महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना | Mahadevi Verma ki Kavya Samvedana

महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना
 Mahadevi Verma ki Kavya Samvedana

महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना | Mahadevi Verma ki Kavya Samvedana


         महादेवी वर्मा छायावाद की एक प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं । छायावाद का युग उथल-पुथल का युग था । कवि अपने समय के वास्तविक यथार्थ से प्रभावित होकर अपनी रचनाओं में उसकी विशिष्ट प्रवृत्तियों को अभिव्यक्ति देता है और उसकी रचनाएँ ही उस युग विशेष की मूल प्रवृत्ति को रूपायित करती हैं ।  लेकिन महादेवी जी अपनी काव्य रचना में प्राय: अंतर्मुखी रही रही हैं।  अपनी व्यथा वेदना और रहस्य-भावना को ही इन्होंने मुखरित किया है।


        उनकी कविता का मुख्य स्वर आध्यात्मिकता ही अधिक दिखाई देता है।  हम यह कह सकते हैं कि महादेवी वर्मा का काव्य प्रासाद इन चार स्तंभों पर अवस्थित है- वेदनानुभूति, रहस्य-भावना, प्रणय-भाव और सौंदर्यानुभूति ।


महादेवी की काव्य संवेदना के मुख्य तत्व 


 
        छायावादी काव्य एक नई संवेदनशीलता का काव्य था । इस युग के कवि विशिष्ट अर्थ में संवेदनशील थे । महादेवी वर्मा के संदर्भ में उनका व्यक्तित्व अपनी इंद्रधनुषी आभा लिए उनके काव्य-लोक में उपस्थित होता है ।



         इस प्रसंग में उनका नारी होना उनके पक्ष में जाता है।  महादेवी की काव्य संवेदना की निर्मिति और विकास में उनके व्यक्तिगत एकाकीपन की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है,  जिसकी वेदना विभिन्न आयामों में उनके काव्य में प्रकट हुई है।  वेदना के विविध रूपों की उपस्थिति उनके काव्य जगत की विशिष्टता है।

         प्रणय एक जीवन-दृष्टि के रूप में महादेवी के रचना-लोक में विद्यमान रहा है । उनका प्रियतम से नाता अत्यंत गूढ़ अत्यंत अज्ञेय है।  इसे समझने के लिए कभी-कभी तो आत्मा-परमात्मा के संबंध का सहारा लेना पड़ता है।

 
         जीवन को विरह का जलजात मानने वाली महादेवी प्रणय के संयोग-पक्ष का भी चित्रण करती हैं।  प्रेम अपने समग्र रूप में महादेवी की कविता में प्रधानता से विद्यमान है।

        महादेवी ने अखिल ब्रह्मांड में सौंदर्य के दर्शन किए हैं और उसे अपने गीतों में प्रमुख स्थान दिया है।  स्थूल में सूक्ष्म के दर्शन उनकी सौंदर्य-दृष्टि की विशिष्टता है।  सौंदर्य की अभिव्यंजना उनके काव्य में विभिन्न रूपों में हुई है और आनंद की सृष्टि करने में वह सफल रहीं है। 

 
    व्यथा-वेदना से आनंद की ओर यह प्रस्थान उनकी काव्य-यात्रा का सार है। महादेवी की काव्य संवेदना के मुख्य तत्व निम्नलिखित हैं  :


महादेवी की कविता में वेदना भाव


 
         महादेवी वर्मा की कविता में दु:ख और करुणा का भाव प्रधान है।  वेदना के विभिन्न रूपों की उपस्थिति उनके काव्य की प्रमुख विशेषता है।  वह यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं करतीं कि वह नीर भरी दु:ख की बदली हैं ।


         महादेवी की वेदना के उद्गम के बारे में निश्चित तौर पर कुछ कहना संभव नहीं है।  उनके एक गीत की पंक्ति है- ‘शलभ मैं शापमय वर हूँ।  किसी का दीप निष्ठुर हूँ’


         उनके पूरे काव्य-पटल पर इस तरह के असंख्य बिम्ब बिखरे पड़े हैं, जिनसे  उनके अंतस में पलती अथाह पीड़ा का स्पष्ट संकेत मिलता है।  एक विचित्र-सा सूनापन, एक विलक्षण एकाकीपन बार-बार उनकी कविताओं में उमड़ता दिखाई देता है।


          महादेवी की वेदना अनुभूतिजन्य होने के कारण उनकी कविताओं में इसकी अभिव्यक्ति भी अत्यंत सहज ढंग से हुई है। उसमें कृत्रिमता  कहीं दिखाई नहीं पड़ती।

 
            किंतु, महादेवी की वेदना नितांत वैयक्तिक भी नहीं है।  स्वयं उन्होंने अपने जीवन में दु:ख और अभाव की बात से इंकार किया है।

 
        वस्तुतः उनके वेदना भाव का प्रासाद दो आधार- भूमियों पर टिका हुआ है – आध्यात्मिक भावभूमि तथा मानवतावादी भावभूमि । दोनों आधारभूमि परस्पर अन्योन्याश्रित हैं।

 
           बौद्ध धर्म के अध्ययन और उसके प्रति उनके रुझान ने भी महादेवी के वेदना-भाव के लिए आध्यात्मिक भावभूमि तैयार की। महादेवी ने दु:ख को आध्यात्मिक स्तर पर ही अपनाया।


            महादेवी के वेदना-भाव प्रासाद की दूसरी आधार-भूमि मानवतावादी भूमि है। सांध्यगीत और दीपशिखा में उनकी वेदना को मानवमात्र के प्रति करुणा के रूप में देखा जा सकता है।  इस दृष्टि से दीपशिखा महादेवी की अनुपम कृति है।


         
         महादेवी के काव्यलोक में वेदना की परिणति आनंद में होती है।  यहाँ तक कि मृत्यु को भी महादेवी वर्मा अंत अथवा दु:खद नहीं मानती। उनकी दृष्टि में तो – ‘अमरता है जीवन का ह्रास। मृत्यु जीवन का चरम विकास’ 

 
        महादेवी एक नई आशा, उमंग और आनंद की ही सृष्टि करना चाहती हैं। वह तो सब बुझे दीपक जला देना चाहती हैं।


 
        महादेवी वर्मा में वेदना का व्यक्तिगत रूप मिलता है तो  समष्टिगत रूप भी। उनके वेदना-भाव का महल आध्यात्मिक और मानवतावादी भावभूमियों पर खड़ा है।


     उनकी वेदना के बारे में कोई निश्चित एक राय नहीं है।  किंतु यह तो हम कह ही सकते हैं कि यह सहज है कि इसका वर्णन कवयित्री ने स्वयं किया और अपनी कविता में उसे प्रमुख स्थान दिया।

 
        उनकी वेदना प्राणिमात्र के प्रति करुणा का रूप धारण करती है और वह अपने काव्य में समस्त मानव समाज, इसके वंचित-शोषित वर्ग की पक्षधरता करती हैं।
 
     उनके काव्य लोक में वेदना की परिणति आनंद में होती है और वह अपनी कविताओं के माध्यम से दु:खीजनों में नई आशा, उमंग और आनंद का संचार करती है।

 
  महादेवी की कविता में रहस्य-भावना


 
        महादेवी वर्मा और रहस्य-भावना एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं। महादेवी वर्मा की रहस्य-भावना की विवेचना करने से पहले हमें रहस्यवाद का पारंपरिक अर्थ समझना होगा।


    आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार -  “चिंतन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है,  भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है।”


     जयशंकर प्रसाद के अनुसार – “काव्य में आत्मा की मूल अनुभूति की मुख्यधारा रहस्यवाद है।”


        इस आलोक में हम महादेवी वर्मा की कविता में रहस्यानुभूति की उपस्थिति का आकलन करें तो भी यही प्रमाणित होता है कि वह सर्वत्र और प्रत्येक उपादान तथा प्रकृति -व्यापार में एक विराट सत्ता के दर्शन करती हैं।

 
    वह स्वयं को प्रकृति (का ही कोई अंग) मानकर उस दिव्य-सत्ता से मिलन को तत्पर रहती हैं। कवयित्री अपने परमप्रिय से मिलने की इच्छा व्यक्त करती हैं-

 
जो तुम आ जाते एक बार।
कितनी करुणा कितने संदेश।
पथ में बिछ जाते बन पराग।
गाता प्राणों का तार-तार।
अनुराग भरा उन्माद राग।
आंसू लेते वे पद पखार।


         महादेवी वर्मा में रहस्यानुभूति के विविध रूपों के दर्शन होते हैं।  मिलन की इच्छा, स्मरण, स्वप्न और साक्षात मिलन के बाद विरह का अनिवार्य चरण भी आता है ।


        महादेवी की कविता में विरह के उदाहरणों की तो कोई कमी नहीं, बल्कि उनका समूचा काव्य ही विरह के रंग में रंगा हुआ है।  उनके लिए तो संपूर्ण जीवन ही विरह का जलजात है।  किन्तु, वह अपनी लघुता को भी स्वीकार करती हैं- ‘क्षुद्र हैं मेरे बुद-बुद प्राण।  तुम्हीं में सृष्टि तुम्हीं में नाश’

 
           महादेवी के काव्य में रहस्यानुभूति के सभी चरण देखने को मिलते हैं।  वह सर्वत्र एक विराट-सत्ता के अस्तित्व का अभिज्ञान करती हैं । वह उससे मिलने की इच्छा रखती हैं, उसके प्रति समर्पण भाव दर्शाती हैं, उसके साथ तादात्म्य को तत्पर रहती हैं।


 
          वह परम-सत्ता उन्हें अपनी विराट उपस्थिति से चकित करती है और उनमें कौतुहल और जिज्ञासा भी पैदा करती है।  प्रकृति के विविध उपकरणों में वह उस अलौकिक प्रिय के अपार, अमिट सौंदर्य की कल्पना करती हैं।


         वह उसके साथ एकाकार भी होना चाहती हैं,  और नारी सुलभ लज्जा और संकोच उनका साथ भी नहीं छोड़ते। वह विरह के ताप को भी झेलती हैं।
 उनकी रहस्यानुभूति उन्हें मानव समाज के उपेक्षित-शोषित वर्ग के कल्याण के प्रति भी सजग करती है। उनमें छायावादी युग की मुक्ति की कामना और मुक्ति-संघर्ष का तीव्र रूप भी मिलता है।


       
         आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में कहें तो  - “छायावादी कहे जाने वाले कवियों में केवल महादेवी जी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं।”


 
महादेवी की कविता में प्रणय की अनुभूति

 
         महादेवी वर्मा के काव्य में प्रेम एक मूल भाव के रूप में प्रकट हुआ है।  उनका प्रेम अशरीरी है।  यह करुणा से आप्लावित प्रेम है। 
अलौकिक दिव्य सत्ता के प्रति उनकी प्रणयानुभूति में दांपत्य प्रेम की झलक भी मिलती है और अलौकिक स्पर्श का आभास भी। 

 
        महादेवी की कविता में व्यक्त प्रेम इसलिए भी विशिष्ट है, क्योंकि यह एक स्त्री की लेखनी से किया गया स्त्री मनोभावों का चित्रण है।

 
        महादेवी ने प्रकृति के उपकरणों में जिस सौंदर्य के दर्शन किए, उसी से उनकी प्रणयानुभूति का उद्भव हुआ और इसी विराट सौंदर्य के प्रति वह अपने प्रणयोद्गार व्यक्त करती रहीं।


    उनमें अपने अलौकिक प्रिय से मिलने की अति तीव्र इच्छा है।  वह कहती हैं –

 
जो तुम आ जाते एक बार।
कितनी करुणा कितने संदेश।
पथ में बिछ जाते बन पराग।
गाता प्राणों का तार-तार।
अनुराग भरा उन्माद राग।
आंसू लेते वे पद पखार।

 
            यथार्थ में मिलन न होने पर भी वह स्वप्न में अपनी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति कर लेती हैं। उन्होंने स्वप्न के माध्यम से अनेक गीतों में अपनी प्रणयानुभूति को व्यक्त किया है।  ऐसा ही एक उदाहरण है-  ‘पल भर का स्वप्न तुम्हारी।  युग -युग की पहचान बन गया।’

   
             प्रेम कितना भी गहन, तीव्र, प्रगाढ़ निश्छल और माधुर्यमूलक हो, विरह की अपरिहार्यता तो संभावित ही रहती है।  संपूर्ण जीवन को विरह का जलजात मान लेने वाली महादेवी ने निश्चय ही विरह की व्यथा को साक्षात भोगा होगा।


 
महादेवी की कविता में सौंदर्य चित्रण


 
            सौंदर्य की उद्भाविका महादेवी वर्मा सौंदर्य की अद्भुत चितेरी हैं। उन्होंने अखिल ब्रह्मांड में सौंदर्य के दर्शन किए हैं और इस अनुभूति से गुजरते हुए उन्होंने इसके विभिन्न रूपों का चित्रांकन अपनी लेखनी से किया है।

 
         महादेवी वर्मा ने सर्वत्र एक विराट सत्ता के दर्शन किए हैं।  इसी अरूप पुरुष का दिव्य-सौंदर्य उन्हें आकृष्ट करता है और वे उसी के चिर-सौंदर्य से प्रभावित होकर उसका गुणगान करती हैं। 

  
        यह सौंदर्य उन्हें प्रकृति के प्रत्येक उपकरण, प्रत्येक उपादान में दिखाई देता है। इसलिए प्रकृति की सुषमा का वर्णन उनके संदर्भ में एक परम प्रिय के सौंदर्य का वर्णन ही है। इसीलिए उनकी सौंदर्यानुभूति में रहस्यात्मकता की उपस्थिति दिखाई देती है।

 
        महादेवी ने अपनी व्यक्तिगत प्रणयानुभूति और वेदनानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए भी प्रकृति का सहारा लिया।  जो कुछ वह सीधे-सीधे प्रत्यक्ष रूप में नहीं कह सकती थीं,  प्रकृति का आवरण लेने पर वही सब कुछ अत्यंत सहज, सरल ढंग से कह जाती हैं।  उदाहरण

उड़-उड़कर जो धूल करेगी,  मेघों का नभ में अभिषेक।
अमिट रहेगी उसके अंचल,  में मेरी पीड़ा की रेख।


 निष्कर्ष

 
        अतः हम यह कह सकते हैं कि महादेवी वर्मा का काव्य प्रासाद चार स्तंभों पर - वेदनानुभूति, रहस्य-भावना, प्रणय-भाव और सौंदर्यानुभूति पर अवस्थित है।


 
         अलौकिक सत्ता के प्रति व्यक्त प्रणय भाव में जहाँ एक ओर वेदना का भाव निहित है वहीं दूसरी ओर रहस्य-भावना भी विद्यमान है ।


        उन्होंने अपने सम्पूर्ण काव्य में इन्हीं चार काव्य-संवेदनाओं का वर्णन किया है और उन्हें शिखर तक पहुंचाया भी है। उनके काव्य में उपस्थित विरह वेदना और भावनात्मक गहनता के चलते ही उन्हें ‘आधुनिक युग की मीरा’ कहा जाता है।

    
        महादेवी वर्मा की कविता मैं नीर भरी दु:ख की बदली की ये पंक्तियाँ यह बताने के लिए पर्याप्त हैं किउन्हें आधुनिक युग की मीरा क्यों कहा जाता है

 
मैं नीर भरी दु:ख की बदली,
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही,
उमड़ी कल थी, मिट आज चली।
 
 

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