रामायण के बहुभाषिक पाठ | Ramayan Ke Bahubhashik Path
रामायण के बहुभाषिक पाठ
Ramayan ke Bahubhashaik Path
भारतीय संस्कृति मूलतः कृषि संस्कृति है। कृषि संस्कृति के जितने भी ऊंचे आदर्श हो सकते हैं। राम उनके प्रतीक हैं। वाल्मीकि ने उन्हें पूर्ण पुरुष के रूप मैं प्रस्तुत किया है। वे सुन्दर, धीर-वीर-गम्भीर हैं।
राम की भक्ति के माध्यम से तुलसी ने चाहा था कि वे समस्त युगीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकें। उनके राम हैं भी कैसे ? वे एक और परब्रह्म हैं, राग-विराग से ऊपर उठे हुए, तो दूसरी ओर वे अत्यन्त सहृदय, सुशील मानव हैं।
वे ब्रह्म हैं, सभी सद्गुणों से सम्पन्न हैं। अतः
उनके सुख-दुःख, उनकी अनुभूति से पाठक मात्र समरस हो जाता है। ऐसे अखण्ड सत्ता सम्पन्न
तथा समस्त मानवीय गुणों से युक्त प्रभु राम की गाथा लोककल्याणकारी है।
‘रामकथा जग मंगल करनी’ है। लोकमंगल
का यही दृष्टिकोण मन में रखकर तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ की सम्पूर्ण कथा का ताना-बाना बुना।
बहुभाषिक
भारतीय समाज में रामचरितमानस का प्रचार
भारत की
सभी भाषाओं बोलियों, लोकगीतों और अधिकांश जनजातियों में रामकथा उपलब्ध है। इन सभी का मूल आधार तो वाल्मीकि रामायण की मुख्य
कथा ही है। देश की प्रमुख आधुनिक भाषाओं को निम्न वर्गों में बाँटकर उनकी ‘रामायणों’
का अध्ययन प्रस्तुत है-
1. पूर्वांचल नेपाली, असमीया, बांग्ला और ओड़िया रामायणें।
2. मध्यप्रदेश: रामचरितमानस तथा मराठी, गुजराती रामायणें।
3. पश्चिम रामायण।
4 पंजाबी-रामायण।
5. दक्षिण
तेलुगु, कन्नड, तमिल और मलयालम रामायणें ।
भारतीय
भाषाओं की रामायणों पर अध्यात्म रामायण का गहरा प्रभाव पड़ा। नेपाली-रामायण, मलयालम
रामायण तो अध्यात्म रामायण के स्वतंत्र अनुवाद हैं ही ।
बांग्ला, ओड़िया, गुजराती, तेलुगु, कन्नड़ और तमिल भाषाओं की प्रतिनिधि रामायणें भी इसके प्रभाव से मुक्त नहीं हैं।
नेपाली रामायण
सीता की
जन्मभूमि नेपाल के जनकपुर में बतायी जाती है। जनकपुर के पास धनुषा नामक स्थान पर धनुष यज्ञ हुआ था। नेवार जाति के लोगों का विश्वास
है कि संजीवनी बूटी ले
जाते समय हनुमान यहाँ की एक छोटी नदी के पास ठहरे थे। नेपाल के कई नरेशों ने राम मन्दिरों का निर्माण कराया था। शताब्दियों तक
यहाँ की राजभाषा संस्कृत
रही, कालान्तर में नेपाली भाषा ने इसका स्थान ग्रहण किया।
नेपाली
भाषा के प्रथम और श्रेष्ठ कवि भानुभक्त ने रसधा नामक गाँव के उपाध्याय कुल में सन्
1814 में जन्म लिया था। भानुभक्त ने अध्यात्म रामायण से प्रेरणा लेकर उसकी कथा को संक्षिप्त
कर मौलिकता के साथ प्रस्तुत किया है।
भानुभक्त
की रामायण में लक्ष्मण 12 वर्ष तक निद्रा-आहार रहित व्रत का पालन करते हैं। उत्तरकाण्ड
में सीता परित्याग और रामादि का महाप्रस्थान दिखाया गया है।
कवि ने जनोपयोगी
भाषा का प्रयोग किया है। अध्यात्म रामायण में रावण कहता है कि- “सीता को मारकर मेरा
प्रातराश (कलेवा) बना दिया जाए।”
भानुभक्त
उसे इस प्रकार कहते हैं- “तकारी भुटुवा बनाउनु असल मीठा मसाला धरी।” संस्कृत काव्यों में कैकेयी वन गमन के
समय रामादि को वल्कल या बनवीर प्रदान करती है। भानुभक्त
इसे ‘बस्तर पुराना’ कहते हैं। भानु ने भावुकता का प्रदर्शन नहीं किया-न रस के क्षेत्र
में और न भक्ति के क्षेत्र में। उनकी भक्ति में विवेक और संयम है। हाँ, उन्होंने भी भक्ति को जन-आन्दोलनकारी
रूप में स्वीकार किया है। उनकी दृष्टि में जातिभ्रष्ट और अधम लोग भी राम का ध्यान करने
से तर जाते हैं।
असमीया रामायण
रक्तमयी
उपासना के देश असम में रामोपासना कुछ देर से आरम्भ हुई। कालिका पुराण में संकेत है
कि जब इस प्रदेश में वैष्णव भक्ति का प्रचार होगा, तभी यहाँ की उपासनाओं में शुद्धता
आएगी। असम में राम के नाम पर कोई सम्प्रदाय भले ही न चला हो तथापि यह प्रदेश रामकथा
से परिचित था। लिपिबद्ध होने के पूर्व यहाँ रामकथा लोकगीतों के रूप में प्रचारित थी।
असम में
सबसे पहले माधव कन्दली ने ‘रामायण’ लिखी। इनका जन्म 1400 ई० के आसपास नौगाँव अंचल में
हुआ था। उन्होंने किसी बराही राजा महामाणिक्य के अनुरोध पर रामायण लिखी थी।
कन्दली
की कथा वाल्मीकि रामायण के गौड़ीय पाठ का अनुसरण करती है। रामकथा के विकसित होने पर
अन्य रामायणों में केवट प्रसंग, ग्रामवधू-प्रसंग, लक्ष्मण-रेखा, छापासीता आदि का समावेश
किया गया था, असमीया रामायण में इनका निषेध है। यहाँ जयन्त काक मूलग्रन्थ के अनुसार
सीता के वक्ष पर ही प्रहार करता है। मूल का अनुसरण करते हुए बाली के द्वारा राम की भर्त्सना की गयी है।
गौड़ीय
संस्करण से प्रेरणा लेकर दिखाया गया है कि तारा राम को शाप देती है-तुमने मुझे पति
वियोग दिया है, तुम भी सीता के वियोग में तड़पोगे। सीता पाताल प्रवेश करेगी।
मन्थरा
को नवीन रूप में प्रस्तुत किया गया है, वह भरत की रखैल बनकर रहना चाहती है। मुहावरों,
लोकोक्तियों एवं विशेष उक्तियों के प्रयोग से कन्दली ने अपनी भाषा को सशक्त बनाया है।
मीठा
बोलने वाले प्रच्छन्न शत्रु को उन्होंने ‘पानीर कण्टक’- पानी का काँटा बताया है। आघात
के पश्चात् ही वह पहचान में आता है। ऐसी कई उक्तियाँ रामायण में उपलब्ध हैं।
कन्दली ने अपने राम को विनीत, वेदज्ञ, धनुर्धर,
क्षमाशील, गम्भीर, बुद्धिमान् और अत्यन्त सुन्दर दिखाया है। वे नवनीत कोमल और दूर्वादलश्याम
हैं। ऐसे राम के चरित के माध्यम से कन्दली ने असमीया-भाषी जनों के मध्य पारिवारिक और
सामाजिक आदर्शों की स्थापना की है।
बांग्ला रामायण
वैदिक वाङ्मय
में बंग आदि पूर्वांचलीय प्रदेशों को व्रात्य बताकर यहाँ के निवासियों की निन्दा की गयी है। शक्ति और कृष्ण की उपासना के इस क्षेत्र
में रामकथा भी चाव के साथ अपनायी गयी।
बांग्ला
- रामायण के लेखक पं० कृतिवास ओझा का जन्म 1450 ई० के आसपास फुलिया गाँव में बसन्त
पंचमी के दिन हुआ था। वे स्वाभिमानी ब्राह्मण थे। कथक लोग पैर में घुंघरू बाँधकर मंजीर
बजाते हुए इस रामायण का गान करते थे। उन्होंने
रामायण के प्रसंगों और भाषा में पर्याप्त परिवर्तन कर डाले। ईस्ट इंडिया कम्पनी के
कर्मचारियों को बांग्ला सिखाने के लिए श्रीरामपुर के मिशनरी प्रेस से बांग्ला-रामायण
का प्रथम संस्करण 1802-03 में प्रकाशित हुआ था। इसमें भी परिवर्तन कर पंडितों ने नये-नये
संस्करण निकाले।
रामायण
का वर्तमान रूप अपने में बंगाल की कई विशिष्टताओं का समावेश किये है। बांग्ला-रामायण
के पात्रों में भावुकता और सहृदयता है।
राम ब्रह्म हैं,
किन्तु साधारण मानव की तरह आचरण करते हैं। युद्ध क्षेत्र में वे राक्षसों की भक्ति
देखकर करुणा-विगलित होकर धनुष-बाण फेंक देते हैं। वैसे लक्ष्मण के शब्दों में वे कभी
गिड़गिड़ाते नहीं-
“रामेर मुखे नाहि कातर वाणी"
ओड़िया
रामायण
ओड़िसा की
चप्पे-चप्पे भूमि पर धर्म-साधनाओं की छाप है। यह मन्दिरों का देश है। यहाँ के प्राचीन
मन्दिरों की भित्तियों पर रामकथा के कई दृश्य अंकित है।
यहाँ
की राणी गुफा के एक बड़े फलक पर मारीच वध का दृश्य है, यह ईसा के जन्म से पूर्व का है। ओडिया जनों की मान्यता
है कि वनवास के समय राम यहाँ आये थे। ओड़िया भाषा की रामायण बलरामदास ने 1510 ई० के
आसपास लिखी थी। अध्यात्म रामायण की भाँति यह रामायण शिव-पार्वती के संवाद के रूप में
प्रस्तुत है।
कथा का मुख्य आधार वाल्मीकि रामायण है, किन्तु अनेक
पुराण, काव्य.. नाटक और जनजीवन में व्याप्त रामकथाओं से प्रेरणा ली गयी है।
लेखक
ने नयी उद्भावना भी की है। मधुशय्या के दिन सीता राम से कुलदीपक को छूकर एक पत्नी व्रत
के पालन की शपथ लेती हैं। राम भी उनसे ऐसी ही शपथ लेते हैं।
राम शबरी
के द्वारा दिये हुए उन्हीं आम्रफलों को ग्रहण करते हैं जिन पर उसके दाँतों की छाप है।
लेखक ने अपनी कथा ओड़िसा के परिवेश में ढालकर प्रस्तुत की है।
रामायण
की स्त्रियाँ ओहिया नारी के समान हल्दी से मुँह धोती हैं। राम-सीता के विवाह के अवसर
पर सहभोज की प्रथा दिखायी गयी है, जिसमें सीता रत्न-चूड़ी में राम का प्रतिबिम्ब देखकर
हक्की-बक्की रह जाती हैं।
तुलसीदास
ने भी इस प्रकार का वर्णन किया है। राम की सेना में कोणार्क के बन्दर दिखाये गये हैं।
गुहा की सेना में शबर
और कन्ध जातियों के सैनिक हैं, ये जनजातियाँ ओड़िसा की हैं।
भगवान जगन्नाथ की छाप इस रूप में है कि इन्द्र ने राम की सहायता के लिए युद्ध
क्षेत्र में जो रथ भेजा है उसका नाम नन्दीघोष रथ बताया गया है, यह नाम भगवान जगन्नाथ के रथ का है। ओड़िया लोग भागन राम और भगवान
जगन्नाथ को एक मानते हैं।
बलरामदास
ने अपने काल के राजाओं की किलेबन्दी और सैन्य व्यवस्था का अच्छा परिचय दिया है।
मराठी रामायण
महाराष्ट्र
में वैदिक रामकाव्य-परम्परा और जैन लेखकों की रामकथा का प्रचार
पढ़े-लिखे लोगों में तो था ही, कथावाचक
लोग जनसाधारण में भी इसका
प्रचार करते थे।
सत्रहवीं
शती में रामदास ने रामभक्ति-सम्प्रदाय का गठन कर धनुर्धर राम की उपासना का प्रचार किया।
उन्होंने राम और हनुमान् के अनेक मन्दिर बनवाये।
महाराष्ट्र
के नासिक स्थान पर पंचवटी बतायी गयी है। माना जाता है कि यहाँ राम-सीता कई दिनों तक
रहे थे।
मराठी
की प्रतिनिधि रामायण ‘भावार्थ रामायण’ की रचना एकनाथ (1533-1599) ने की। इनके ग्रन्थ के सात काण्ड में 37500 ओवी
छन्द है। युद्धकाण्ड
का कुछ भाग लिखने के बाद दिवंगत हुए। शेष कथा इनके शिष्य गाववा ने पूर्ण की।
वाल्मीकि की कथा को अध्यात्म रामायण के रंग में रंगकर इन्होंने प्रस्तुत
किया है, कई अन्य पुराण, काव्य, नाटक आदि से भी प्रेरणा ली है।
गुजराती रामायण
गुजरात
में बहुत पहले से लोकजीवन पर रामकथा का प्रभाव था, किन्तु रामकाव्य लिखने की परम्परा
कृष्ण काव्य-परम्परा से कुछ बाद की है। सम्भवतः इस प्रवृत्ति के कारण आरम्भ में राम
के सम्पूर्ण चरित्र को न लेकर किसी खण्डकथा अथवा घटना को लेकर काव्य लिखे गये। इनमें
रास शैली की गेयता है।
15 वीं शती से जैन
कवियों की रचनाएँ मिलनी आरम्भ हो जाती हैं। इसके बाद
तो राम काव्य की पूरी परम्परा ही चल पड़ी।
इसके पश्चात् गुजराती की प्रतिनिधि रामायण 'गिरधर-रामायण' (1835 ई०) की रचना की गई । उनका जीवनकाल है-1787-1852
। ये वल्लभ सम्प्रदाय के अन्तर्गत आते हैं। ‘गिरधर
– रामायण’ की कुछ उल्लेखनीय घटनाएँ
इस प्रकार हैं -रावण
द्वारा कौसल्या का हरण, चरु-प्रसंग में कैकेयी का कलह, हनुमान् का रामभ्राता होना,
राम की तीर्थयात्रा, ऐसा ‘आनन्द रामायण’ में भी है।
राम के
अभिषेक में विघ्न सरस्वती नहीं कल्कि के द्वारा डाला जाता है। मन्थरा राम के विवाद
का कारण भी बताया गया। वह झाड़ू लगाकर धूल उड़ा रही थी। राम उसे रण्डा कहकर कर डांट देते हैं।
गुहयक राम के पैर
धोकर कन्धे पर बिठाकर नाव पर चढ़ाता है, लक्ष्मण शूर्पणखा पुत्र शम्बर का वध करते हैं।
सुलोचना सती प्रसंग भी है।
पंजाबी रामायण
उच्च आदशों
के कारण रामकथा और रामभक्ति अपनायी जाने लगी। कई कवियों ने रामकाव्य लिखे, इनमें गुरु
गोविन्द सिंह का काव्य ‘रामावतार' भी है, यह व्रज भाषा में रचित है। ये ग्रन्थ वाल्मीकि
और तुलसीदास से प्रभावित हैं।
रामलुभाया अणद दिलशाद ने पश्चिमी पंजाब में 1868
में जन्म लिया। ये क्षत्रिय थे। इनकी प्रमुख कृति है—'पंजाबी- रामायण', जिसे फारसी
लिपि में 1840-46 के बीच लिखा गया था। कवि के पुत्र विश्वबन्धु ने इसे नागरी लिपि में
प्रकाशित किया था।
कथा का
मुख्य आधार 'वाल्मीकि रामायण' है। अप्रासंगिक कथा का बहिष्कार कर संक्षेपण की शैली
अपनायी गयी है। कहीं-कहीं 'मानस' का प्रभाव भी लक्षित होता है।
इसमें दिखाया गया है कि राम ताड़का का वध करने में हिचकिचाते हैं। अहल्या-आख्यान में अमर्यादा नहीं है।
रावण स्वयंवर के पहले ही धनुष उठाने की परीक्षा करता है और असफल होकर लौट जाता है।
पंजाबी-रामायण के
राम ब्रह्म तो हैं, किन्तु साथ ही वे सहृदय मानव भी हैं।उनके चरित्र में शौर्य और करुणा
का समावेश है ये पारिवारिक जीवन के आदर्श हैं।
तेलुगु रामायण
गोन बुद्धा
रेझे ने 13 वीं शती में ‘तेलुगु रामायण’ की रचना दोहा जैसे द्विपद छन्द में की थी।
अन्य दक्षिण भारतीय रामायणों की भीति इसमें केवल छह काण्ड हैं। ‘वाल्मीकि रामायण’ को कथा का मुख्य आधार बनाकर ‘अध्यात्म रामायण’ और
‘आनन्द-रामायण’ से भी प्रेरणा ली गयी है।
इस रामायण में एक
राष्ट्रीय दृष्टिकोण भी है। कहा गया है कि जो व्यक्ति उत्तर भारत से गंगाजल लाकर रामेश्वरम्
पर चढ़ाएगा, वह पुण्य का भागी होगा। उत्तर और दक्षिण को जोड़ने का ऐसा प्रयास तुलसी
ने भी इसी स्थल पर किया है।
18वीं
शती में हरियाणा के अहमद बख्श ने सांग-शैली में लिखी अपनी रामायण में ऐसा वर्णन किया
है।
तेलुगु रामायण का एक मार्मिक प्रसंग है-सती सुलोचना
की कथा। वह युद्धभूमि में थोड़ी देर के लिए मेघनाद को सतीत्व के बल पर जिला लेती है,
बाद में सती हो जाती है। आनन्द रामायण में इस आख्यान का विस्तार है।
बांग्ला
भाषा के माइकेल मधुसूदन दत्त ने ‘मेघनाद वध’ काव्य में इस पात्र का नाम प्रमीला दिया
है और मानवीय धरातल पर उसका मार्मिक चित्रण किया है।
तमिल कम्ब रामायण
महाकवि
कम्बन् के पूर्व तमिलनाडु में रामकथा छिटपुट रूप में उपलब्ध थी। रामकाव्य लिखने का
प्रथम व्यवस्थित प्रयास महाकवि कम्बन् ने ही किया। इनका जन्म तंजावूर जिले के अन्तर्गत
स्थित किसी गाँव में हुआ था।
कई तमिल विद्वान् उन्हें नवीं शती का बताते हैं, किन्तु प्रो० मीनाक्षि सुन्दरम् और
डॉ० रामेश्वर दयालु अग्रवाल आदि विद्वान उन्हें 12 वीं शती का मानते हैं।
‘कम्ब-रामायण’
10,500 पदों का एक विशाल काव्य है। मुख्य कथा वाल्मीकि रामायण से ली गयी है, किन्तु
अध्यात्म रामायण, रघुवंश, जानकी-हरण, किरातार्जुनीय तथा कई तमिल काव्यों का भी प्रभाव
है।
मलयालम रामायण
मलयालम
का प्रसिद्ध रामकाव्य ‘अध्यात्म रामायण’ है, जिसके लेखक महाकवि तुंचतु रामानुजन एपुत्तच्छन
ने 18 वीं शती में शूद्र जाति में जन्म लिया था।
पण्डितों
के युग में एक शूद्र द्वारा रामकाव्य लिखा जाना एक क्रान्ति थी। कवि ने संस्कृत के
स्थान पर मलयालम भाषा तथा केरलीय छन्दों का प्रयोग किया। पहले मलयालम पर तमिल का प्रभाव
था, एपुत्तच्छन ने इस प्रभाव से भाषा को मुक्त कर मणिप्रवाल- शैली में रामायण लिखी।
मलयालम
- रामायण संस्कृत की अध्यात्म रामायण का स्वतंत्र अनुवाद है। कथा को शिव-पार्वती के
संवाद के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
कवि ने
केरल की एक. प्राचीन कथा शैली किलिप्पाटु अपनायी है। इसमें कवि शुकी की प्रशंसा कर
उससे अनुरोध करता है कि वह अमुक कथा प्रसंग सुनाए। ऐसा प्रत्येक काण्ड के आरम्भ में
है।
निष्कर्ष
‘रामचरितमानस’ महाकवि तुलसीदास की कालजयी कृति है। ‘रामचरितमानस’ अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा 16 वीं सदी में रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ
है। इस ग्रन्थ को अवधी साहित्य (हिंदी साहित्य) की एक महान कृति माना जाता है। इसे सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसीकृत
रामायण' भी कहा जाता है। ‘रामचरितमानस’ भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। रामचरितमानस की
लोकप्रियता अद्वितीय है।
उत्तर भारत में 'रामायण' के रूप में बहुत से लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। शरद नवरात्रि में इसके सुन्दर काण्ड का पाठ पूरे नौ दिन किया जाता है। रामायण
मण्डलों द्वारा मंगलवार और शनिवार को इसके सुन्दरकाण्ड का पाठ किया जाता है।
‘रामचरितमानस’ के नायक राम हैं जिनको एक मर्यादा पुरूषोत्तम के रूप में दर्शाया गया है
जोकि अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी हरि नारायण भगवान के अवतार हैं । जबकि महर्षि वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ में राम को एक आदर्श चरित्र मानव के रूप में दिखाया गया है। जो सम्पूर्ण
मानव समाज को यह सिखाता है कि जीवन को किस प्रकार जिया जाय भले ही उसमें कितने भी
विघ्न हों।
तुलसी के राम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। गोस्वामी
जी ने रामचरित का अनुपम शैली में दोहों, चौपाइयों, सोरठों तथा छंद का आश्रय लेकर वर्णन किया है।
तुलसीदास
का ‘रामचरितमानस’ और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का उदात्त चरित्र
इतना अधिक रमणीय है कि लगभग सभी भारतीय भाषाओं में कवियों और लेखकों ने उनका
उन्मुक्त कंठ से गायन और वर्णन किया है।
इसके
साथ ही उन्होंने भगवान राम के आदर्श चरित्र पर आधारित ‘रामायण,
अपनी-अपनी मातृभाषाओं में लिखा है, जो
सदियों से भारतीय जनता के कंठ में अविरल अमृत की धारा के समान प्रवाहमान है ।
प्रमुख
भारतीय भाषाओं में रचित रामायण अत्यंत उल्लेखनीय हैं, जैसे कि मलयालम का प्रसिद्ध
रामकाव्य ‘अध्यात्म रामायण’, बांग्ला भाषा
में रचित ‘कृत्तिवास
रामायण’,
तमिल भाषा में रचित ‘कंब
रामायण’, मराठी
भाषा में त्र्यंबक गणेश बापट द्वारा रचित ‘श्री रामायण कथा’, इसके अतिरिक्त असमिया, पंजाबी,
ओडिया आदि अन्य भाषों में रामायण की कथा का अत्यंत सरस वर्णन किया गया है ।
आधुनिक काल में सूर्यकांत
त्रिपाठी ‘निराला’ की ‘राम की शक्ति पूजा’ अत्यंत महत्वपूर्ण कृति है, जो बांग्ला भाषा में रचित ‘कृत्तिवास रामायण’ पर आधारित है । इसी प्रकार कवि नरेश मेहता द्वारा रचित ‘संशय की एक रात’ भी अत्यंत महत्वपूर्ण कृति है । उक्त
दोनों रचनाएँ रामकथा पर आधारित आधुनिक काल की अत्यंत महत्वपूर्ण उपलब्धियां हैं ।
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