हिंदी के लोकनाट्य | Hindi Ke Loknatya
लोकनाट्य वे नाट्य हैं जो आम जनता द्वारा किसी मिथक रचित एवं प्रदर्शित होते हैं। लोकनाट्यों के कथानक प्रायः लोक प्रचलित होते हैं, जिनमें पौराणिक और ऐतिहासिक और लोक-वार्तागत प्रसंगों का समावेश होता है । लौकिक एवं किवदंतियाँ और काल्पनिक प्रेमकथाएँ भी इन नाट्यों का विषय बनाई जाती हैं । इनका कथानक प्रायः ढीला-ढाला होता है और पूर्वार्द्ध में जिनती विलंबित गति से कथा बढ़ती है उत्तरार्द्ध में उतनी ही द्रुत गति से घटनाएँ आगे बढ़ती हैं ।
वे लोकनाट्य अधिक सफल होते हैं जिनमें घटनाओं के शिल्प विधान के स्थान पर जीवन की झांकियों की लड़ी होती है। जिनमें पौराणिक एवं धार्मिक कथाओं का पूर्व परिचित दर्शक होता है। लोक रंगमंच के दर्शक कथानक के चमत्कारपूर्ण अंश अथवा घटनाओं के कौतूहलपूर्ण उद्घाटन की आशा नहीं करते। वे प्रायः इससे पहले से ही परिचित रहते हैं ।
भारत बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक, बहुरंगी देश है। अनेक लोक कलाएँ, लोकनाट्य रूप (ज्ञात और अज्ञात) इसके विभिन्न प्रान्तों में बिखरे पड़े हैं। आश्चर्यजनक रूप से इतनी विविधता के बावजूद भारतीय लोकनाटकों में एक जबरदस्त एकरूपता दिखाई देती है।
यह
एकरूपता शिल्प के स्तर पर संगीत की प्रधानता, कथावस्तु अथवा सूत्रधार या विदूषक के रूप में दिखाई
देती है। लगभग सभी लोकनाटक किसी-न-किसी रूप में नाट्यशास्त्र में वर्णित विधि का
पालन करते हैं। सूत्रधार, नट-नटी, विदूषक इत्यादि नाट्यशास्त्र से ही इधर आये हैं। यही
वह धागे हैं, जिनसे बंधकर एक
भौगोलिक स्थितियों में ना होने के बावजूद भारत जैसे विशाल देश में जातीय संस्कृति
की एकता दिखायी देती है।
वैसे
संस्कृत नाटकों के बाद मध्यकाल के भक्ति आंदोलन ने लोक नाटकों के विकास में बड़ी
भूमिका निभाई ऐसा माना जा सकता है, क्योंकि दक्षिण से लेकर सुदूर पूर्व तक लोकनाटकों के
कथानकों का बड़ा आधार जनमानस में प्रचलित धार्मिक आख्यान ही रहे।
राम और कृष्ण की कथाएँ इन नाटकों में कथ्य का
काम करती रही थी और आज भी गतिमान अवस्था में है।
लोकनाटकों के मंच ने खुले में उपेक्षित
जनसमुदायों के बीच खड़े होकर अपना स्वरूप और पाठ रचा तथा संस्कृत ‘एलीट’ थियेटर को चुनौती
दी। साथ ही अपना एक व्यापक ‘स्पेस’ बनाया।
दरअसल, इसकी व्याप्ति का बड़ा कारण रहा कि यह संवादों और गीतों
(संगीतात्मकता) पर अधिक जोर देता है, जो जनता के हृदय में सदियों से उसके सुख-दुःख के साथी
रहे हैं।
सही मायनों में यह हमारे लोकसंस्कृति का अटूट
हिस्सा है। इसलिए लोकनाटकों को हमारी जातीय संस्कृति का प्रामाणिक दस्तावेज माना
जा सकता है, क्योंकि यह अपने
स्थानीय तत्वों के सहारे अपना स्वरूप निर्मित करती है ।
इसलिए भारतीय रंगमंच का इतिहास भी तब तक अधूरा
है, जब तक इसे लिखते
समय इन लोकनाटकों के इतिहास और भारतीय रंगमंच के विकास में इनकी भूमिका को
अनिवार्यतः महत्वपूर्ण नहीं माना जाता।
शायद यही वजह है कि सम्प्रेषण के जादुई और
नित नए उपकरणों के बीच भी लोक रंगमंच मजबूती से अपनी जमीन पर खड़ा है, उतनी ही प्रसिद्धि
से, उतनी ही व्याप्ति
से।
ऐसा
होना इसलिए भी लाजिमी है, क्योंकि इन नाटकों का मंच लोक का चित्त है, न कि कोरी
सैद्धांतिक किताबें । सच कहें तो, लोकनाट्य सामूहिक आवश्यकताओं एवं प्रेरणाओं से निर्मित
होने के कारण लोक के करीब है और हबीब तनवीर (लोकनाट्य रूप नाचा गम्मत शैली के प्रयोक्ता) जैसे
रंगकर्मियों ने तो इसे वैश्विक रंगमंच पर खड़ा कर विश्व को भारतीय रंगमंच का एक और
नायाब पक्ष दिखाया है।
लोक
नाटकों में गीत-संगीत-तत्व और नृत्य की प्रधानता होती हैं । अतः स्वाभाविक रूप से
संगीत और गीत लोकनाटकों का मजबूत पक्ष है। इनका आश्रय पाकर यह लोक परंपरा आज तक
निर्वाध रूप से गतिशील है।
हिंदी प्रदेश के
विविध लोकनाट्य रूप
बिदेसिया
बिदेसिया भोजपुर अंचल का लोकनाट्य है, जो है तो मूलतः एक लोकनाटक परन्तु इसकी कल्पनातीत प्रसिद्धि और जादुई प्रभाव ने इसे लोकनाट्य रूप का पर्याय सिद्ध कर दिया।
इसके
प्रणेता भिखारी ठाकुर थे और उस वक्त इस नाट्य रूप
को भिखारी ठाकुर के नाच के तौर पर प्रसिद्धि मिली हुई थी। दरअसल, भिखारी ठाकुर के भोजपुरी सांस्कृतिक जीवन में प्रवेश करने
से पूर्व इस क्षेत्र का रंगमंचीय स्वरूप क्या था, यह अपने-आप में शोध का विषय है।
‘नेटुआ का नाच’ और ‘जोगीरा’ के मूल में निश्चय ही कोई मूल आंचलिक परंपरा रही होगी। उसी
के बीज को ग्रहण कर, बंगाल की ‘जात्रा’ से प्रेरणा प्राप्त कर, भिखारी ठाकुर ने रंगमंच को पुनर्जीवित किया।
भिखारी
ठाकुर अपना पहला नाटक ‘बिदेसिया’ लेकर मंच पर उतरे तो लोगों को और कुछ न सूझा, उसे ‘बिदेसिया का नाच’ कहकर पुकारने लगे और वह लोगों को इतना भाया कि भिखारी ठाकुर
अपने मंच से कोई भी नाटक प्रस्तुत करें, वह ‘बिदेसिया का नाच’ ही कहा जाता।
एक लोकनाटक की इतनी व्याप्ति, प्रसिद्धि और उसके केंद्र में भिखारी ठाकुर का रंगकर्म, जो उनके किसी भी प्रदर्शन के लिए रूढ़ हो जाना, एक अभिनेता और उसके परफोर्मेंस की सफलता ही है।
बिदेसिया
बाद में अपने कथ्य और परिवेश की वजह से एक बड़े सांस्कृतिक-सामाजिक आंदोलन का रूप
ले बैठा। यह भोजपुर अंचल के प्रवासी गिरमिटियों (बंधुवा मजदूर) और पीछे रह गयी, उनकी प्रेषित पतिकाओं (पति के परदेश चले जाने पर दु:खी
स्त्री) की आँख का पानी है।
बिदेसिया
का मंच खुला होता है, कई बार इसे तीन तरफ से और पीठ की ओर
एक सफेद कनात तान कर खड़ा कर दिया जाता है, तो कभी चौतरफा खुला स्पेस भी इसके प्रदर्शनों में देखा गया
है।
इसमें
पात्रों की वेशभूषा और मंच की दुरुहता नहीं होती है।
संस्कृत की ही तरह पहले देवी स्तुति से शुरुआत होती है। फिर हार्मोनियम, झाल-खरताल, ढोलक और नगाड़े की
ध्वनियों के मध्य सूत्रधार, लबार या बातिक कथा-प्रसंग को आगे बढ़ाता है।
बिदेशिया के मंच पर ही सभी पात्र एक तरफ (कनात
अथवा पीठ की तरफ) संगीत गायक मंडली के साथ बैठे रहते हैं और उससे सुर मिलाते रहते
हैं। मंच की ही तरह इसका सांगीतिक पक्ष भी सहज होता है, इसमें गीतों के बीच ‘रामा हो रामा’ तथा ‘सांच बराबर तप नहीं’ की टेक लगती रहती है।
कथा के आगे बढ़ने के क्रम में उन्हीं में से
अभिनेता उठकर अपनी भूमिका में घुस जाते हैं और अपना ‘पाट’ (किरदार) खेलकर पुनः उसी स्थान पर बैठ जाते हैं। इस लोकनाट्य
रूप में इन्हें ‘समाजी’ कहा जाता है।
कई
विद्वानों ने इस नाट्य रूप को राजस्थान के ‘तख़्तातोड़ नाच’ के आधार पर ‘चौकीतोड़ नाच’ कहते हैं, पर इस तर्क को
पूरी तरह मानने का कोई वाजिब आधार नहीं दिखता।
बिदेसिया अगर मशहूर है, तो उसके रचयिता भिखारी ठाकुर के
नाच के नाम पर।
बिदेसिया इस मामले में अनूठा नाट्यरूप है कि इसने अपना रूप अपने एक नाटक के आधार
पर रचा और जिसे आज भी कई रंगकर्मी अलग फॉर्म मानने को तैयार नहीं, वह इसे नाट्य
कथानक के तौर पर ही देखते है।
मगर
बिदेसिया के अपने प्रदर्शन की लोकप्रियता ने इन रंगकर्मियों की आवाज को नक्कारखाने
में तूती की आवाज ही सिद्ध की है। भोजपुर अंचल का यह नाट्य रूप इस समाज का
सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक दस्तावेज ही है।
बिदापत नाच या कीर्तनिया
जगदीशचन्द्र माथुर ने बिदापत नाच को ‘उत्तर बिहार की अल्प परिचित प्रदर्शन विधा’ से अभिहित किया है।
बिहार के पूर्णिया जिले में ‘बिदापत नाच’ नाम से एक आंचलिक
नाटक की परंपरा है। इसमें मध्ययुगीन मिथिला के ‘कीर्तनियाँ नाटक’ तथा असम के ‘अंकिया नाट’ दोनों की झलक दिख पड़ती है।
मंडलियों में प्रायः किसान और मजदूर होते हैं - अधिकतर
समाज के निम्न वर्ग के अथवा निम्न मध्यम वर्ग के।
मंच
और अभिनय परम्परा में असमिया ‘अंकिया नाट’ का प्रभाव अधिक स्पष्ट है। जिस स्थान पर पात्र अपनी
सज्जा करते हैं, उसे यहाँ ‘साज-घर’ कहा जाता है। इसकी
तुलना असमिया नाटक के ‘छ्घर’ या ‘छद्मगृह’ से की जा सकती है।
इसमें भी मंच का विधान मुक्ताकाशी ही होता है।
अन्य लोक नाटकों की तरह भी इस नाट्य रूप की शक्ति इसका ‘संगीत’ पक्ष ही है।
मुख्य गायक ‘मूलगाईन’ कहलाता है और उसके साथियों को ‘समाजी’ कहा जाता है।
मूलगाईन असम नाट्य अंकिया के मूल गायक को भी कहते हैं, तो उधर समाजी विदेसिया में भी उपस्थित होते हैं।
गीतात्मक अभिव्यक्तियों से पात्रों का परिचय
करवाना और ‘बिकटा’ (विदूषक) इसकी कुछ अन्य
विशेषताएँ है।
बिदापत
मूलतः विद्यापति का अपभ्रंश शब्दरूप है। विद्यापति के गीत (प्रत्येक नाटक और
प्रस्तुति का भगवती वंदना से शुरू होना) का नाटकीय प्रयोग इस शीर्षक के पीछे रहा
होगा।
बिदापत नाच की शुरुआत ‘भगवती वंदना’ से या ‘विघ्नविनाशक गणपति
की वंदना’ से होती है।
इसके कथावस्तु का आधार लोक प्रचलित धार्मिक आख्यान ही हैं। उमापति उपाध्याय रचित ‘पारिजात हरण नाटक’ (1235 ई.) इसका प्रतिनिधि नाटक है।
डोमकच (स्त्री लोकनाट्य)
बिहार
प्रदेश की यह नाट्य शैली स्त्रियों के लोकनाट्य के नाम से भी जानी जाती है। इसे ‘घर की बंद
कोठरियों का रंगमंच’ भी कहते हैं।
इसमें कथावस्तु का कोई लिखित या प्रख्यात प्रमाण नहीं होता, न ही अभिनय, रंग-रूढ़ियों का
कोई लिखित व्याकरण। इसका आधार केवल कल्पित
बातें होती है।
मंच
के लिए भी डोमकच में कोई तामझाम नहीं होता, घरों के खुले बड़े आँगन अथवा खुले छत ही मुख्यतः मंच
के तौर पर प्रयुक्त होते हैं। गाँव में जिस घर से बारात दूसरे गाँव गई होती है उसी
घर की औरतें यह खेलती हैं।
वर की माँ और उसकी बुआ अथवा चाची अलग-अलग ‘दउरा’ (टोकरा, डाला) में बैठ
जाती हैं। घर की माँ के पैर का अंगूठा दउरे के बाहर एक सिन्दूर भरे ‘पैले' में रखा जाता है।
इस सिन्दूर को ‘लाग का सिन्दूर’ कहा जाता है, इस समय वर की माँ
को बड़ा संयत रहना पड़ता है, क्योंकि ऐसी मान्यता तथा विश्वास है कि जिस प्रकार की
हरकतें वह करेगी, वैसी ही हरकत करने
वाली बहु उसे प्राप्त होगी।
इसी विश्वास के कारण अन्य औरतें उसे हिदायत
भी देती जाती हैं- “दंतवा मति बिदोरही, दंत बिदोरनी अईतो है (दाँत मत बिदोरना, हँसना मत, वरना सदा दाँत बिदोरने
वाली, बात-बात पर हँसने
वाली आ जायेगी)”
जट-जटिन
यह मिथिला का लोककला एवं लोकनृत्य है । इसमें दो नाचने की
टोली होती है, जो नाच-गान करके, नोंक-झोंक करके, मान-मनौवल करके
सुखी दाम्पत्य जीवन की कामना करते हैं ।
इस लोकनाट्य रूप की विशेषता इसका स्त्रियों द्वारा खेला जाना ही है।
इसके पात्रों की भूमिका, गीत, नृत्य सभी कुछ स्त्रियों द्वारा संचालित होते हैं।
इसका दर्शक वर्ग भी स्त्रियाँ ही होती है। इस लिहाज से यह सम्पूर्ण रूप से पुरुषों
को अनुमति नहीं वाले नाटक के रूप में दिखता है।
इसके उत्पत्ति का सन्दर्भ स्पष्ट नहीं है, परन्तु इसके बारे
में एक अनुमान यह है कि गाँव से बारात के साथ जब सभी पुरुष चले जाते थे, तो रतजगा कर गाँव
और घर, संपत्ति की
पहरेदारी के लिए (मनोरंजन के बहाने) स्त्रियों का यह नाट्य पैदा हुआ।
इसे लोकगीत और आंचलिक नाट्य के बीच की अवस्था
का नमूना भी माना जाता है। इसमें स्त्रियाँ ही जाट (पुरुष) और जटिन की भूमिका करती
हैं। साथ ही, इसमें सास-ननद, ननदोई, ससुर, बालक आदि सभी नाते
भी दिखाए जाते हैं।
यह
सदियों से दमित
स्त्रीमन की दमित इच्छाओं की मुक्ति का रचनात्मक प्रयास है। इसमें दाम्पत्य जीवन का वह
मार्मिक पक्ष उभरता है, जो न पौराणिक कथाओं में है और न परंपरागत
प्रेमाख्यानों में।
इसके
प्रस्तावना गीतों में सावन में भाइयों को (नैहर, मायका, पीहर ले जाने
के लिए) बुलाने का मार्मिक गीतात्मक संवाद भी होता है। मंगनी प्रसंग, विवाह प्रसंग आदि
प्रमुख कथाएँ हैं, जो इसके प्लाट का
आधार है।
रामलीला
रामलीला की परंपरा के मूल में भक्ति आंदोलन की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही होगी, इसमें कोई शक नहीं। यद्यपि इस नाट्यरूप के संकेत हमें मध्यकाल से पहले से मिलते है।
भगवान
विष्णु के अवतार श्रीराम और बुराइयों के प्रतीक रावण की यह नाट्य कथा दशहरे के
अवसर पर खेली जाती है और विजयादशमी को बुराइयों पर अच्छाइयों की जीत के रूप में
देखा जाता है।
भारत के किसी भी लोकनाट्य से परे इसकी
प्रसिद्धि जावा, सुमात्रा, कम्बोडिया, मॉरिशस, फिजी, इंडोनेशिया आदि तक
है। यह पूरे भारत को एक डोर में पिरोने वाली बहुस्तरीय नाट्य विधा है और इसका
आयोजन एक धार्मिक अनुष्ठान के तौर पर होता है।
रामलीला का मंच आयताकार होता है। संगीत मंडली
एक कोने में साजो-सामान के साथ बैठती है और एक रामायण पाठी किसी-न-किसी रूप में
लगभग सभी रामलीलाओं में होता है।
अभिनेता पद्यात्मक संवाद बोलते है। इस नाट्यरूप में
मंचित दृश्यों व चरित्रों के साथ प्रेक्षकीय (दर्शकों की) भागीदारी इतनी तीव्र
होती है कि वनवास-प्रसंग, भरत -मिलाप, लक्ष्मण-मूर्च्छा जैसे दृश्यों पर वे स्वयं भाव-विह्वल
हो जाते हैं।
अर्थात् रामलीला का दर्शक, प्रदर्शन में
निरपेक्ष नहीं रहता, यह जन-भागीदारी का
मंच है। इसमें सम्प्रेषण अत्यंत प्रभावी
होता है, अभिनेता बेशक कमतर हो, इसका बड़ा कारण सर्वहारा जनता का अपने इस लोकनायक में
आस्था और विश्वास का होना ही हो सकता है।
रासलीला
रामलीला की ही तरह
‘रासलीला’ भी धार्मिक
लोकनाट्य रूप है। इसका संबंध भी विष्णु भगवान के ही अवतार श्रीकृष्ण और उनकी
लीलाओं से है। राधा और कृष्ण का प्रसंग समस्त पौराणिक कथाओं से अधिक रोचक होते हैं।
गुजरात में
स्त्रियां गरबा नाच राधा-कृष्ण के लिए ही नाचती हैं। दक्षिण में कथकली के नर्तक, मणिपुर में रास रचाने
वाले और उत्तर प्रदेश में कृष्णलीला करने वाले सभी कृष्ण भक्त हैं ।उत्तर प्रदेश
में हाथरस की कृष्णलीला सारे देश में प्रसिद्ध है।
भारतीय जनमानस
में राम का चरित्र लोकरक्षक का है, वहीं कृष्ण लोकरंजक छवि के हैं। वैसे रास के प्रथम
महत्त्वपूर्ण आयोजन का श्रेय वल्लभ संप्रदाय के आचार्य वल्लभाचार्य को दिया जाता
है।
रास का संबंध
नृत्य से जुड़ता है, इसलिए रासलीला का
आरम्भ नृत्य-रास से होता है। यद्यपि रास शब्द पर विद्वानों में पर्याप्त मत-वैभिन्य
है।
इसमें भी मंच
के एक तरफ गायन-वादन मण्डली का स्थान होता है। लीला शुरू होने से पहले मंडली का
प्रमुख गायक आकर श्रीकृष्ण और राधा का स्तुतिगान करता और इस पूरी प्रक्रिया में
उसके समूह के सभी साथी सुर मिलाते है।
रासलीलाओं का आयोजन अधिकांशतः देवस्थानों या
उनके खुले स्थलों पर किया जाता है। इसका मंच ऊंचे लकड़ी के तख्तों को बाँध कर
तैयार किया जाता है। पार्श्व में एक पर्दा टांग दिया जाता है और परदे के पीछे से
ही पात्रों का आगमन होता है। मुक्ताकाशी मंच के बीचों-बीच एक छोटा मंच राधा और
कृष्ण के लिए तैयार किया जाता है, जहाँ ये आकर बैठते हैं।
रासलीला में कृष्ण और राधा बने अभिनेता
सखियों और गोपियों के पूजन, आरती गायन के बाद एक गोपी के यह कहने पर कि ‘रास के समय हवे
गयो। अब आप पधारो।’ तब वे दोनों उठते
है और राम शुरू होता है। रासलीला का विदूषक ‘मनसुखा’ होता है।
नौटंकी
अन्य लोक नाटकों
की ही तरह नौटंकी के शुरुआत और नामकरण के संबंध में पर्याप्त मतभेद है। इसके संबंध
सिद्ध करने वाले इसे महाकवि कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्रम’ के ‘स्वांग नाट्य’ से जोड़ते है, तो कुछ लोग इसे सिद्ध कण्हपा के डोमिनी के साथ जोड़कर
देखते हैं। जयशंकर प्रसाद इसका संबंध नाटकी से जोड़ते हैं, तो ब्रजभूमि में इसे नखरीली युवती से जोड़ा जाता है।
लोकनाट्यों के अध्येता विद्वान शिवकुमार ‘मधुर’ इसे कुल डेढ़ सौ वर्षों
का बताते है। इस जनप्रिय नाट्य के बारे में उनका कहना है कि “जहाँ बृज क्षेत्र में ‘स्वांग’ और ‘भगत’ नामक लोकमंच लीला नाटकों से प्रभावित होकर भक्ति
भावों से ओत-प्रोत रहा, वहाँ पंजाब और हरियाणा में वाजिद अली शाह के ‘रहस’ और अमानत (लखनवी)
की ‘इन्दरसभा’ के रंग वाली
उर्दू काव्य शैली और तुर्राकलगी की गायन शैली में नौटंकी श्रृंगारपरक नाट्य
प्रस्तुति के रूप में सामने आयी। श्रृंगार
और मनोरंजन प्रधान लोकमंच की प्रकृति के अनुरूप शहजादी नौटंकी और फूलसिंह की
प्रणयकथा इतनी सार्थक सिद्ध हुई कि वह नाट्य प्रस्तुति उत्तर भारत की इस लोक नाट्य
शैली का पर्याय हो गयी।”
बहरहाल, इसके इतिहास को लेकर चाहे बहसें जो भी हो, पर नौटंकी अकेली
ऐसी विधा है, जिसकी लोकप्रियता
का अंदाजा मात्र इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके प्रभाव क्षेत्र में उत्तर
प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान
तक आते हैं।
माच या ख्याल
मालवा
क्षेत्र का लोकनाट्य ‘माच’ अधिकांश लोक
नाटकों की तरह ही एक गीति नाट्य है। इसके प्रभाव क्षेत्र के बारे में कहा जाता है ‘ईत चम्बल उत बेतवा, मालवी सीम सुजान। दक्षिण दिसी है नर्वदा, यह पूरी पहचान’
माच
का इतिहास भी अधिक पुराना नहीं है। माच के अध्येता इसका इतिहास महज दो-ढाई सौ
वर्षों का बताते हैं और श्री
बालमुकुंद गुरु को माच का आदिगुरु ठहराते हैं।
माच
गुरु स्वयं माच के खेलों की रचना और अभिनय किया करते थे। इस नाट्य को कहीं-कहीं
तुर्रा किलंगी ख्यालों की विशिष्ट शैली भी कहा जाता है। इस ख्याल का क्षेत्र
चितौड़, झालावाड़ और
मध्यभारत है।
डॉ. महेंद्र
भानावत माच
को राजस्थान और मालवा दोनों जगह का बताते हुए तर्क देते हैं – “राजस्थान और मालवा की लोक-संस्कृति में बहुत कुछ साम्य
है। राजस्थान के इन ख्यालों के पीछे यहाँ के कठपुतली ख्यालों की अति पुरानी
पारंपरिक पीठिका रही है। मालवा का माच इन्ही ख्यालों से प्रभावित है।”
डॉ.भानावत के ऐसा कहने के पीछे दोनों प्रान्तों
की प्रस्तुतियों की समानताएं हैं, राजस्थान की कठपुतली में जहाँ तीसमार खां होता है, वहीं माच में यही विदूषक शेरमार खां कहा जाता है और “माच प्रदर्शन के पूर्व जो खंभा स्थापित किया जाता है, वह तुर्राकलगी
ख्यालों की ही देन कही जा सकती है।”
इसके प्रदर्शन
में अब आधुनिक तकनीकों का प्रयोग इस लोकनाट्य शैली में भी देखने में आने लगी है।
माच के सभी कलाकारों का स्थान मंच ही होता है और ढोलक इस नाट्य का मुख्य वाद्य
यंत्र ।
माच के कलाकारों का अभिनय दोलक की थाप और गत
पर निर्भर करता है। माच का कथानक गीति-कथनों और संवादों के माध्यम से आगे बढ़ता है।
माच के कथानकों का दायरा भी धार्मिक, वीरतापरक, सामाजिक कथाओं के
आसपास घूमता है, जैसे कि राजा
भरथरी, नरसी मेहता, राजा हरिश्चंद्र, नल-दमयंती, ढोल-मारुणी, मैना सुन्दरी, निहालदे सुलतान
इत्यादि प्रमुख हैं।
नाचा
छत्तीसगढ़ के इस
लोकनाट्य के बारे में कहा गया है कि इसके नाट्य सौंदर्य में धान की लहलहाती फसल का
हरापन, मेहनतकश किसान और
मजदूर का सच्चा खरापन, श्रम से उपजे
संगीत के लहरियों में गाता, नाचता, झूमता उत्सवी मन का उल्लास समाहित है।
नाचा
लोकनाट्य में अन्तर्निहित ऊर्जा, शक्ति, ताजगी और ओजपूर्ण सांगीत छत्तीसगढ़ के पारंपरिक
दर्शक-श्रोताओं के मन-मस्तिष्क को उसी प्रकार प्रभावित करती है, जिस तरह अन्य
राज्यों में प्रचलित परंपरागत रूप से चले आ रहे लोकनाट्य अपने-अपने लोकजनों को
आकृष्ट ही नहीं करते, बल्कि उनमें रमने, आनंदित होने के
पूरे अवसर भी प्रदान करते हैं।
इस
नाट्य रूप को नाचा
गम्मत शैली (लोकप्रहसन) शैली भी कहा जाता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह नृत्य प्रधान
शैली है। नाचा यानी नृत्य का मंच ।
नाचा के कलाकार ‘ददरिया’ और ‘करमा’ गीतों के साथ सारंगी, मादर बजाकर नाचते हुए मड़ई मेले तथा अन्य धार्मिक उत्सवों
पर अपना नाच प्रस्तुत कर आजीविका कमाते हैं।
नाचा
का पाठ ठेठ ग्रामीण मुहावरों और प्रहसनों तथा अभिनेता की हरकतों के सहारे जनता के
मध्य पहुँचता है। यह लोकरंजन के साथ ही जनजागृति का भी मंच है।
नाचा
के अभिनेता पुरुष ही स्त्री और पुरुष दोनों की भूमिकाएं निभाते हैं, यद्यपि नए समय में
अब इस मंच पर स्त्रियों ने भी प्रवेश लिया है। अपनी प्रस्तुति के ढंग में यह बिहार
के भोजपुर अंचल के लुप्त होते जा रहे, ‘लौंडा नाच’ सरीखा दिखता है।
नाचा के सभी अभिनेताओं को नृत्य और गायन
अनिवार्यतः आना चाहिए होता है। आखिर रंगभाषा के निर्माणकर्ता और संप्रेषण के
माध्यम यही अभिनेता तो हैं, जो वेशभूषा, हाव-भाव, अभिनय, संगीत में कमाल की दक्षता हासिल किये होते हैं।
ये
कलाकार प्रस्तुति के किसी भी क्षण या मध्य में सवाल-जवाब, नृत्य-गीत या हँसी-ठट्ठा शुरू कर देते हैं। अभिनेता
नाचा का केंद्र है, वैसे ही जैसा अन्य
नाट्य रूपों में वह केंद्र में होता है।
सांग
हरियाणा का
लोकनाट्य ‘सांग’ नाटक के किसी
शास्त्रीय रूप और बंधन से पूरी तरह नहीं जुड़ता। श्री जगदीश चंद्र प्रभाकर सांग का प्राचीनतम नाम ‘संगीतक’ मानते हैं। उनका मानना है कि ‘संगीतक’ से ‘सांगीत’ और ‘सांगीत’ से ‘सांग’ शब्द विकसित हुआ।
जबकि
सुरेश अवस्थी ने नौटंकी, संगीत, भजन, निहालदे और स्वांग
को समानार्थी हुए स्वांग को इसका प्राचीनतम रूप माना है।
सांग की उत्पत्ति का सन्दर्भ चाहे जो हो, पर इतना तय है कि
यह हरियाणा के जनसमुदाय की सांस्कृतिक पहचान है। जैसे कि हर प्रदेश का लोकनाट्य
उसका सांस्कृतिक दस्तावेज होता है, वैसे ही सांग भी हरियाणा का सांस्कृतिक दस्तावेज है।
सांग खुले आसमान के नीचे, चौतरफा दर्शकों से
घिरा लोकरंजन और लोकरुचि का क्षेत्र है। इसके कलाकर अभिनय कुशल, संगीत विशेषज्ञ
तथा दर्शको को नृत्य-संगीत और भाव-सम्प्रेषण के साथ बाँधकर रखते हैं।
‘सांग’ में पंडित लखमीचंद की प्रसिद्धि बहुत है. इन्हें ‘सांग सम्राट’ की उपाधि से
अभिहित किया जाता है। पंडित लखमीचंद सांग में कई प्रमुख भूमिकाएं स्वयं निभाते थे।
‘हरिश्चंद्र सांग’ में उनका अभिनय
इतना अचूक होता था कि हजारों दर्शक सांग देखने के बाद आँसू लिए घर लौटते थे। यही
तो लोक कविता और लोक नाट्य की सबसे बड़ी खूबी है कि दर्शक पात्रों के साथ ही जीते
हैं।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः
हम कह सकते हैं कि -
* लोकनाट्यों की
रंगभाषा (रंगमंच की भाषा) के केंद्र में अभिनेता ही प्रधान है। यद्यपि रंगभाषा के
लिए एक जरूरी अवयव प्रकाश व्यवस्था भी है, परन्तु लोकनाटकों के मंच पर यह उस तरह से लागू नहीं
होता।
* लगभग सभी
लोकनाटकों में मुक्ताकाशी मंच पर कलाकार/अभिनेता, अपनी संगीत मण्डली और संस्कृत नाट्य परंपरा के
मंगलाचरण को अपने हिसाब से प्रयोग करता हुआ, संस्कृत के पीठमर्द या सहनायक अथवा विदूषक के साथ अपनी
आंगिक गतिविधियों, इम्प्रूवाईजेशन की
शक्ति, संगीत मण्डली के
सहयोग व दर्शकों के साहचर्य के साथ खेले जाने वाले नाट्यपाठ को इतना सजीव व
संप्रेषणीय बना देता है, जिसमें मंच और दर्शकों के बीच की दीवार हट जाती है। यह
लोकनाट्यों के सभी रूपों की विशेषता है।
* हम जब इन लोक
नाटकों की रंगभाषा पर बात करते हैं, तब हम रंगमंच के पुरातन और आधुनिक रंग-प्रयोगों से
निर्मित होने वाली रंगभाषा के बरक्स उस लोक परंपरा के प्रदर्शनकारी कलारूपों और
उनके प्रभावों को देखने की कोशिश करते हैं, जो मुख्यतः नृत्य-गीत-संगीत के माध्यम से खुले मंच पर
अभिनेता की देहगतियों/देहभाषा और उसकी दक्षता से उपजी होती हैं।
* भारतीय रंगमंच की
भाषा ठेठ भारतीय लोककला रूपों से ही जन्मती है, इनकी अनदेखी दरअसल अपने सांस्कृतिक पहचान और जड़ों की
अनदेखी है। इन लोकनाट्यों की इसी शक्ति को भारतेंदु से लेकर हबीब तनवीर, सर्वेश्वर दयाल, रतन थियम, शांता गाँधी, कारंथ जैसे
रंग-चितकों ने पहचाना है।
***
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