भारतेन्दु हरिश्चंद्र की कविता में नवजागरण, समाज सुधार तथा राष्ट्रीय चेतना | Bhartendu Harishchandra Ki Kavita Men Navjagaran, Samaj Sudhar Tatha Rashtreey Chetna

 

भारतेन्दु हरिश्चंद्र की कविता में नवजागरण, समाज सुधार तथा राष्ट्रीय चेतना 

 bhartendu harishchandra ki kavita men navjagaran, samaj sudhar tatha rashtreey chetna 

लेखक – भूपेन्द्र पाण्डेय

भारतेन्दु हरिश्चंद्र की कविता में नवजागरण, समाज सुधार तथा राष्ट्रीय चेतना |  Bhartendu Harishchandra Ki Kavita Men Navjagaran, Samaj Sudhar Tatha Rashtreey Chetna

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     आधुनिक हिंदी कविता का प्रारंभ उन्नीसवीं सदी में भारतेन्दु हरिश्चंद्र bhartendu harishchandra से माना जाता है। भारतीय नवजागरण और राष्ट्रीयता की चेतना की पृष्ठभूमि भी इसी युग की कविता में प्राप्त होती है । नवजागरण की दृष्टि से देखें तो उसके तीनों प्रमुख तत्व - प्राचीन संस्कृति पर उसकी निर्भरता, ईश्वर  की जगह मानव केन्द्रिता और एक जातीय राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी खड़ी बोली की स्वीकृति- इस युग की कविता में मिल जाते हैं । भारतेन्दु हरिश्चंद्र bhartendu harishchandra ने नाटक, निबंध, कविता, आदि कई साहित्यिक विधाओं को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हुए और पत्रकारिता द्वारा साहित्य और समाज के संबंधों को नये ढंग से समझने का प्रयास किया ।

 

             1858 से 1881 तक अर्थात् लार्ड रिपन के शासन शुरू होने तक भारतेन्दु की राजनीतिक समझ इस प्रकार की थी कि वे जनता के दुःखों, पीड़ाओं, बदहाली आदि को कभी प्रिंस ऑफ वेल्स के द्वारा और कभी लार्ड के द्वारा महारानी तक पहुँचाने का अनुनय-विनय करते रहे और महारानी को जनता का हित रक्षक मानते रहे । बाद में उपनिवेशी साम्राज्यवाद की सुधारवादी नीति की कलई उनके सामने उतरती गई । वे इस बात को समझ गए कि साम्राज्यवाद, सामंतवाद के साथ हाथ मिलाकर वही पुराना लूट-खसोट का खेल खेल रहा है और जनता की वास्तविक तकलीफों को दूर करने का उसका इरादा साफ नहीं है।

     वे यह भी देख रहे थे कि अंग्रेजी सत्ता ने जनता और अपने बीच ऐसे लोगों की एक जमात को प्रश्रय देकर खरीद लिया है जो अंग्रेजी सत्ता के न्यायिक होने का बिगुल बजाती रहे और बदले में लूट का एक हिस्सा हासिल करती रहे। इसलिए 1881 में रचित उनकी कविता “विजय वल्लरी’’ और 1884 में रचित “विजयनी विजय वैजयन्ती’’ में भारत के दुःख का तो खूब वर्णन है, किन्तु कहीं पर भी महारानी तक इन दुःखों को पहुँचाने का आह्वान नहीं  है ।

 

     “विजय वल्लरी’’ अफगाान युद्ध समाप्त होने पर और “विजयनी विजय वैजयन्ती’’ मिस्त्र विजय के बाद लिखी गई, लेकिन दोनों कविताओं का मूल लक्ष्य राजभक्ति प्रदर्शन नहीं बल्कि राजभक्ति को औजार बनाकर अंग्रेजों के शोषण व अत्याचार को उद्घाटित करना तथा वीरतापूर्ण भारतीय संघर्ष की ऐतिहासिक परंपरा को उजागर करते हुए “अण्डरग्राउंड’’ रूप से भारतवासियों को ललकारना है । ये वस्तुतः औपनिवेशिक सुधारवाद से मोहभंग की कविताएं हैं ।

 

             भारतेन्दु bhartendu harishchandra की यही बदली हुई समझ “नये जमाने की मुकरी’’ में दिखाई देती है, जिसकी रचना उन्होंने 1884 में की थी:

 

भीतर भीतर सब रस चूसै ।

हंसि-हंसि के तन मन धन मूसै ।

जाहिर बातन में अति तेज ।

क्यों सखि सज्जन, नहीं अंगरेज ।

 

    उपनिवेशी सुधारवाद की पोल इस मुकरी में पूरी तरह खुल कर सामने आ जाती है । अंगरेज अब लड़ाई झगड़े से नहीं, हंसकर, चालबाजियां करके लूटने में लगे हैं ।

 

    इसी प्रकार “विजयनी विजय वैजयन्ती’’ कविता को लिया जा सकता है जो लिखी तो मिस्त्र विजय के उपलक्ष्य में है किन्तु प्रकारांतर से औपनिवेशिक अंग्रेजी राज की चालबाजियों झूठे आश्वासनों को उजागर करती चलती है । मिस्त्र विजय का अभिनन्दन करते-करते अचानक भारत के ऐतिहासिक गौरव की याद और भारत की वर्तमान दुर्दशा का वे वर्णन करने लगते हैं ।

 

         देश की तत्कालीन दुर्दशा का भारतेन्दु bhartendu harishchandra ने यथार्थ चित्रण किया है, साथ ही उसके कारणों का खुलासा भी वे करते चलते हैं । अतीत के वर्णन के साथ वे यह भी बताते चलते हैं कि उनका इतिहास कितना गौरवशाली था । “प्रबोधिनी’’ कविता में उन्होंने लिखा:

 

पसु समान सब अन्न खात पीअत गंगाजल ।

धन विदेश चलि जात तऊ जिय होत न चंचल ।

 

    भारतेन्दु bhartendu harishchandra की नजर में भारत की ऐसी दशा का सबसे बड़ा कारण आक्रमणकारी अंग्रेज हैं, दूसरा कारण जनता की रूढ़िवादिता, धर्मान्धता और सामाजिक रूढ़ियां हैं, तीसरा कारण आलस्य, अपव्यय, झूठी शान-शौकत और चौथा कारण है उनकी कायर प्रवृत्ति । देशवासियों को ये कारण बताकर अपनी कविताओं में वे उन्हें फटकार भी लगाते हैं और सुधरने का आह्वान भी करते हैं।  

         पश्चिमी सभ्यता के साथ पहले सम्पर्क में आने के कारण पश्चिम बंगाल में नये विचारों का प्रादुर्भाव भी पहले ही हो गया । मध्यकालीन भारतीय समाज की रूढ़िवादिता, संकीर्णता, अंधविश्वासी चेतना को पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान के आलोक में झकझोर कर जगाने का काम बंगााल में राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद सरीखे विद्वानों ने अपने हाथ में ले लिया था। 1828. में ही बंगाल में ब्रह्म समाज की स्थापना हो चुकी थी । बाल विवाह पर रोक, विधवा विवाह की अनुमति,  नारी शिक्षा, अंधविश्वास का नकार आदि सामाजिक क्रांति के स्वर वहां गुंजने लगे थे । भारतेंदु यात्रा के शौकीन थे । अपने छोटे से जीवन में उन्होंने देश के विभिन्न भागों की अनेक यात्राएं की थीं । बंगाल की यात्राओं का लाभ उन्हें वहाँ समाज सुधार की प्रगति देखकर मिला, जिसको खुले मन से स्वीकार कर हिंदी प्रदेश में वे यह ज्योति ले आए और खुलकर सामाजिक सुधारों का झंडा उठा लिया ।

 

         अपनी स्वतंत्र कविताओं के अलावा नाटकों के लिए लिखी गई कविताओं में भी समाज सुधार के उनके विचार अभिव्यक्त हुए हैं ।

 

         नारी के प्रति उनके दृष्टिकोण में बंगाल के नवजागरण मूलक सुधार आंदोलनों का व्यापक प्रभाव था । वे नारी शिक्षा के हिमायती थे, वेश्यागमन के खिलाफ थे, नारी को पुरूष के बराबर मानने के पक्षधर थे । स्त्रीपयोगी पत्रिका “बालाबोधिनी’’ का प्रकाशन भी उन्होंने शुरू किया था, जिसके मुख पृष्ठ पर लिखा रहता था:

 

जो हरि सोई राधिका जो शिव सोई शक्ति ।

जो नारी सोई पुरूष यामै कछु न विभक्ति ।

    भारतेंदु bhartendu harishchandra ईश्वर चंद विद्यासागर के भी संपर्क में आए थे जिन्होंने विधवा विवाह के पक्ष में काफी सुबुत जुटाए थे । भारतेंदु स्वयं विधवा विवाह के समर्थक हो गए थे ।  “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’’ में उनके इसी प्रकार के विचार अभिव्यक्त हुए हैं ।

 

    भारतेंदु बाबू हरिश्चन्द्र bhartendu harishchandra मात्र एक कवि और कुशल गद्यकार ही नहीं थे, एक युग प्रवर्तक साहित्यकार भी थे । भारतेंदु एक कवि के रूप में एक ओर तो अपनी परंपरा से जुड़ने का प्रयास करते हैं तो दूसरी ओर काव्य को जनता के साथ भी जोड़ना चाहते हैं ।

 

         राष्ट्रीय  नवजागरण के जितने भी आयाम हो सकते हैं - राष्ट्रभक्ति, देशप्रेम, समाजसुधार-वे सब भारतेंदु की कविता का विषय बनते हैं । अपने काव्य विकास के दौर में वे अंग्रेजी राज की साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी मानसिकता को भी समझते हैं और खुलकर उसके विरोध में भी खड़े होते हैं । विशेषकर “भारत दुर्दशा’’ में आई उनकी कविताएं और  “हिंदी भाषा’’ पर उनका काव्य-व्याख्यान इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं । उनके काव्य की मुख्य विशेषताओं को राष्ट्रीय नवजागरण की प्रवृत्तियों के रूप में ही देखा समझा जाना चाहिए ।

    छुआछूत, बाल विवाह, जन्मपत्री देखकर विवाह करना, विदेश गमन पर रोक, मूर्ति पूजा आदि ढकोसले, अंधविश्वासों का भारतेंदु खुलकर विरोध करते हैं जिन्होंने समाज को रूढ़िवादी बनाकर पतन के गर्त में ढकेल दिया है ।

 

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