काव्य में लोक-मंगल की
साधनावस्था – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
Kavya men Lokmangak ki Sadhnavastha
Acharya Ramchandra Shukla
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ऐसे काव्यों को, जिनमें मंगल का विधान (कल्याण करने का उद्देश्य) करने वाला भाव ‘करुणा’ बीज रूप में विद्यमान रहता है, श्रेष्ठ घोषित करके ‘लोक मंगल की साधना’ को काव्य-प्रतिमान के रूप में
प्रतिष्ठित किया है ।
उनका तर्क है कि लोक में मंगल का विधान करने वाले दो भाव हैं- ‘करुणा’ और ‘प्रेम’। ‘करुणा’ की गति लोक की रक्षा की ओर होती है और ‘प्रेम’ की गति लोक के रंजन की ओर ।
(लोकरंजन = लोगों को खुश करके उनका विश्वास प्राप्त करना)
‘लोक-मंगल’
शब्द को विशिष्ट अर्थ देने का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को है।
लोक-मंगल के दोनों अंशभूत शब्द ‘लोक’ और ‘मंगल’ आचार्य शुक्ल को भारतीय परंपरा के प्रवाह से
प्राप्त हुए हैं।
सामान्यतः ‘लोक’ शब्द से तात्पर्य है 'सामान्य जन' और ‘मंगल’
से तात्पर्य है ‘कल्याण’, किंतु यह शब्द आचार्य रामचंद्र शुक्ल के यहां नये अर्थ के साथ प्रयुक्त
हुआ है।
आचार्य शुक्ल ने ‘लोक’ शब्द का प्रयोग यों तो कई अर्थों में किया है-कहीं ‘जगत’ के लिए, कहीं ‘समाज’ के लिए, कहीं ‘मानव जाति’ के लिए और कहीं ‘संपूर्ण
मानवता’ के लिए, किंतु जिस लोक से वे
दुःख की छाया हटाना चाहते हैं, निश्चय ही वह दुःखी, पीड़ित और गरीबों का लोक है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार काव्य दो प्रकार के होते हैं :
1. आनंद की साधनावस्था या प्रयत्न-पक्ष को लेकर चलने वाले :
इसका संबंध लोक-मंगल अथवा लोक कल्याण से होता है। इसका मुख्य कार्य
लोक मंगल का विधान करना होता है । इस प्रकार के काव्य हैं : रामायण, महाभारत, रघुवंश, शिशुपालवध
इत्यादि।
2. आनंद की सिद्धावस्था या उपभोग पक्ष को लेकर चलने वाले :
इसका संबंध केवल लोगों के मनोरंजन से है अथवा केवल उपभोग मात्र से है
। इस प्रकार के काव्य के उदाहरण हैं : आर्यासप्तशती,
गाथा सप्तशती, गीत गोविंद इत्यादि ।
सन् 1907 ई. में ही वे अपने
देशवासियों को बता देना चाहते थे कि- “प्रत्येक ग्रामवासी
को यह जानना चाहिए कि अधिक काम करने के बाद भी उसे उसके बदले में कम क्यों दिया
जाता है, प्रत्येक नागरिक को
यह साफ-साफ पता होना चाहिए कि उसका देश दिन-ब-दिन और गरीब क्यों होता जा रहा है?”
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो उनकी ‘लोक’
संबंधी अवधारणा में भारत की गरीब, पीड़ित और शासित जनता का
बिंब था।
शुक्ल जी के अनुसार, “सत् (सत्य या यथार्थ) और असत् (असत्य, अनुचित), भले और बुरे दोनों के मेल का नाम संसार
है। पापी और पुण्यात्मा, परोपकारी और अत्याचारी, सज्जन और दुर्जन, सदा से संसार में रहते आये हैं और
सदा रहेंगे।”
मंगल और अमंगल, सत् और असत् के संघर्ष में, अंत में सत् अपना प्रकाश
करता है, इस बात का पूर्ण विश्वास तुलसीदासजी के साथ-साथ शुक्लजी
को भी था।
तभी उन्होंने लिखा है, “लोक की पीड़ा-बाधा, अन्याय,
अत्याचार के बीच दबी हुई आनंद-ज्योति भीषण शक्ति में परिणत होकर
अपना मार्ग निकालती है और फिर लोक-मंगल और लोक-रंजन के रूप में अपना प्रकाश करती
है।”
स्पष्ट है कि मंगल की सम्यक् स्थापना क्षमा, दया, आदि साधुता की एकांगी प्रवृत्तियों द्वारा ही
संभव नहीं है, क्योंकि बहुत से दुष्ट और क्रूर हृदय इन मृदुल
प्रवृत्तियों से अप्रभावित रहकर लोक-उत्पीड़न में सलंग्न रहते हैं। उनका
प्रतिविधान (प्रतिकार करने, बदला लेने) करने के लिए
उग्रवृत्तियों का संयत प्रकाशन लोक-मंगल
की स्थापना के लिए अभीष्ट है।
अतएव शुक्ल जी के अनुसार, “क्षमा जहां से श्रीहत (समाप्त या कांतिहीन) हो
जाती है वहीं से क्रोध का सौंदर्य आरंभ होता है। जिसमें शिष्टों का आदर, दीनों पर दया, दुष्टों के दमन आदि जीवन के अनेक रूपों
का सौंदर्य दिखायी पड़ेगा, वही सर्वांगपूर्ण लोक-धर्म का
मार्ग होगा।”
मूल बात यह है कि अधर्म
वृत्ति को हटाकर धर्म वृत्ति की प्रतिष्ठा के लिए कभी कोमल और मधुर एवं कभी उग्र
और प्रचंड प्रयास करने पड़ते हैं। इसीलिए शुक्ल जी की दृष्टि में “भीषणता और सरसता, कोमलता और कठोरता, कटुता और मधुरता, प्रचंडता और मृदुता का सामंजस्य ही लोक-धर्म का सौंदर्य है।”
साहित्य के मूल्यांकन के एक प्रमुख मानदंड के रूप में लोक-मंगल की
प्रतिष्ठा शुक्ल जी ने जिस तर्क-श्रृंखला के आधार पर की है, वह बहुत पुष्ट है। सर्वप्रथम उन्होंने यह निरूपित किया कि साहित्य या
काव्य का प्रयोजन इसी लोक के भीतर है और उसका लक्ष्य मनुष्य का हृदय
है।
उनके अनुसार, “मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है। उसका अपनी सत्ता का
ज्ञान तक लोकबद्ध है। लोक के भीतर ही कविता क्या, किसी कला
का प्रयोजन और विकास होता है, एक की अनुभूति को दूसरों के
ह्रदय तक पहुंचाना, यही कला का लक्ष्य होता है।”
एक की अनुभूति को दूसरा सहज रूप में तभी अपनायेगा जब वह उसे अपने
अनुरूप भी लगेगी, सुंदर भी होगी और
उनके जीवन को समृद्ध भी करेगी। अतः शुक्ल जी ऐसे व्यक्ति-वैचित्र्यवाद
के विरुद्ध हैं, जिसके अंतर्गत ऐसी अनुभूति की अभिव्यक्ति भी
साहित्य में की जाती है जो दूसरे की हो ही न सकती हो।
उनकी
उक्ति है, “अतः हमारे देखने में ऐसी
मनोवृत्ति (मन की स्वाभाविक स्थिति) का प्रदर्शन जो किसी दशा में किसी की हो नहीं
सकती, केवल ऊपरी मन बहलाव के लिए खड़ा किया हुआ कृत्रिम
तमाशा ही होगा।”
एक की अनुभूति दूसरे की हो सके इसके लिए उसे ‘लोकसामान्य भावभूमि’ पर
प्रतिष्ठित करना होगा।
इसलिए शुक्ल जी के अनुसार, “सच्चा कवि वही है जिसे लोकहृदय की पहचान हो,
जो अनेक विशेषताओं और विचित्रताओं के बीच मनुष्य जाति के सामान्य
हृदय को देख सके। इसी लोक-हृदय में लीन होने की दशा का नाम रस-दशा है।”
आचार्य शुक्ल ने ‘लोक-मंगल की साधना’ को
काव्य की श्रेष्ठता के प्रतिमान के रूप में प्रतिष्ठित किया है। उनका तर्क है कि
लोक में मंगल का विधान करनेवाले दो भाव हैं-‘करुणा
और प्रेम’। ‘करुणा’ की गति लोक की रक्षा की ओर होती है और ‘प्रेम’ की गति लोक रंजन की ओर।
इन दोनों भावों को वे
सत्त्व-गुण-प्रधान मानते हैं। वे कहते हैं कि मंगल का विधान तभी हो सकता है जब
रजस् और तमस् गुण, सत्त्व-गुण के अधीन
रहकर कार्य करें।
(रजो गुण = भोगविलास और राजसी ठाठ बाट,
तमोगुण = अंधकार, अज्ञान आदि गुण,
सतोगुण = अच्छे और सरल कर्मों की ओर प्रवृत्त करने वाला गुण )
भावों में ‘करुणा’ और ‘प्रेम’ सत्त्व-गुण
प्रधान होते हैं। क्रोध, भय, घृणा आदि
प्रचंड भाव रजस् और तमस् प्रधान होते हैं।
आचार्य शुक्ल की मान्यता यह है कि
करुणा और प्रेम की लक्ष्य-सिद्धि में सहायक होकर अर्थात् सत्त्वगुण के अधीन सक्रिय
रहकर क्रोध, भय, घृणा
जैसे प्रचंड भाव भी सुंदर हो जाते हैं।
उदाहरण के लिए वाल्मीकि रामायण में लोक-पीड़क राक्षसराज रावण के
प्रति राम का कालाग्निसदृश क्रोध इसीलिए सुंदर प्रतीत होता है कि वह करुणा से, लोक-रक्षा की भावना से प्रेरित होकर उसी के लक्ष्य की पूर्ति के लिए कार्य
कर रहा है।
रावण की मृत्यु के बाद लोक से दुःख की छाया हट
जाती है। लोक, पीड़ा और विघ्न-बाधा से मुक्त हो
जाता है और तब राम राज्य की स्थापना होती है।
इस रामराज्य की व्याख्या करते हुए शुक्लजी
कहते हैं, “यह धर्म राज्य है, प्रकृति का रंजन (प्रसन्न करने
वाला) करनेवाला है। इस राज्य की स्थापना केवल शरीर पर ही नहीं होती, हृदय
पर भी होती है। यह राज्य केवल चलती हुई जड़ मशीन नहीं है- आदर्श व्यक्ति का
परिवर्धित रूप है”।
इसी संदर्भ में आचार्य शुक्ल ने ‘विरुद्धों
के सामंजस्य में कर्मक्षेत्र के सौंदर्य’ का सिद्धांत स्थापित किया है।
उन्होंने कहा
है- “लोक में फैली दुःख की छाया को हटाने में ब्रह्म की
आनंदकला जो शक्तिमय रूप धारण करती है उसकी भीषणता में भी अद्भुत मनोहरता, कटुता
में भी अपूर्व मधुरता, प्रचंडता में भी गहरी आर्द्रता साथ लगी रहती
है। विरुद्धों का यही सामंजस्य कर्मक्षेत्र का सौंदर्य है, जिसकी
ओर आकर्षित हुए बिना मनुष्य का हृदय नहीं रह सकता।”
आचार्य शुक्ल मार्क्सवादी
नहीं थे। लेनिन का उन्होंने पर्याप्त विरोध किया था, किंतु इसके बावजूद हिंदी के सभी प्रतिष्ठित मार्क्सवादी आलोचकों ने आचार्य
रामचंद्र शुक्ल को अत्यंत श्रद्धा के साथ स्मरण किया है, उनके
महत्व को स्वीकार किया है और उनपर किताबें लिखी हैं।
डॉ.रामविलास शर्मा, शिवकुमार मिश्र, नामवर सिंह आदि सबका नाम इस श्रेणी
में लिया जा सकता है। यह अकारण नहीं है। वस्तुतः शुक्ल जी के ‘लोक’ और मार्क्सवाद के ‘शोषित वर्ग’ के बीच ज्यादा फासला नहीं है। मार्क्सवादी हुए बगैर भी शुक्ल जी का लक्ष्य
लगभग वही है जो मार्क्स का है।
निष्कर्ष
निष्कर्ष यह है कि जब तक समाज
में अच्छे-बुरे, सत्-असत्,
मंगल-अमंगल, न्याय-अन्याय का द्वंद्व विद्यमान रहेगा; मंगल विधायक भावों की अवधारणा
रहेगी; चरित्र के औदात्य के मान-बिन्दु रहेंगे, तब तक काव्य के उत्कर्ष के प्रतिमान के रूप में लोक-मंगल की साधना की
प्रासंगिकता बनी रहेगी ।
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