अनुसंधान के प्रकार | Anusandhan ke Prakar
अनुसंधान का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है । साहित्य का अनुसंधान सामाजिक और वैज्ञानिक अनुसंधान से अलग ही होता है, क्योंकि उसके रचनात्मक परिवेश में केवल बिम्बात्मक भाषा का प्रयोग ही नहीं सृजनात्मक संवेदना की भी अभिव्यक्ति होती है । अतः अनुसंधान के विभिन्न आयामों से जुड़कर इसकी अनेक प्रणालियों का विकास होता है । इस आधार पर ही अनुसंधान के विभिन्न प्रकारों का विवेचन किया जाता है ।
1. वस्तु तथ्यात्मक अनुसंधान
किसी
भी रचना विशेषकर गद्य रचना में, जिसका संबंध कथा साहित्य, नाटक महाकाव्य से है, वस्तु तत्व की प्रमुखता होती
है । जब कोई शोध-ग्रंथ वस्तु तथ्य को केंद्र में रखकर लिखा जाता है तो उसके लिए एक
विशेष प्रणाली का प्रयोग करना पड़ता है ।
कृपया इसे भी ज़रूर देखें : अनुसंधान के प्रकार | Anusandhan ke Prakar
वस्तु का आकलन विभिन्न स्त्रोतों से होता
है और वह अनुसंधान का आंतरिक भाग भी है । तथ्यों को एकत्रित करना आवश्यक है और
उसकी विश्वसनीयता भी निर्धारित की जाती है । समग्र रूप से वस्तु तथ्यात्मक
अनुसंधान शोध का एक विशेष प्रकार है जिससे विभिन्न कृतियों जैसे ‘रामचरितमानस’, ‘साकेत’, ‘कामायनी’, ‘उर्वशी’, ‘संशय की एक रात’ इन सभी का वस्तु तथ्यात्मक अनुसंधान किया जा सकता है ।
2. भावानुसंधान
साहित्य
सृजन का मूल आधार अनुभूति है जिसका संबंध भाव से होता है । जब किसी विषय के भाव का
विश्लेषण करना हो, तब उस कृति में जो भाव व्यक्त हुआ है
उसके शास्त्रीय और आधुनिक पक्ष को सामने रखना आवश्यक है ।
साधारणीकरण और भावांतरण के
अंतर्गत कविता का विवेचन करना इस बात की अपेक्षा करता है कि अनुसंधान को
अनुभूति के आयामों और भाव के शास्त्रीय पक्ष का भी पर्याप्त ज्ञान हो । भावानुसंधान
में भाव से संबंधित शास्त्रीय और आधुनिक दोनों ही प्रणालियों का प्रयोग किया जाता
है ।
3. विचारानुसंधान
इस प्रकार का अनुसंधान प्राचीन
काव्यशास्त्र में शास्त्रानुसंधान भी कहा जाता था । आधुनिक युग में साहित्य के
संदर्भ में अनेक विचारधाराएँ प्रचलित हैं । इन विचारधाराओं में एक ओर काव्य के
रचना तत्वों का अंकन किया गया है और दूसरी ओर समकालीन परिदृश्य भी उसका अंग बना है
, जैसे प्रतीकवाद, बिंबवाद,
अतियथार्थवाद जैसी विचारधाराएँ काव्यगत संरचना से जुड़ती हैं पर मानववाद, मार्क्सवाद या अस्तित्ववाद उसके परिवेश से जुड़े हैं ।
आधुनिक युग में
विचारधाराओं का व्यापक महत्व है । अनेक लेखक विचारधाराओ को लेकर साहित्य के संदर्भ
में कई कृतियों की रचना कर रहे हैं । जैसे डॉ. रमेश कुंतल मेघ की कृति ‘आधुनिकता बोध और आधुनिकीकरण’।
4. प्रवृत्तिमूलक अनुसंधान
साहित्य की अनेक प्रवृत्तियाँ होती
हैं । कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी तथा अन्य विधाओं में अनेक प्रकार की प्रवृत्तियाँ मिलती हैं ।
कविता में छायावाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद जैसे मुख्य
सिद्धान्त हैं ।
इसी प्रकार उपन्यास में आंचलिक, जासूसी, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक
और समसामयिक विषयों पर अनेक उपन्यास लिखे गए हैं । इस प्रकार प्रवृत्तिमूलक
अनुसंधान एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रकार है जिसमें एक लेखक की अनेक कृतियों की
प्रवृत्तियों और एक ही समय में अलग-अलग विचारधाराओं से उपजी प्रवृत्तियों का
विवेचन किया जा सकता है ।
5. कलानुसंधान
किसी भी साहित्यिक कृति में अनुभूति के समान ही अभिव्यंजना
का भी महत्व होता है । शैलीगत अध्ययन के अंतर्गत किसी साहित्यिक कृति की
अभिव्यंजना कला का विवेचन व उसकी परख करना कलानुसंधान है।
कलानुसंधान में शैलीगत
कला के किसी भी एक उपकरण का किसी काव्यकृति के आधार पर अथवा अनेक काव्यकृतियों के आधार
पर अध्ययन होता है ।
6. भाषानुसंधान
साहित्य की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा है । शब्द
को अत्यंत महत्व दिया गया है जो साहित्य रचना का मुख्य आधार है । भाषा साहित्य का
मुख्य तत्व होकर किसी भी रचना में अपनी प्रमुख भूमिका का निर्वाह करती
है ।
किसी
भी साहित्यिक कृति में प्रमुख भाषा का व्याकरणशास्त्र, भाषाशास्त्र अथवा अभिव्यंजना की दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है । भाषानुसंधान
स्वतंत्र रूप से हो सकता है अथवा किसी साहित्यिक कृति की भाषा का अध्ययन भी किया
जा सकता है ।
काव्यकृतियों की भाषा का तुलनात्मक अनुसंधान भी संभव है । इस प्रकार साहित्यिक
अनुसंधान में भाषानुसंधान का अत्यंत महत्व है ।
7. पाठानुसंधान
किसी भी काव्यकृति के संपादन का कार्य और पाठ का
निर्णय भी प्राचीन काव्य के संदर्भ में अत्यंत आवश्यक है । किसी भी काव्यकृति की, अनेक पांडुलिपियों के आधार पर किसी प्रामाणिक पाठ का निर्धारण पाठानुसंधान
के अंतर्गत आता है ।
संपादन कार्य में संपादक को विषय के साथ ही उस भाषा का ज्ञान
भी होना चाहिए, जिसके पाठ का वह अनुसंधान कर रहा है, तभी वह पाठ का प्रामाणिक रूप से निर्धारण कर सकता है । अतएव पाठानुसंधान में
वही कार्य आएगा जिसमें पाठ का प्रामाणिक रूप से निर्धारण किया जाए ।
हिंदी में
पाठानुसंधान का कार्य अधिक नहीं हुआ है । फिर भी जायसी के ‘पद्मावत’, तुलसी के ‘रामचरितमानस’, सूर
के’ सूरसागर’ तथा अन्य प्राचीन कवियों
की महत्वपूर्ण कृतियों के प्रामाणिक पाठ का निर्धारण पाठानुसंधान के अंतर्गत आता
है ।
8. शास्त्रपरक अनुसंधान
हिंदी में साहित्य की अनेक विधाओं
का अलग से अध्ययन भी किया गया है । कविता के साथ ही आधुनिक युग में गद्य की अनेक
विधाओं का विकास हुआ है ।
इस शास्त्रीय अध्ययन में रचनाओं को आधार नहीं बनाया जाता
बल्कि काव्य या गद्य
रूपों का ही विवेचन किया जाता है । इस प्रकार के समस्त अनुसंधान को शास्त्रपरक
साहित्यिक अन्वेषण के अंतर्गत रखा जाता है जैसे हिंदी काव्य में रूप विधाएँ या
हिंदी में गद्य रूपों का विकास ।
9. ऐतिहासिक अनुसंधान
साहित्य में बहुत सा अनुसंधान इस
प्रकार का हुआ है जिसमें इतिहास और पुराण के तथ्यों का अन्वेषण किया गया है । वैसे
तो प्रत्येक साहित्यिक कृति के अध्ययन में उसकी पूर्वपीठिका और समकालीन परिवेश, ऐतिहासिक अध्ययन के अंतर्गत ही आते हैं । फिर भी कुछ शोध-ग्रन्थों में
ऐतिहासिक तथ्यों का ही प्राधान्य है । ये सब ऐतिहासिक अनुसंधान के अंतर्गत ही आते
हैं ।
10. तुलनात्मक अनुसंधान
तुलनात्मक अनुसंधान के अनेक आयाम
होते हैं । तुलना दो साहित्यों या भाषाओं की हो सकती है । आधुनिक युग में इतना
विकास हो गया है कि अब तुलनात्मक अध्ययन अत्यंत प्रामाणिक और व्यापक विधा के रूप
में विकसित हो रहा है।
एक ही भाषा के एक युग के दो साहित्यकारों की कृतियों की
तुलना हिंदी में कई बार की गई है । दो काव्य प्रवृत्तियों की तुलना भी होती है । इसी प्रकार एक काव्य प्रवृत्ति के अंतर्गत दो
कवियों या साहित्यकारों की तुलना की जा सकती है, जैसे निराला
और पंत के काव्य की तुलना ।
निष्कर्ष
अनुसंधान के अनेक प्रकारों में यह विशेषता सर्वमान्य है कि अनुसंधान की सारी प्रक्रिया में एक ओर मौलिक तथ्यों का उद्घाटन होता है और दूसरी ओर ज्ञात तथ्यों की मौलिक और नवीन व्याख्या की जाती है । इसके आधार पर ही विविध प्रकार के अनुसंधान करना संभव होता है ।
विचार साहित्य का प्रमुख
क्षेत्र नहीं होता । संवेदना ही उसका आधार होती
है, किन्तु किसी भी कृति में कोई न कोई विचारधारा महत्वपूर्ण होकर आती है ।
इसी
प्रकार अब कलाओं का अंतरसंबंध आवश्यक हो गया है । काव्य,
संगीत और चित्र एक-दूसरे से निकट से जुड़े हैं । साहित्य के अनुसंधान में अनुसंधाता
को इन व्यापक सरोकारों से जुड़ना आवश्यक है, तभी उसकी
प्रामाणिकता और मौलिकता बची रह सकती है और किसी भी सृजन का वास्तविक स्वरूप सामने आ
सकता है । इस कारण अनुसंधान को एक रचनात्मक प्रयोगशाला भी कहा जाता है ।
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