'ध्रुवस्वामिनी' नाटक की तात्त्विक समीक्षा | Dhruwswamini Natak ki Tatvik Samiksha

 
'ध्रुवस्वामिनी' नाटक की तात्त्विक समीक्षा 
Dhruwswamini Natak ki Tatvik Samiksha

'ध्रुवस्वामिनी' नाटक की तात्त्विक समीक्षा | Dhruwswamini Natak ki Tatvik Samiksha



         बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न श्री जयशंकर प्रसाद हिंदी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार माने जाते हैं। ‘ध्रुवस्वामिनी’ (1933 ई.) उनकी बहुचर्चित नाट्यकृति है, जिसकी कथावस्तु गुप्त वंश के यशस्वी सम्राट समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य के काल से सम्बन्धित है।



             नाटक की 'भूमिका' में प्रसादजी ने इसकी ऐतिहासिकता के प्रमाण दिए हैं। उनके अनुसार ‘विशाखदत्त' द्वारा रचित संस्कृत नाटक 'देवीचन्द्र गुप्त' में यह घटना अंकित है, जिसमें ध्रुवस्वामिनी का पुनर्विवाह चन्द्रगुप्त के साथ हुआ बताया गया है।

        'ध्रुवस्वामिनी' जयशंकर प्रसाद की अंतिम एवं अत्यन्त महत्वपूर्ण अंतिम नाट्यकृति है। यह नाटक उनकी नाट्यकला का नवीन उन्मेष है। प्रसाद आरंभ में ही हिंदी नाट्यकला को जो एक निश्चित रूप प्रदान करना चाहते थे, ध्रुवस्वामिनी में उसकी प्रतिच्छवि देखी जा सकती है। इस नाटक में नाट्यवस्तु और नाट्यशिल्प का सम्यक् विनियोजन एवं सामंजस्य लक्षित होता है।

    नाटक के तत्वों के आधार पर 'धुवस्वामिनी' की समीक्षा निम्नलिखित है : 


    1. कथावस्तु /कथानक 




            कथावस्तु किसी भी नाटक का मूल आधार होता है जिसके आधार पर संपूर्ण नाटक का खाका खींचा जाता है। “ध्रुवस्वामिनी: नाटक तीन अंकों में विभक्त है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर उसकी पत्नी से विवाह कर लिया था, परंतु इस नाटक में सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के द्वारा उठाए गए इस कदम के पीछे के कारणों की पड़ताल की गई है।

        
            ऐसा माना जाता है कि रामगुप्त अत्यंत कायर और विलासी प्रवृत्ति का था और सम्राट बनने के लिए सर्वथा अयोग्य था । इसलिए सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने छोटे पुत्र चंद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त् किया था। परन्तु रामगुप्त अपने अमात्य शिखरस्वामी के साथ मिलकर एक षड्यंत्र रचना है और चंद्रगुप्त की वागदत्ता (Fiancee मंगेतर) अथवा प्रेयसी ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर लेता है ।

            इस प्रकार ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथावस्तु अत्यंत रोचक, सरस व सुगठित है जो सहज व स्वाभाविक रूप में विकसित होती है। इसमें सर्वत्र रोचकता एवं जिज्ञासा बनी रहती है। गीतों के समावेश से कथावस्तु और अधिक मार्मिक, संवेदनशील व प्रभावशाली बन गई है।


    2.पात्र और चरित्र-चित्रण



        किसी भी नाट्यकृति की सफलता-असफलता में पात्र -योजना निर्णायक भूमिक निभाती है। पात्र ही कथावस्तु को गति प्रदान करते हैं। नाटक के प्रमुख पात्रों में चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त, शकराज व शिखरस्वामी को लिया गया है जबकि गौण पात्रों में मिहिरदेव, मंदाकिनी, कोमा आदि आते हैं।
    चंद्रगुप्त  'ध्रुवस्वामिनी' नाटक का नायक है। वह वीरता, पराक्रम तथा मानवीय गुणों से युक्त है। ‘ध्रुवस्वामिनी’ का पात्र कई मायनों में महत्वपूर्ण है। एक तरफ वह व्यक्तिगत कष्टों की अभिव्यक्ति करती है तो वहीं दूसरी ओर नारी पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाकर नाटक की मूल समस्यासों की ओर संकेत भी करती है। इस प्रकार पात्र- योजना के आधार पर 'ध्रुवस्वामिनी' एक सफल नाटक है।


    3.कथोपकथन / संवाद योजना



            संवादों की मधुरता, सजीवता तथा स्वाभाविकता पर ही नाटक के भले व बुरे होने का निर्णय होता है। 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक के संवादों की प्रथम विशेषता है उनका माधुर्य । ‘प्रसाद’ ने मधुर भाषा का प्रयोग किया है व सरल संस्कृत शब्दों को अपनाया है पड़ती है जो ऐसी जान पड़ती है कि किसी प्रांत की बोलचाल की भाषा ही हो-

    शकराज : क्या कहा ? मर्यादा ! भाग्य ने झुकने के लिए जिन्हें विवश कर दिया है, उन लोगों के मन में मर्यादा का ध्यान और भी अधिक रहता है-यह उनकी दयनीय दशा है।

            ध्रुवस्वामिनी के संवाद बड़े सजीव और आकर्षक हैं। वस्तुतः इस नाटक की संवाद योजना सर्वत्र स्थिति के अनुकूल है। ‘प्रसाद’ ने बोलनेवाले पात्र के वैचारिक और मानसिक स्तर का भी ध्यान रखा है ।


    4. भाषाशैली 



            ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा विषयानुकूल है। इस नाटक की भाषा में प्रसाद ने इस बात का खास खयाल रखा है कि वह कवित्व एवं दार्शनिकता से बोझिल न होने पाए। प्रसाद ने तनावपूर्ण भाषा का सबसे अधिक व सरल प्रयोग ध्रुवस्वामिनी नाटक में किया है। जैसे-

    “ध्रुवस्वामिनीतुम लोग कौन हो?
    कोमा मैं पराजित शक जाति की एक बालिका हूँ।
    ध्रुवस्वामिनीऔर.. ?
    कोमा और! मैंने प्रेम किया था।
    ध्रुवस्वामिनी इस घोर अपराध का तुम्हें दण्ड क्या मिला ?
    कोमा वही जो स्त्रियों को प्राय: मिला करता है - निराशा, उत्पीड़न और उपहास । रानी मैं तुमसे भीख माँगने आई हूँ।”

            ये उद्धरण इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि प्रसाद नाटकीय भाषा लिखने में सर्वथा सक्षम थे।


    5.रंगमंचीयता/अभिनेयता




            किसी भी नाट्यकृति की सफलता के लिए परम आवश्यक है कि उसमें अभिनेयता का गुण हो। 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक अभिनेयता और रंगमंच की दृष्टि से एक प्रौढ़ कृति है। इस नाटक में रंगमंच के लिए आवश्यक सभी संकेतों का सृजन किया गया है है। दृश्य छोटे - छोटे हैं और मंचन में सरल हैं ।
    लेखक ने रंग-सज्जा और क्रिया-व्यापार के आवश्यक संकेत भी 'ध्रुवस्वामिनी’  में यथा स्थान दिए हैं । इस प्रकार अभिनेयता की दृष्टि से 'ध्रुवस्वामिनी' एक सफल नाटक है।

     6. देशकाल और वातावरण 



            ध्रुवस्वामिनी नाटक द्वारा तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। सम्राट समुद्रगुप्त के दिग्विजयों से गुप्तवंश का वैभव और कीर्ति चारों ओर फैल गई थी। समुद्रगुप्त के पश्चात रामगुप्त अपने अमात्य (मंत्री) शिरखरस्वामी के षड्यंत्र से गद्दी पर बैठा। यह बात नाटक में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है कि उस समय भी तत्कालीन राजघरानों में कुचक और षड्यंत्र की भावना मौजूद थी।
     
    प्रसाद ने तत्कालीन वातावरण का इस नाटक में बड़ा सुंदर व सटीक वर्णन किया है। नैतिकता, संस्कृति, धार्मिकता, और सामाजिक दृष्टि से गुप्तकाल भारतीय इतिहास में स्वर्णयुग के रूप में मान्य रहा है, इसका भी सजीव वर्णन ‘प्रसाद’ जी ने इस नाटक में किया है ।


    7.उद्देश्य 



            प्रसाद के सभी नाटक कोई-न-कोई उद्देश्य लेकर लिखे गए हैं। ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से ‘प्रसाद’ ने 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक में भी तत्कालीन नारी की समस्याओं को उठाया ने है। प्रसादकालीन नारी की दशा दयनीय थी, उसे अपमानित और पददलित किया जाता था।
    प्रसाद का इस नाटक को लिखने का उद्देश्य आधुनिक नारी की समस्या को प्रस्तुत करते हुए जटिल समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना था। वे नारी को उनके आदर्श रूप में देखना चाहते हैं। प्रसाद जी कोमा द्वारा ध्रुवस्वामिनी को फटकार दिलवाते है:
     
    “रानी तुम भी स्त्री हो। क्या स्त्री की व्यथा न समझोगी? आज तुम्हारे विजय का अंधकार चाहे तुम्हारे शाश्वत स्त्रीत्व को ढँक ले, किंतु सबके जीवन में एक बार प्रेम की दीपावली जलती है।”


     
    निष्कर्ष



    अतः संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि :

     1. नाटक की कथावस्तु (plot) तीन अंकों में विभक्त है। कथावस्तु रोचक, संक्षिप्त और गतिशील है।

    2. अन्य नाटकों की तुलना में ध्रुवस्वामिनी नाटक की भाषा सरल,             प्रवाह पूर्ण है।

    3. संवाद भी छोटे-छोटे हैं तथा दार्शनिकता से बोझिल नहीं हैं।

    4. गीतों की संख्या भी सीमित हैं  । 

    5. नाटक में यथासम्भव अभिनेय दृश्य ही हैं। ऐसी घटनाओं का अभाव है जिन्हें रंगमंच पर प्रस्तुत नहीं किया जा सके।

    6. पात्र संख्या सीमित है, जो अभिनेय नाटक के लिए आवश्यक है।


        इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि प्रसाद जी का ‘ध्रुवस्वामिनी’ लिखने का उद्देश्य महान था। अत: 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक के सभी तत्वों (कथानक, चरित्र चित्रण, भाषा-शैली, संवाद, देशकाल - वातावरण रंगमंचीयता एवं उद्देश्य) के आधार पर एक सफल नाटक है।

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