'ध्रुवस्वामिनी' नाटक की तात्त्विक समीक्षा | Dhruwswamini Natak ki Tatvik Samiksha
'ध्रुवस्वामिनी' नाटक की तात्त्विक समीक्षा
Dhruwswamini Natak ki Tatvik Samiksha
बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न श्री जयशंकर प्रसाद हिंदी के
सर्वश्रेष्ठ नाटककार माने जाते हैं। ‘ध्रुवस्वामिनी’ (1933 ई.) उनकी बहुचर्चित नाट्यकृति है, जिसकी कथावस्तु
गुप्त वंश के यशस्वी सम्राट समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त (द्वितीय)
विक्रमादित्य के काल से सम्बन्धित है।
नाटक के तत्वों के आधार पर 'धुवस्वामिनी' की समीक्षा निम्नलिखित है :
1. कथावस्तु /कथानक
कथावस्तु किसी भी नाटक का मूल आधार होता है जिसके आधार पर संपूर्ण नाटक का खाका खींचा जाता है। “ध्रुवस्वामिनी: नाटक तीन अंकों में विभक्त है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर उसकी पत्नी से विवाह कर लिया था, परंतु इस नाटक में सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के द्वारा उठाए गए इस कदम के पीछे के कारणों की पड़ताल की गई है।
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2.पात्र और चरित्र-चित्रण
किसी भी नाट्यकृति की सफलता-असफलता में पात्र -योजना निर्णायक भूमिक निभाती है। पात्र ही कथावस्तु को गति प्रदान करते हैं। नाटक के प्रमुख पात्रों में चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त, शकराज व शिखरस्वामी को लिया गया है जबकि गौण पात्रों में मिहिरदेव, मंदाकिनी, कोमा आदि आते हैं।
3.कथोपकथन / संवाद योजना
संवादों की मधुरता, सजीवता तथा स्वाभाविकता पर ही नाटक के भले व बुरे होने का निर्णय होता है। 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक के संवादों की प्रथम विशेषता है उनका माधुर्य । ‘प्रसाद’ ने मधुर भाषा का प्रयोग किया है व सरल संस्कृत शब्दों को अपनाया है पड़ती है जो ऐसी जान पड़ती है कि किसी प्रांत की बोलचाल की भाषा ही हो-
ध्रुवस्वामिनी के संवाद बड़े सजीव और आकर्षक हैं। वस्तुतः इस नाटक की संवाद योजना सर्वत्र स्थिति के अनुकूल है। ‘प्रसाद’ ने बोलनेवाले पात्र के वैचारिक और मानसिक स्तर का भी ध्यान रखा है ।
4. भाषाशैली
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा विषयानुकूल है। इस नाटक की भाषा में प्रसाद ने इस बात का खास खयाल रखा है कि वह कवित्व एवं दार्शनिकता से बोझिल न होने पाए। प्रसाद ने तनावपूर्ण भाषा का सबसे अधिक व सरल प्रयोग ध्रुवस्वामिनी नाटक में किया है। जैसे-
“ध्रुवस्वामिनी→तुम लोग कौन हो?
ध्रुवस्वामिनी→और.. ?
ध्रुवस्वामिनी → इस घोर अपराध का तुम्हें दण्ड क्या मिला ?
5.रंगमंचीयता/अभिनेयता
किसी भी नाट्यकृति की सफलता के लिए परम आवश्यक है कि उसमें अभिनेयता का गुण हो। 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक अभिनेयता और रंगमंच की दृष्टि से एक प्रौढ़ कृति है। इस नाटक में रंगमंच के लिए आवश्यक सभी संकेतों का सृजन किया गया है है। दृश्य छोटे - छोटे हैं और मंचन में सरल हैं ।
6. देशकाल और वातावरण
ध्रुवस्वामिनी नाटक द्वारा तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। सम्राट समुद्रगुप्त के दिग्विजयों से गुप्तवंश का वैभव और कीर्ति चारों ओर फैल गई थी। समुद्रगुप्त के पश्चात रामगुप्त अपने अमात्य (मंत्री) शिरखरस्वामी के षड्यंत्र से गद्दी पर बैठा। यह बात नाटक में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है कि उस समय भी तत्कालीन राजघरानों में कुचक और षड्यंत्र की भावना मौजूद थी।
7.उद्देश्य
प्रसाद के सभी नाटक कोई-न-कोई उद्देश्य लेकर लिखे गए हैं। ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से ‘प्रसाद’ ने 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक में भी तत्कालीन नारी की समस्याओं को उठाया ने है। प्रसादकालीन नारी की दशा दयनीय थी, उसे अपमानित और पददलित किया जाता था।
निष्कर्ष
अतः संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि :
1. नाटक की कथावस्तु (plot) तीन अंकों में विभक्त है। कथावस्तु रोचक, संक्षिप्त और गतिशील है।
3. संवाद भी छोटे-छोटे हैं तथा दार्शनिकता से बोझिल नहीं हैं।
4. गीतों की संख्या भी सीमित हैं ।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि प्रसाद जी का ‘ध्रुवस्वामिनी’ लिखने का उद्देश्य महान था। अत: 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक के सभी तत्वों (कथानक, चरित्र चित्रण, भाषा-शैली, संवाद, देशकाल - वातावरण रंगमंचीयता एवं उद्देश्य) के आधार पर एक सफल नाटक है।
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