे न प्रेमाराधन ।
मैं चिर प्रतीति में स्नान कर सकूं प्रतिक्षण॥
वे जानते
हैं कि परमाणु बम का खतरा मानव मात्र को त्रस्त एवं आशंकित किए हुए है
:
देश जाति की मोहभित्तियां रोकें भू मानव विकास क्रम।
मुक्त नहीं चेतना त्रस्त मन, मंडराता सिर पर यम-अणुबम॥
मानवता का विकास तभी होगा जब मानव के मन में व्याप्त ईर्ष्या और द्वेष के
भाव नष्ट हो जायेंगे तथा सभी मानव परस्पर प्रेम भाव से भर जायेंगे। वह मनुष्य
से कहता है कि देवों की आराधना करने वाले मानव तुम इस बात को अच्छी तरह समझ
लो कि मानवता का विकास ही ईश्वर की सच्ची आराधना है।
मानवता को समझो हे देवों के आराधक ।
मानव के भीतर ईश्वर ही अविरत साधक ॥
नवमानवता
के सन्देश वाहक पंत जी धर्म, नीति और संस्कृति का वह रूप मिटा देना चाहते हैं जो मानव-मानव में भेद करता
है।
पंत जी की
धारणा है कि जब रत्न प्रसविनी वसुधा में समता के दाने बोये जायेंगे तभी इसमें
मानवता की सुनहली फसल उगेगी :
रत्न प्रसविनी वसुधा अब मैं समझ सका हूं
इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं।
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं।
इसमें मानव ममता के दाने बोने हैं।
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।
निष्कर्ष
उक्त
विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि पंत जी की काव्य यात्रा अनवरत रूप से
जारी रही है। प्रारम्भ में वे छायावादी विचारधारा से अनुप्राणित (प्रेरित)
रहे, बाद में प्रगतिवादी कविताएं लिखने लगे। कालान्तर में अरविन्द दर्शन से
प्रभावित होकर उन्होंने अन्तश्चेतनावादी (अंदर की चेतना) रचनाएं लिखीं और फिर
विश्व बन्धुत्व एवं लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर उनकी रचनाओं का स्वर
नवमानवतावादी (विश्वकल्याण की भावना) हो गया।
साधना के
पथ पर सतत अग्रसर इस कवि ने अपनी प्रतिभा कल्पना और अनुभूति के माध्यम से जो
रचनाएं प्रस्तुत की उनमें युग का स्पन्दन है और युग की अनुभूति है।
बच्चन जी ने पंत जी sumitranandan pant के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा है – “जब सदियां बीत जायेंगी और हिन्दी हिन्द की एकता की भाषा होगी तब यह सहज स्पष्ट होगा कि राष्ट्रभाषा का यह कवि सचमुच उस राष्ट्र का जन चारण (गायक) था।” उनकी कविता निश्चय ही मानवता के उत्तरोत्तर विकास की गाथा है।
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