हिंदी निबंध का उद्भव और विकास | Hindi Nibandh ka Udbhav aur Vikas
हिंदी
निबंध का उद्भव और विकास
Hindi Nibandh ka Udbhav aur Vikas
हिंदी में निबंध की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है। हिंदी में पहला निबंध कब लिखा गया और किसने लिखा, इस पर कोई एक मत नहीं है। लेकिन कुछ ऐसे ऐतिहासिक तथ्य हैं जिन्हें निबंधों पर विचार करते हुए- अवश्य दृष्टि में रखना चाहिए।
हिंदी में निबंधों की शुरुआत, गद्य की
अन्य कई विधाओं की तरह भारतेंदु युग से ही
हुई। निबंधों के लेखन की शुरुआत के दो मुख्य कारण थे - एक
प्रेस की स्थापना और दूसरे, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन। इन दोनों कारणों ने गद्य
लेखन को प्रोत्साहित किया और गद्य लेखन में भी निबंध की रचना को विशेष प्रोत्साहन
मिला क्योंकि इस विधा के माध्यम से लेखक अपनी बात पाठकों तक सीधे पहुँचा सकते थे।
निबंध
की आरंभिक परंपरा में भारतेंदु युग के लेखकों का विशेष महत्व है क्योंकि उन्होंने
विषय, शैली और भाषा तीनों स्तरों पर निबंधों में नये प्रयोग
किये किंतु निबंधों को प्रौढ़ रूप द्विवेदी युग में ही प्राप्त हुआ। इस दौर में
जहाँ एक ओर भाषा का मानक रूप निर्मित हुआ, वहीं
दूसरी ओर चिंतन में प्रौढ़ता और शैली में परिष्कार भी आया। इस दौर में आचार्य आचार्य
रामचंद्र शुक्ल का केंद्रीय महत्व रहा है
जिन्होंने विचार, शैली और भाषा तीनों स्तर पर निबंधों को उच्च स्वरूप
प्रदान किया। हिंदी निबंधों के विकास में आचार्य आचार्य रामचंद्र शुक्ल का वही महत्व है जो उपन्यास और कहानी के क्षेत्र
में मुंशी प्रेमचंद का है।
हिंदी
निबंध के उद्भव एवं विकास को हम चार चरणों में विभाजित कर सकते हैं :
1 भारतेंदु युग (1873 ई. से 1900 ई.)
2 द्विवेदी युग (1900 ई. से 1920 ई.)
3 शुक्ल युग (1920 ई. से 1940 ई.)
4. शुक्लोत्तर
युग (1940
ई. से आज तक)
इन
चरणों को प्रवृत्तियों की दृष्टि से कई धाराओं में विभाजित किया जाता है। यहाँ हम
इन चारों चरणों का अलग-अलग विवेचन करेंगे।
हिंदी में निबंध लेखन की शुरुआत कब हुई और पहला निबंध कब लिखा गया और किसने लिखा यह बहुत स्पष्ट नहीं है। आमतौर पर माना जाता है कि निबंध लेखन की शुरुआत बालकृष्ण भट्ट से हुई। लेकिन मुख्य बात जो जानने की है। वह यह है कि हिंदी में निबंध लेखन की शुरुआत भारतेंदु युग से हुई।
भारतेंदु
हरिश्चंद्र ने 1868 ई.
(संवत् 1925)
में ‘कविवचन सुधा’ का प्रकाशन आरंभ किया। इसके प्रकाशन ने हिंदी में
साहित्यिक लेखन को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया। बाद में स्वयं भारतेंदु ने ‘हरिश्चंद्र
चंद्रिका’ और ‘बालाबोधिनी’ पत्रिका
की भी शुरुआत की।
भारतेंदु युग के ही कई अन्य लेखकों ने भी कई
पत्र-पत्रिकाएँ शुरू कीं। इनमें प्रताप
नारायण मिश्र द्वारा प्रकाशित ‘ब्राह्मण’, बालकृष्ण
भट्ट का ‘हिंदी प्रदीप’, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ का ‘आनंदकादंबिनी’ आदि
प्रमुख है। उस युग में लिखे गये निबंध प्रायः इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
होते थे।
1. भारतेंदु युग (1873 ई. से 1900 ई.)
भारतेंदु
युग के निबंधों की मूल प्रेरणा अपने समाज के नैतिक, सामाजिक
और राजनीतिक उत्थान की चिंता थी इसलिए इस युग के निबंधकारों ने समाज सुधार, राष्ट्रप्रेम, देश
भक्ति, अतीत के प्रति गौरव भावना, विदेशी
शासन के प्रति आक्रोश आदि को अपने निबंधों का विषय बनाया है। यह अवश्य है कि उस
समय विदेशी शासन के विरुद्ध जन संघर्ष अभी संगठित नहीं हुआ था इसलिए लेखकों ने
अंग्रेजी सत्ता के प्रति भक्ति का भी प्रदर्शन किया है, लेकिन
राष्ट्र के विकास की चिंता और उसके प्रति गहरा लगाव भी बराबर व्यक्त हुआ है।
भारतेंदु
युग के निबंधकारों ने उक्त विषयों के अतिरिक्त ऐसे विषयों पर भी निबंध लिखे जिनमें
उनकी जिंदादिली और विनोदवृत्ति का परिचय मिलता है। जैसे नाक, कान, भौं, धोखा, बुढ़ापा
आदि विषयों पर निबंध लिखे गये। भारतेंदु युग के लेखकों को मूल प्रवृत्ति मनोविनोद
की थी, इसलिए वे गंभीर से गंभीर विषय को हास्य और
व्यंग्यपूर्ण शैली में सजीव बनाकर प्रस्तुत करते थे।
उनके
निबंधों में गूढ़ विवेचन का प्रायः अभाव मिलता है लेकिन उनमें जीवन के प्रति गहरी
अनुरक्ति के दर्शन होते हैं। व्यक्तित्व का सहज समावेश होने के कारण इस दौर के
निबंधों में आत्मपरकता भी पर्याप्त मात्रा में है।
भारतेंदु
युग में हिंदी भाषा का कोई मानक रूप नहीं बना था। कहीं-कहीं व्याकरण की शिथिलता भी
नजर आती है। लेकिन बात को प्रभावशाली ढंग से कहना वे जानते थे, विशेष
रूप से भाषा के माध्यम से व्यंग्य और विनोद उत्पन्न करने में तो वे सिद्धहस्त थे।
मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग करने से निबंधों की भाषा
प्राणवान बन गयी है। शब्द भंडार भी व्यापक है। तत्सम, तद्भव शब्दों के साथ अरबी-फारसी (उर्दू) के शब्दों की
बहुतायत है। कुछ निबंध तो पूर्णतः उर्दू शैली में लिखे गये हैं।
इस युग के प्रमुख निबंधकारों में
भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण
भट्ट, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, लाला
श्रीनिवास दास, अंबिकादत्त व्यास, बालमुकुंद
गुप्त, जगमोहनसिंह, केशवराम
भट्ट, राधाचरण गोस्वामी आदि हैं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850 ई. -1885 ई.) : भारतेंदु हरिश्चंद्र का व्यक्तित्व युगांतकारी महत्व का सिद्ध हुआ। भारतेंदु ने इतिहास, पुरातत्व, धार्मिक, जीवनीपरक तथा साहित्यिक आदि कई विषयों पर निबंध लिखे। विषयों की विविधिता उनके विस्तृत अध्ययन और व्यापक जीवनानुभवों का परिणाम थी। उनके निबंधों में जहाँ इतिहास, धर्म, संस्कृति और साहित्य की उनकी गहरी जानकारी का परिचय मिलता है, वहीं देशप्रेम, समाज सुधार की चिंता और अतीत के प्रति गौरव भाव भी प्रकट होता है।
‘भारत
वर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है।’ ‘लेवी प्राण लेवी’ और ‘जातीय संगीत’ में
राष्ट्र और समाज के प्रति उनकी गहरी निष्ठा व्यक्त हई है तो ‘स्वर्ग
में विचार सभा का अधिवेशन’, ‘पाँचवें
पैगंबर’, ‘कानून
ताजीरात शौहर’ जैसे निबंधों में उनकी राजनीतिक चेतना के साथ ही
व्यंग्य विनोद की क्षमता का पता लगता है।
भारतेंदु के निबंधों की भाषा के कई रूप हैं - उर्दूनिष्ठ, संस्कृतनिष्ठ
और बोलचाल की हिंदी।
बालकृष्ण भट्ट (1844 ई. -1914 ई.) : बालकृष्ण भट्ट इस
युग के एक अन्य प्रमुख निबंधकार है। इन्होंने लगभग एक हजार निबंध लिखे हैं।
बालकृष्ण भट्ट ने बत्तीस वर्षों तक ‘हिंदी प्रदीप’ निकाला। उन्होंने समाज, साहित्य, धर्म, संस्कृति, रीति, प्रथा, भाव, कल्पना
सभी क्षेत्रों से विषयों का चयन किया है। हास्य और विनोद तो प्रायः उस युग के सभी
निबंधकारों की विशेषता थी, लेकिन भट्टजी के निबंधों में कल्पना, भावना
और वैचारिकता का भी स्पर्श मिलता है।
उनकी
भाषा प्रायः बोलचाल के नज़दीक है। उनमें हिंदी के अतिरिक्त उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत
के शब्दों का प्रयोग भी पर्याप्त मात्रा में है। इससे कहीं-कहीं भाषा बोझिल भी हुई
है।
उन्होंने
‘चारुचरित्र’, ‘साहित्य
जनसमूह के हृदय का विकास है’, ‘चरित्रपालन’, ‘प्रतिभा’, ‘आत्मनिर्भरता’ जैसे
विचारात्मक निबंध, ‘आँसू’, ‘मुग्ध
माधुरी’, ‘पुरुष
अहेरी की स्त्रियाँ अहेर हैं’, ‘कल्पना’ आदि
भावात्मक निबंध, ‘शंकराचार्य
और गुरुनानक देव’ जैसे वर्णनात्मक, ‘आँख’, ‘नाक’, ‘कान’ जैसे
सामान्य विषयों तथा ‘इंगलिश
पढ़े सौ बाबू होय’, ‘दंभाख्यान’, ‘अकिल
अजीरन रोग’ जैसे व्यंग्य-विनोदपरक निबंध लिखे।
प्रतापनारायण मिश्र (1856-1894): प्रतापनारायण
मिश्र में तीखे व्यंग्य और गहरे विनोद की
वृत्ति थी, जिसका उल्लेख स्वयं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने
इतिहास ग्रंथ में किया है। इनकी भाषा में ‘व्यंगपूर्ण
वक्रता’ की मात्रा काफ़ी है। इसके लिए वे लोकोक्तियों और
मुहावरों का भी प्रयोग करते हैं।
मिश्रजी ने एक ओर ‘भौं’, ‘बुढ़ापा’, ‘होली’, ‘धोखा’, ‘मरे को
मारे शाह मदार’ जैसे विनोद और व्यंग्यात्मक निबंध लिखे हैं तो दूसरी
ओर उन्होंने ‘शैवमूर्ति’, ‘विश्वास’, ‘नास्तिक’ जैसे
गंभीर विवेचनपरक निबंध भी लिखे हैं।
बालमुकुंद गुप्त (1865-1907) : भारतेंदु युग के अत्यंत प्रतिभावान् निबंधकार बालमुकुंद
गुप्त की चर्चा भी आवश्यक है जिन्होंने द्विवेदी युग में भी
महत्वपूर्ण लेखन किया था। उनके निबंधों में गहरा चिंतन, तीखा
व्यंग्य, और मीठी हँसी का समावेश मिलता है। ‘शिवशंभु का चिट्ठा’ (लार्ड
कर्ज़न को संबोधित) नाम से लिखे गए निबंध उनकी देशभक्ति
की भावना के द्योतक तो है ही, व्यंग्य और गहरी विचारशीलता के भी परिचायक हैं।
2. द्विवेदी युग (1900 ई. से 1920 ई.)
निबंधों के उत्थान का दूसरा दौर हमें द्विवेदी युग में दिखायी देता है। सन् 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन आरंभ हुआ था। 1903 में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी (1864 ई. -1938 ई.) इसके संपादक हुए और 1920 तक ‘सरस्वती’ का संपादन करते रहे।
द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ के
माध्यम से हिंदी भाषा और साहित्य को प्रौढ़ता और नवीनता प्रदान की। उन्होंने
साहित्य की अन्य विधाओं के साथ-साथ निबंध लेखन को भी प्रोत्साहित किया। स्वयं
उन्होंने निबंध लिखकर उच्चकोटि के निबंधों का आदर्श प्रस्तुत किया।
“द्विवेदीजी ने ‘सरस्वती’ में
अनेक प्रकार के उपयोगी, ज्ञान विषयक, ऐतिहासिक, पुरातत्व
तथा समीक्षा संबंधी निबंध और लेख लिखे। उन्होंने गद्य की अनेक शैलियों का प्रवर्तन
तथा भाषा का संस्कार किया। अंग्रेजी के निबंधकार ‘बेकन’ के
निबंधों का अनुवाद भी ‘बेकन-विचार-रत्नावली’ के
नाम से प्रस्तुत किया, जिससे हिंदी के अन्य अनेक लेखकों को निबंध लिखने की
प्रेरणा मिली।” (हिंदी साहित्य कोश, भाग 2; सं. डॉ.
धीरेन्द्र वर्मा) ।
इस युग के निबंध पत्र-पत्रिकाओं में
अधिक प्रकाशित हुए। इनमें ‘नागरी प्रचारिणी
पत्रिका’ (1897 ई.), ‘समालोचक’ (1902 ई.), ‘इंदु’ (1909 ई.), ‘मर्यादा’ (1910 ई.), ‘प्रभा’ (1913 ई.) आदि प्रमुख है।
इस युग में राष्ट्रीय चेतना और अधिक परिपक्व हो
चुकी थी। राष्ट्रीय जागृति, विश्वबंधुता, सामाजिक
एकता, अतीत गौरव तथा सांस्कृतिक नवजागरण की भावना को इस युग
की प्रमुख पहचान कहा जाएगा।
इस
युग में में द्विवेदीजी ने भाषा के परिष्कार का महत्वपूर्ण कार्य किया। वे न तो
अत्यधिक संस्कृतनिष्ठता के पक्ष में थे और न अरबी-फारसी के शब्दों से लदी भाषा के
पक्ष में। हिंदी गद्य ने अपना स्वाभाविक और परिनिष्ठित रूप इसी युग में प्राप्त
किया।
इस
युग के निबंधकारों में बालमुकुंद गुप्त, आचार्य महावीरप्रसाद
द्विवेदी, श्यामसुंदरदास, आचार्य
रामचंद्र शुक्ल, सरदार पूर्णसिंह, चंद्रधर
शर्मा गुलेरी, माधवप्रसाद मिश्र आदि प्रमुख है।
आचार्य महावीरप्रसाद
द्विवेदी ने मुख्यतः विचारप्रधान निबंध लिखे हैं
लेकिन उनमें गहरे विश्लेषण और तात्विक चिंतन का अभाव है।
सरदार
पूर्ण सिंह (1881 ई.-1931 ई.) ने
सिर्फ छह निबंध लिखे हैं। इनके निबंध नैतिक तथा सामाजिक विषयों पर आधारित है।
मानवतावादी दृष्टि इनकी प्रमुख विशेषता है। इनके निबंधों में ‘आचरण की
सभ्यता’, ‘मजदूरी
और प्रेम’ तथा ‘सच्ची वीरता’ विशेष
रूप से उल्लेखनीय है।
चंद्रधर
शर्मा गुलेरीजी (1883 ई. -1920 ई.) इतिहास, संस्कृति, साहित्य
और भाषा के प्रकांड पंडित थे। उन्होंने इन्हीं विषयों पर अत्यंत गवेषणापूर्ण और
गंभीर लेखन किया, लेकिन इनकी शैली सरल और सरस है। इनके निबंधों में
मार्मिक व्यंग्य भी व्यक्त हुआ है।
इसी दौर में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी निबंधों की रचना की। उनके आरंभिक निबंधों में वे सभी विशेषताएँ बीज रूप में मिल जाती हैं जिनके कारण बाद में उनकी विशिष्ट पहचान बनी।
शुक्लजी ने भी विविध विषयों पर निबंध लिखे लेकिन उनकी प्रवृत्ति गंभीर विवेचन
और तीखे व्यंग्य की रही है। यही कारण है कि निबंधों में उनका चिंतक और मानवतावादी
रूप उभरा है। शुक्लजी ने विषय, भाषा और शैली सभी दृष्टियों से हिंदी निबंधों को
उत्कृष्टता प्रदान की। निस्संदेह उन्हें हिंदी का सर्वश्रेष्ठ निबंधकार कहा जा
सकता है। द्विवेदी युग के बाद के निबंधों का
विकास उन्हीं के व्यक्तित्व से पहचाना जाता है।
3. शुक्ल
युग (1920 से 1940)
द्विवेदी युग में गद्य भाषा के परिष्कार और संस्कार का कार्य संपन्न हो गया था। इसके बाद गद्य की भाषा में सृजनात्मक प्रयोग का कार्य आरंभ हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल (जिन्होंने आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया था) ने गद्य की भाषा को निखारने और जटिल से जटिल विषय, विचार और भाव को प्रस्तुत करने में सक्षम बनाने का उल्लेखनीय कार्य किया।
यह वह दौर था
जब कथा साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद और काव्य के क्षेत्र में प्रसाद, निराला, पंत
जैसे छायावादी सक्रिय थे। कथा और काव्य दोनों क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण कार्य हो
रहा था, उसका प्रभाव भी निबंध लेखन पर पड़ा। स्वयं छायावादी
कवियों और प्रेमचंद ने विभिन्न विषयों पर निबंध लिखे। छायावादी कवियों की गद्य
भाषा में सरसता, भावप्रवणता, कल्पनाशीलता
आदि गुण दिखायी देते हैं।
प्रेमचंदजी के गद्य लेखन में वैचारिक स्पष्टता, तार्किकता, सरलता
और सहजता के गुण हैं। इस युग की गद्य भाषा पर इन दोनों तरह के लेखन का असर पड़ा।
शुक्लजी के निबंधों में गंभीर वैचारिक बोध, स्पष्ट
चिंतन, सिद्धांत और व्यवहार की पूर्ण एकता तथा संवेदनशील हृदय
के दर्शन होते हैं। उनकी भाषा उनके मंतव्य को पूरी तरह संप्रेषित करने में सक्षम
है।
इस युग के प्रतिनिधि निबंधकार तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1884 ई. -1941 ई.) ही हैं।
शुक्लजी ने विभिन्न विषयों पर निबंध लिखे जो ‘चिंतामणि’ के तीन
भागों में संकलित हैं। उन्होंने भय, क्रोध, श्रद्धा, भक्ति, घृणा
आदि विभिन्न मनोभावों पर दस निबंध लिखे जिनमें उन्होंने इन मनोभावों के सामाजिक
पक्ष का विश्लेषण किया। शुक्लजी ने साहित्य के गंभीर पक्षों पर भी लिखा। उनके ऐसे
निबंधों में गंभीर चिंतन, सैद्धांतिक विवेचना और तर्कपूर्ण व्याख्या तो मिलती ही
है, भावुक हृदय के दर्शन भी होते हैं।
इस युग के निबंधकारों में देशभक्ति और
राष्ट्रप्रेम की भावनाओं के साथ व्यापक मानवीय दृष्टिकोण भी रहा है। यह विशेषता हम
शुक्लजी के निबंधों में भी पाते हैं।
शुक्लयुग के निबंधकारों में बाबू गुलाबराय, जयशंकर
प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, निराला, महादेवी
वर्मा, नंददुलारे वाजपेयी, शांतिप्रिय
द्विवेदी, प्रेमचंद, राहुल
सांकृत्यायन, रामनाथ सुमन, माखनलाल
चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं।
शुक्लजी
के बाद हिंदी निबंधों का विकास अधिक तेजी से हुआ। निबंध लेखन की कई ऐसी धाराएँ
विकसित हुई जिन्होंने अपनी अलग पहचान कायम की, जैसे
ललित निबंध और व्यंग्य निबंध। अब आगे हम शुक्लोत्तर युग में निबंधों के विकास पर
विचार करेंगे।
4. शुक्लोत्तर युग (1940 ई. से आज तक)
शुक्लयुग
के बाद के दौर में निबंध लेखन की कई शैलियों ने अपनी अलग परंपराएँ कायम कीं। इस
युग में दो प्रमुख शैलियों ने निबंध लेखन को उत्कर्ष पर पहुँचाया। ललित निबंध और
व्यंग्य निबंध। इस दौर में निबंधों के विकास का उनकी कुछ प्रमुख शैलियों के
अंतर्गत विचार करेंगे। ये शैलियाँ हैं:
(1) वैचारिक
निबंध
(2) ललित निबंध
(3) व्यंग्य निबंध
द्विवेदी
युग और शुक्लयुग के निबंधों में वैयक्तिक स्पर्श का प्रायः अभाव रहा। छायावादी
कवियों द्वारा लिखे गये गद्य में अवश्य वैयक्तिकता और तरलता का स्पर्श था, लेकिन
इस पूरे दौर में भारतेंदु युग के लेखकों की भाँति आत्मपरकता और जिंदादिली का
प्रायः अभाव ही रहा। शुक्लयुग के बाद के दौर में एक बार फिर वैयक्तिकता का समावेश
हुआ। इस वैयक्तिकता में भावुकता नहीं थी बल्कि इसके विपरीत इसमें भाव और विचार का
संतुलित रूप व्यक्त हुआ।
इस दौर के कई निबंधकारों ने शुक्लजी की परंपरा
को आगे बढ़ाते हुए गहन विश्लेषणात्मक निबंध भी लिखे। भारतेंदु युग के निबंधकारों
का महत्वपूर्ण गुण था, सामाजिक
समस्याओं के प्रति सजगता और व्यंग्य विनोद । इस परंपरा को व्यंग्य निबंधकारों ने
आगे बढ़ाया। इस प्रकार शुक्लोत्तर युग ने निबंध की अब तक की परंपरा को अपने में
आत्मसात् करते हुए उसका विकास किया। अब आगे हम इस युग के निबंधों को प्रमुख
शैलियों के विकास का अध्ययन करेंगे।
(1) वैचारिक निबंध : शुक्लजी के बाद भी हिंदी में
वैचारिक निबंधों की परंपरा यथावत् कायम रही। इस दौर के वैचारिक निबंधों में
वैचारिक स्पष्टता और तर्कपूर्ण चिंतन के साथ विचारधारात्मक आग्रह भी व्यक्त हुए।
डॉ. संपूर्णानंद, जैनेंद्रकुमार, रामविलास
शर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, नगेंद्र
आदि के निबंधों से उनकी वैचारिक दृष्टि का भी परिचय मिलता है। इन निबंधकारों ने
समसामयिक विषयों पर अत्यंत प्रभावशाली निबंध लिखे हैं।
प्रसिद्ध कथाकार जैनेंद्रकुमार ने
सांस्कृतिक, नैतिक और राजनीतिक चिंतन को अपनी विशिष्ट शैली में
विश्लेषणात्मक निबंधों के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने कहीं-कहीं प्रश्नोत्तर
और साक्षात्कार की पद्धति भी अपनायी। उनकी शैली की यह सीमा भी है कि वह रोचक होते
हुए भी कहीं-कहीं जटिल और उलझाव से युक्त हो जाती है। उनके निबंध ‘समय और
हम’ पुस्तक में संकलित है।
डॉ.संपूर्णानंद के निबंधों में दार्शनिक विवेचन है, लेकिन
उनमें जटिलता नहीं है।
डॉ.
रामविलास शर्मा के निबंधों में प्रेमचंद और शुक्लजी
दोनों की विशेषताएँ मौजूद है। विश्लेषणात्मकता के साथ-साथ भाषा की सरलता और सहजता
उनके विशेष गुण है। वे अपनी बात पूरी दृढ़ता से और दो टूक ढंग से कहते हैं। इसलिए
उनकी बातों को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। उनके यहाँ तीक्ष्ण व्यंग्य भी है
जो उनकी शैली को रोचक बनाता है। उन्होंने ज्यादातर साहित्यिक विषयों पर आलोचनात्मक
निबंध लिखे हैं लेकिन कुछ निबंध उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक
आदि विषयों पर भी लिखे है। ऐसे निबंध ‘विराम
चिह्न’ में संकलित हैं।
डॉ.नगेन्द्र
ने भी मुख्यतः साहित्यिक विषयों पर निबंध लिखे हैं, कुछ
यात्रा संबंधी निबंध भी हैं। “नगेन्द्र सुलझे हुए विचारक और गहरे विश्लेषक हैं, उलझन
उनमें कहीं नहीं है। अपनी सूझबूझ तथा पकड़ के कारण वे गहराई में पैठकर केवल
विश्लेषण ही नहीं करते, बल्कि नयी उद्भावनाओं से अपने विवेचन को विचारोत्तेजक
भी बनाते जाते हैं।” (हिंदी साहित्य कोश) उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं - विचार
और विवेचन (1944), विचार और अनुभूति (1949), आस्था
के चरण (1969) आदि ।
(2) ललित निबंध : ललित निबंध में लालित्य अर्थात् शैली के उत्कर्ष पर विशेष बल होता है। निबंधकार अपने भावों और विचारों को इस रूप में प्रस्तुत करना चाहता है जो सरस, अनुभूतिजन्य, आत्मीय और रोचक लगे। जिसमें भाषा शुष्क न हो बल्कि कल्पनाशीलता, सरसता और सहजता उसका गुण हो ।
ललित निबंधकार गहरे विश्लेषण, उबाऊ
वर्णन, जटिल वाक्य-रचना से बचता है। वह अपने व्यक्तित्व का
परिचय भी कदम-कदम पर देता चलता है। वस्तुतः उसकी शैली उसके रचनाकार के व्यक्तित्व
का ही आईना होती है। लेकिन वह आत्मस्थापना का प्रयास भी नहीं करता।
ललित निबंधकारों में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का प्रमुख स्थान है। उनके निबंधों में मानवतावादी जीवन-दर्शन और संवेदनशील हृदय दोनों के दर्शन होते हैं। उनका अध्ययन क्षेत्र बहुत विशाल था। उन्होंने संस्कृत के प्राचीन साहित्य के साथ-साथ पालि, अपभ्रंश और बंगला आदि भाषाओं के साहित्य और मध्यकालीन हिंदी साहित्य का गहन अध्ययन किया था, लेकिन उनकी दृष्टि आधुनिक थी। इसलिए उनके निबंधों में पांडित्य के साथ-साथ नवीन चिंतन दृष्टि के भी दर्शन होते हैं।
द्विवेदीजी ने अपने निबंधों में विचारों को शुष्क
रूप में कभी प्रस्तुत नहीं किया बल्कि जीवनानुभवों और गहन ज्ञान के आलोक में उसे
नया रूप प्रदान किया। उनके निबंधों की भाषा में लचीलापन अधिक है। वे देशज शब्दों
के साथ संस्कृत के प्रचलित और अप्रचलित शब्दों का सामंजस्य भी बैठा लेते हैं और
भाषा का यह रूप कहीं खटकता भी नहीं है। उनका वाक्य विन्यास भी ललित एवं भावपूर्ण
गद्य के अनुकूल है। उनके प्रमुख निबंध-संग्रह
‘अशोक के फूल’, ‘विचार
और वितर्क’, ‘कल्पलता’, आदि
हैं।
आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेदी के अतिरिक्त ललित निबंधकारों में विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ
राय, विवेकी राय आदि प्रमुख हैं।
विद्यानिवास
मिश्र संस्कृत भाषा और साहित्य के विद्वान है किंतु उनकी
उतनी ही गहरी पैठ लोक साहित्य और लोक संस्कृति में भी है जिसके कारण उनके निबंधों
में पांडित्य के साथ-साथ लोक-जीवन का भी आनंद मिलता है। उनकी शैली भावपूर्ण और
काव्यमय है तथा भाषा भी वैसी ही काव्यमय और सरस है। उनके प्रमुख निबंध संग्रह है ‘मेरे
राम का मुकुट भीग रहा है’, ‘तुम
चंदन हम पानी’, ‘तमाल के
झरोखे से’, ‘संचारिणी’, ‘लागौ
रंग हरी’, आदि।
(3) व्यंग्य निबंध : हिंदी में व्यंग्य निबंधों की शुरुआत
भारतेंदु युग में हुई थी। उस दौर में स्वयं भारतेंदु ने तथा प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण
भट्ट आदि ने कई व्यंग्य निबंध लिखे थे। लेकिन बाद में व्यंग्य निबंध लिखने की
परंपरा शिथिल हो गई; यद्यपि आचार्य आचार्य रामचंद्र शुक्ल , बाबू
गुलाब राय, रामविलास शर्मा आदि के निबंधों में व्यंग्य और विनोद
का पुट भी बना रहा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के दौर में व्यंग्य निबंध के एक नये युग की शुरुआत हुई। इसका श्रेय हरिशंकर परसाई को है जिन्होंने व्यंग्य को एक स्वतंत्र विधा की तरह प्रतिष्ठित किया। व्यंग्य निबंध में निबंधकार समाज की किसी समस्या को अपने निबंध का विषय बनाता है, लेकिन वह उसका न तो वैचारिक दृष्टि से विवेचन करता है और न ही उसका भावात्मक वर्णन करता है। वह समस्या की गहराई में जाकर उसके अंतर्विरोधी पहलुओं को उद्घाटित करता है, जो सामान्यतः हमारी नज़र से ओझल हो जाते हैं।
उन अंतर्विरोधों को वह ऐसे रूप में प्रस्तुत करता है जिससे कि उससे नये अर्थ की व्यंजना हो। इसके लिए रचनाकार एक विशेष तरह की भाषाशैली अपनाता है । वह ऐसे शब्दों का चयन करता है जिससे व्यंग्य को ध्वनित करने वाला अर्थ निकले।
व्यंग्य निबंधकार प्रायः समसामयिक विषयों पर लिखता
है और उन्हें अपने व्यंग्य का लक्ष्य बनाता है। व्यंग्य से पाठक को एक नयी दृष्टि
मिलती है और सामाजिक जागरुकता भी पैदा होती है। रूढ़िवाद, अंधविश्वास
आदि पर लिखे गये निबंधों से पाठकों को सामाजिक सोद्देश्यता का संदेश भी मिलता है।
व्यंग्य की लोकप्रियता का ही यह परिणाम है कि आज कई समाचार पत्रों और पत्रिकाओं
में व्यंग्य का एक स्थायी स्तंभ रहता है।
हिंदी व्यंग्य लेखकों में
हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ
त्यागी, गोपालप्रसाद व्यास, बरसानेलाल
चतुर्वेदी आदि प्रमुख हैं। डॉ.नामवर
सिंह का ‘बकलम खुद’ इस दृष्टि से उल्लेखनीय रचना है।
साहित्यिक, भावप्रवण, चिंतनप्रधान
उच्चकोटि के निबंध लिखने वाले लेखकों में ‘अज्ञेय’, कन्हैयालाल
मिश्र ‘प्रभाकर’, प्रभाकर माचवे, शिवप्रसाद सिंह, गजानन माधव मुक्तिबोध, धर्मवीर
भारती, रघुवीर सहाय आदि
प्रमुख हैं।
निष्कर्ष
हिंदी
निबंध लेखन की परंपरा अत्यंत समृद्ध है। लेकिन इधर के वर्षों में इस क्षेत्र में
नये लेखकों का आगमन बहुत कम हुआ है। ललित, भावात्मक
विचारात्मक निबंध लेखन की प्रवृत्ति कम हुई है और जो लिख भी रहे हैं वे पुरानी
पीढ़ी के ही लेखक हैं। नये लेखकों की निबंध लेखन की ओर से यह उदासीनता अत्यंत
चिंताजनक है।
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