लघु कथा क्या है ? Laghu Katha Kya Hai
‘लघु कथा’ शब्द सम्भवतः
अंग्रेजी के ‘शार्ट स्टोरी’ (Short Story) शब्द का अनुवाद है। वैसे ‘कहानी’ शब्द भी अंग्रेजी के ‘शार्ट
स्टोरी’ के लिये ही प्रयुक्त होता है। ‘लघु कथा’ और ‘कहानी’ में तात्विक दृष्टि से कोई अंतर होता भी नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि से ‘लघु कथा’ कहानी के छोटे रूप को अभिव्यक्त करती है।
हमारे यहाँ लघुकथाओं की परंपरा
बहुत पुरानी है। पुरानी लघु कथाएं वस्तुतः दृष्टांतों के रूप में विकसित हुई हैं।
ऐसे दृष्टांत मुख्यतया नैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में मिलते हैं। नैतिक
दृष्टांतों को प्रकट करने वाली नैतिक लघु कथाएं सर्वत्र मिलती हैं, जैसे ‘पंचतंत्र’
की कथाएं, ‘महाभारत’, ‘बाइबिल’,
‘जातक’ आदि की कथाएं। इसी प्रकार धार्मिक
दृष्टांतों के अंतर्गत भी लघु कथाओं के अनेक उदाहरण मिल सकते हैं।
आधुनिक कहानी के संदर्भ में ‘लघु कथा’ का
अपना स्वतंत्र महत्व एवं अस्तित्व है। प्रेमचंद व ‘प्रसाद’
से लेकर जैनेंद्र व ‘अज्ञेय’ तक इस धारा की एक समृद्ध परंपरा है।
प्रेमचंद ने अपनी कहानी-कला के
उत्कर्ष काल में लघु कथाओं के रूप में कहानियां लिखी हैं। ‘नशा’, ‘मनोवृत्ति’,
‘जादू’, ‘दो सखियां’ आदि
कहानियां इसी कोटि की हैं।
जयशंकर ‘प्रसाद’ इस
क्षेत्र में अद्वितीय हैं। ‘छाया’ और ‘प्रतिध्वनि’ संग्रह में ‘अघोरी
का मोह’, ‘गुदड़ी के लाल’, ‘करुणा की
विजय’, ‘प्रलय’, ‘प्रतिभा’, ‘दुखिया’ ‘कलावती की शिक्षा’ आदि
लघु कथाओं के सुंदर उदाहरण हैं। इन लघुकथाओं में गद्यगीत और रेखाचित्र के शिल्प का
आभास होता है।
जीवन की उत्तरोत्तर द्रुतगामिता
और संघर्ष के फलस्वरूप समयाभाव ने अभिव्यक्ति की संक्षिप्तता को अनिवार्य बना दिया
है और कहानी के क्षेत्र में लघु कथाओं को अत्यधिक महत्वपूर्ण बना दिया है।
रचना-दृष्टि से लघु कथा में
भावनाओं का उतना महत्व नहीं है, जितना किसी सत्य अथवा किसी विचार की प्रस्तुति का।
लघुकथाओं में जीवन के किसी गूढ़ अंतर्वर्ती सत्य, संदेश,
विचार या अनुभूति को छोटी-सी साधारण प्रतीत होने वाली कहानी के रूप
में प्रस्तुत करते हैं। इन कथाओं में कथा के ऊपरी आवरण के भीतर सत्य का बोध या
साक्षात्कार ही अंतर्निहित होता है।
हिंदी की लघुकथाओं में
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ कृत ‘आकाश
के तारे धरती के फूल’ (1952), रावी कृत ‘मेरे कथा-गुरु का कहना है’ (1958), जगदीशचंद्र माथुर
कृत ‘मौत की खोज’, ‘उड़ते पंख’
(1959), लक्ष्मीचंद्र जैन कृत ‘कागज की किश्तियां’
(1960) आदि उल्लेखनीय हैं। लघुकथाओं में प्रतीकात्मकता और रहस्यमयता
का पुट भी होता है और यथार्थबोध को भी व्यंग्य के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।
आज अन्य नवीन
गद्य-विधाओं-संस्मरण, रेखाचित्र, डायरी, रिपोर्ताज आदि की तुलना में लघुकथाएं कम लिखी जा रही हैं। फिर भी
रामनारायण उपाध्याय कृत ‘नाक का सवाल’ (1983) और हरिशंकर परसाई रचित लघुकथाओं के संग्रह ‘रचनावली’
(1985) के प्रकाशन से यह विधा समृद्ध हुई है।
रामनारायण उपाध्याय ने
व्यंग्यात्मक शैली में लघुकथा-चित्रों के माध्यम से सामाजिक-नैतिक अवमूल्यन का
पर्दाफाश किया है।
परसाई तो व्यंग्यात्मक लघुकथा लेखन में बेजोड़ हैं। वे जीवन के
किसी संदर्भ विशेष को लेकर व्यंग्य-कथा के माध्यम से समाज के यथार्थ का प्रामाणिक
चित्र अंकित कर देते हैं। परंपरागत लोक कथा-शैली में भी वे व्यंग्य- कथा लिखने में
माहिर हैं। अपनी व्यंग्यात्मक लघुकथाओं में उन्होंने कभी-कभी डायरी शैली का भी
प्रयोग किया है।
विष्णु प्रभाकर ने भी कुछ लघुकथाएं लिखी हैं। उनकी कथाएं नैतिक
भावबोध की कथाएं कही जा सकती हैं।
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