हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा | Hindi Sahitya Ke Itihas Lekhan Ki Parampara
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा
Hindi Sahitya Ke Itihas Lekhan Ki Parampara
Hindi Sahitya Ke Itihas Lekhan Ki Parampara
यद्यपि मध्यकाल में रचित वार्ता साहित्य यथा-चौरासी वैष्णवन की वार्ता (गोसाई गोकुलनाथ-ब्रजभाषा), दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता (गोसाई गोकुलनाथ-ब्रजभाषा)), भक्तमाल (नाभादास) आदि में अनेक कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय मिल जाता है, किन्तु इतिहास-लेखन के लिए जो कालक्रमानुसार वर्णन अपेक्षित होता है, उसका नितांत अभाव इन वार्ता ग्रन्थों में है, अतः इन्हें साहित्य का इतिहास-ग्रंथ नहीं माना जा सकता।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखकों में जो उल्लेखनीय हैं, उनका क्रमानुसार संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है:
1. गार्सा-द-तासी
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का सूत्रपात
भी किसी हिंदी भाषी व्यक्ति द्वारा न होकर फ्रेंच विद्वान् 'गार्सा-द-तासी' द्वारा रचित 'इस्त्वार द ला
लितरेत्युर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी' नामक ग्रंथ से हुआ, जिसकी रचना दो भागों में की गयी है।
इसके प्रथम भाग का प्रकाशन सन् 1839 में और द्वितीय भाग का प्रकाशन सन् 1847 में हुआ। इस ग्रंथ में हिंदी और उर्दू के अनेक कवियों का विवरण वर्णानुक्रम से प्रस्तुत किया गया है।
यद्यपि गार्सा द-तासी के इस इतिहास ग्रंथ में अनेक कमियाँ हैं, यथा-काल विभाजन का कोई प्रयास न करना, कवियों का कालक्रमानुसार वर्गीकरण न करना तथा युगीन परिस्थितियों का विवेचन न करना, तथापि इस ग्रंथ में पहली बार हिंदी काव्य के इतिहास को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, साथ ही कवियों के रचनाकाल का निर्देश भी किया गया है। अतः इसे इतिहास ग्रंथ कहने में किसी को संकोच नहीं है।
अतः, अनेक कमियों के होने पर भी इस ग्रंथ को हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन की परम्परा में प्रथम ग्रंथ होने का गौरव निःसंकोच दिया जा सकता है।
2. यह फ्रेंच भाषा में लिखा गया था।
3. 'ऐन्दुई' का अर्थ 'हिंदवी' (हिंदी) और 'ऐन्दुस्तानी' का 'हिंदुस्तानी' (उर्दू) था।
4. इसे ब्रिटेन और आयरलैंड की प्राच्य साहित्य- अनुवादक समिति की ओर से पेरिस में प्रकाशित किया गया था, जिसमें काल-विभाजन और नामकरण का कोई प्रयास नहीं किया गया था।
5. यह दो भागों में है- 1839 ई. (प्रथम भाग), 1847 ई. (द्वितीय भाग)
6. दूसरा संस्करण 1871 ई. में आया। इसमें तीन खंड कर दिये गए।
7. डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ने इस ग्रंथ में वर्णित हिंदी रचनाकारों से संबंधित सामग्री का हिंदी अनुवाद 'हिंदुई साहित्य का इतिहास' शीर्षक से 1952 ई. में प्रकाशित कराया।
2. शिवसिंह सेंगर
हिंदी साहित्य के
इतिहास लेखन की परम्परा में दूसरी महत्वपूर्ण कृति 'शिवसिंह सरोज' है । जिसकी रचना शिवसिंह सेंगर ने सन् 1883 ई.में की। इसमें
लगभग एक हजार छोटे-बड़े कवियों
का जीवन चरित, उनकी साहित्यिक
कृतियाँ एवं कविता के उदाहरण दिए गए हैं।
उन्होंने प्रायः सभी कवियों का रचनाकाल एवं जन्मकाल भी दिया है, यद्यपि आज उनमें से अधिकांश अविस्मरणीय हैं। इतिहास-लेखन के लिए जिस तटस्थता, पर्यवेक्षण एवं वर्गीकरण की क्षमता की अपेक्षा की जाती है उसका नितांत अभाव इस ग्रंथकार में दिखाई पड़ता है।
अनेक त्रुटियों से युक्त होने पर भी शिवसिंह सरोज में तत्कालीन समय तक उपलब्ध हिंदी कविता सम्बन्धी जानकारी को एक स्थान पर एकत्र करने का सराहनीय प्रयास किया गया है। परवर्ती इतिहासकारों ने इस ग्रंथ में दी गई सामग्री का उपयोग करते हुए अपने इतिहास ग्रंथों की रचना की है, इस प्रकार इस विशाल ग्रंथ की उपादेयता आज भी है।
1. यह 1883 ई. में नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित किया गया था ।
2. इस ग्रंथ में सर्वप्रथम एक हज़ार से ज्यादा (1003) कवियों का विवरण दिया गया। इसी से यह बाद के इतिहासकारों के लिये आधार भी रहा।
3. इसके पूर्वार्द्ध में 838 कवियों की रचनाओं के नमूने तथा उत्तरार्द्ध में 1003 कवियों का जीवन परिचय दिया गया है।
4. इसमें वर्णानुक्रम पद्धति का प्रयोग किया गया है। काल विभाजन एवं नामकरण का प्रयास नहीं किया गया है ।
5. इस ग्रंथ को हिंदी साहित्य के इतिहास का ‘प्रस्थान बिंदु' (turning point) कहा गया है।
3. सर जार्ज ग्रियर्सन
सर
जार्ज ग्रियर्सन ने सन् 1888 ई. में 'द माडर्न
वर्नेक्यूलर लिटरेचर ऑफ नार्दर्न हिन्दुस्तान' नामक ग्रंथ का प्रकाशन ‘ऐशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’ की पत्रिका के विशेषांक के रूप में करवाया।
अनेक विद्वानों ने, जिनमें डॉ. किशोरीलाल गुप्त प्रमुख हैं, इस ग्रंथ को ही सही अर्थों में हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास माना है। इस इतिहास ग्रंथ में पहली बार कवियों और लेखकों को कालक्रम से वर्गीकृत किया गया है साथ ही उनकी प्रवृत्तियों पर भी प्रकाश डाला गया है।
संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश कवियों को उन्होंने हिंदी की परिधि से निकाल दिया, साथ ही अरबी फारसी एवं उर्दू के कवियों को भी उन्होंने हिंदी कवियों में नहीं गिना।
उनका योगदान इस बात में है कि उन्होंने परवर्ती इतिहासकारों के लिए हिंदी कवियों को चुनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। हिंदी कवियों में किसे स्थान मिलना चाहिए और किसे नहीं, यह एक ऐसा जटिल प्रश्न था जिसकी भूलभुलैया में साहित्य के इतिहास-लेखक प्रायः उलझ जाते थे।
ग्रियर्सन ने अपने इस इतिहास ग्रंथ में शिवसिंह सेंगर, गार्सा-द-तासी के द्वारा एकत्र की गई सामग्री का उपयोग करते हुए वार्ता साहित्य से भी संदर्भ लिए हैं और यथास्थान उनकी सूचना देकर ग्रंथ को और भी अधिक प्रामाणिक बनाने का प्रयास किया है।
ग्रियर्सन का यह ग्रंथ अंग्रेजी भाषा में लिखा गया था तथा इसे उन्होंने 11 विभिन्न अध्यायों में विभक्त किया है। प्रत्येक अध्याय एक काल-विशेष का सूचक है। उन्होंने युगीन प्रवृत्तियों का विवेचन भी इस इतिहास ग्रंथ में किया है।
ग्रियर्सन ने ही सबसे पहले अपने इस इतिहास में भक्तिकाल को हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि बताते हुए इसे हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग माना।
उनके इस ग्रंथ का महत्व इसलिए भी है कि इसकी रचना उस काल में हुई थी जब हिंदी साहित्य की इधर-उधर बिखरी हुई सामग्री का अध्ययन अनुशीलन नहीं हुआ था और न ही हिंदी अनुसंधान एवं आलोचना का पूर्ण विकास हो सका था, जो किसी भी इतिहास-लेखक के लिए कच्ची सामग्री जुटाने का काम करता है।
1. इस ग्रंथ का प्रकाशन 'एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’ की पत्रिका के विशेषांक के रूप में हुआ था।
2. बहुत से विद्वानों ने इसे सही अर्थों में हिंदी साहित्य का पहला इतिहास ग्रंथ माना।
3. इसमें सर्वप्रथम हिंदी साहित्य का भाषा की दृष्टि से क्षेत्र निर्धारित करते हुए हिंदी के इतिहास को संस्कृत-पालि-प्राकृत एवं अरबी-फारसी मिश्रित उर्दू से पृथक किया गया था।
4. इसमें पहली बार कवियों को कालक्रमानुसार वर्गीकृत करते हुए उनकी प्रवृत्तियों को उद्घाटित भी किया गया।
5. संपूर्ण ग्रंथ 11 अध्यायों में विभक्त है तथा प्रत्येक अध्याय एक काल का सूचक है। हर अध्याय का नामकरण भी किया गया है।
6. इसमें कुल 952 कवियों को शामिल किया गया है, जिनमें से 886 कवियों के विवरण का आधार ‘शिवसिंह सरोज’ है।
7. जॉर्ज ग्रियर्सन ने सर्वप्रथम भक्तिकाल (16 वीं- 17वीं शती) को ‘हिंदी साहित्य के इतिहास का स्वर्ण युग’ कहा ।
8. डॉ. किशोरीलाल गुप्त ने इसका अनुवाद ‘हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास' के नाम से 1957 ई. में प्रकाशित करवाया।
9. हिंदी साहित्य के इतिहास में यह ग्रंथ 'नींव का पत्थर' माना गया है।
4.मिश्र बन्धु
हिंदी साहित्य के
इतिहास ग्रन्थों में मिश्र बंधुओं द्वारा रचित 'मिश्रबंधु विनोद' का महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी रचना चार भागों में की
गई है, जिनमें से प्रथम
तीन भाग सन् 1913
में प्रकाशित हुए
तथा चौथा भाग सन् 1934
में।
‘मिश्रबन्धु विनोद’ एक विशालकाय ग्रंथ है जिसमें लगभग 5000 कवियों के सम्बन्ध में विवरण दिया गया है।
इस इतिहास ग्रंथ में पहली बार काल विभाजन का समुचित प्रयास किया गया है। उन्होंने विभिन्न काल-खण्डों के कवियों का परिचयात्मक विवरण प्रस्तुत करते हुए उनके साहित्यिक महत्व को उजागर किया।
उन्होंने तुलनात्मक पद्धति का अनुसरण करते हुए कवियों की श्रेणियाँ बनाने का प्रयास भी किया है। परवर्ती इतिहास लेखकों ने 'मिश्रबंधु विनोद' से कच्ची सामग्री लेकर अपने ग्रन्थों के लिए सारणी जुटायी है।
स्वयं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में यह स्वीकार किया है- "रीतिकाल के कवियों के परिचय लिखने में मैंने प्रायः उक्त ग्रंथ (मिश्रबंधु विनोद) से ही विवरण लिए हैं।"
2. इसमें 4591 कवियों को शामिल किया गया।
3. ग्रियर्सन यद्यपि काल विभाजन एवं नामकरण कर चुके थे किंतु व्यवस्थित रूप से इसका श्रेय मिश्रबंधुओं को जाता है । इन्होंने सम्पूर्ण इतिहास को पाँच कालों में विभाजित किया।
4. मिश्रबंधु तीन भाई थे - गणेश बिहारी मिश्र, श्याम बिहारी मिश्र एवं शुकदेव बिहारी मिश्र।
5. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
हिंदी
साहित्य के इतिहासकारों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का नाम सर्वोपरि है। उन्होंने सन् 1929 में 'हिंदी साहित्य का
इतिहास' नामक ग्रंथ 'हिंदी शब्द-सागर' की भूमिका के रूप
में लिखा, जिसे बाद में
स्वतंत्र पुस्तक का रूप दिया गया।
आचार्य शुक्ल ने साहित्य के इतिहास के प्रति एक निश्चित एवं सुस्पष्ट दृष्टिकोण का परिचय देते हुए यह सिद्धान्त स्थापित किया, "प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है।.. जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।"
शुक्ल जी ने मिश्र बंधुओं के काल विभाजन पर टिप्पणी करते हुए लिखा है- ”सारे रचना काल को केवल आदि, मध्य, पूर्व, उत्तर इत्यादि खण्डों में आँख मूंदकर बाँट देना- यह भी न देखना कि किस खण्ड के भीतर क्या आता है, क्या नहीं, किसी वृत्त संग्रह को इतिहास नहीं बना सकता।"
2. पूर्व मध्यकाल (भक्ति काल, संवत् 1375-1700 वि.)
3. उत्तर मध्यकाल (रीति काल, संवत् 1700-1900 वि.)
4. आधुनिक काल (गद्य काल, संवत् 1900-1984 वि.)
शुक्ल जी द्वारा दिए गए वीरगाथा काल नाम पर सबसे अधिक आपत्ति की गई है, अन्यथा शेष कालों को ज्यों-का-त्यों परवर्ती इतिहासकारों ने प्रायः स्वीकार कर लिया है।
आचार्य शुक्ल ने भक्तिकाल को निर्गुण एवं सगुण धाराओं में विभक्त कर पुनः उन्हें क्रमश: दो-दो उपविभागों - ज्ञानाश्रयी, प्रेमाश्रयी तथा रामभक्ति एवं कृष्णभक्ति शाखा में वर्गीकृत किया।
रीतिकालीन कवियों के वर्गीकरण में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध एवं रीतिमुक्त कवियों को स्थान दिया। रीतिकालीन कवियों के आचार्यत्व पर भी उन्होंने सूक्ष्मता से विचार करते हुए अपने निष्कर्ष दिए हैं।
आचार्य शुक्ल नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के धनी थे। उनमें प्रौढ़ विवेचना शक्ति एवं वैज्ञानिक दृष्टि थी। इसलिए वे एक ऐसे इतिहास ग्रंथ की रचना कर सके थे जो अपने क्षेत्र में 'मील का पत्थर' सिद्ध हुआ है।
आज शुक्ल जी के कहे हुए एक-एक वाक्य को आधार बनाकर शोध कार्य किए जा रहे हैं और उनकी प्रत्येक पंक्ति का मूल्यांकन करने का प्रयास हो रहा है। परवर्ती इतिहास लेखकों की कृतियों का मूल आधार शुक्ल जी का इतिहास ही बनता रहा है तथा इन कृतियों का मूल्यांकन भी शुक्लजी के इतिहास को मापदण्ड बनाकर किया जाता रहा है।
उदाहरण के लिए तुलसी के प्रति उनका मोह कबीर के प्रति अन्याय करवा गया है। यह इतिहास सन् 1929 में लिखा गया था, तब से अब तक लम्बा अन्तराल व्यतीत हो चुका है और इस दीर्घ अवधि में हिंदी में 'पर्याप्त अनुसंधान' हुए हैं। इनसे प्राप्त निष्कर्षो का समावेश भी यदि ग्रंथ में कर दिया जाये, तो यह और भी अधिक उपयोगी सिद्ध होगा, इसमें दो राय नहीं है।
1. यह ग्रंथ मूलतः नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित 'हिंदी शब्दसागर' की भूमिका के रूप में लिखा गया था। इस भूमिका को 'हिंदी साहित्य का विकास' नाम दिया गया था।
2. यह हिंदी का सर्वाधिक प्रख्यात इतिहास-ग्रंथ है ।
3. इसमें रचनाकारों के इतिवृत्त के बजाय उनके रचनात्मक वैशिष्ट्य पर अधिक बल दिया गया।
4. इसमें विधेयवादी पद्धति का प्रयोग करते हुए तत्कालीन युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में हिंदी साहित्य के इतिहास को विश्लेषित किया गया।
5. अपभ्रंश साहित्य को हिंदी से अलगाते हुए पूर्वपीठिका के रूप में वर्णित किया गया। 6. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संपूर्ण इतिहास का इतना तार्किक एवं सुव्यवस्थित कालविभाजन किया कि परवर्ती इतिहास-ग्रंथों में प्राय: उसका ही प्रयोग किया गया।
6. डॉ. रामकुमार वर्मा
डॉ.
रामकुमार वर्मा हिंदी जगत् में एक नाटककार एवं एकांकीकार के रूप में अधिक प्रसिद्ध
रहे हैं। यद्यपि उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास को दो भागों में प्रकाशित करने
की योजना को कार्यान्वित करने का भी प्रयास किया है।
इनमें से एक भाग 'हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' सन् 1938 ई. में प्रकाशित हो चुका है जिसमें सिर्फ आदिकाल और भक्तिकाल (सन् 693 ई. से सन् 1693 ई. तक के कालखण्ड) को विवेचित किया गया है।
वर्मा जी के इस लेखन का प्रमुख आधार शुक्ल जी का इतिहास रहा है, जिसमें कहीं-कहीं थोड़ा-बहुत मतांतर भी है। उदाहरण के लिए शुक्लजी के वीरगाथाकाल को वे चारणकाल कहना अधिक उपयुक्त मानते हैं तथा इससे पहले के साहित्य के लिए संधिकाल नाम देते हैं।
वस्तुतः उन्होंने अपभ्रंश की बहुत सारी सामग्री को हिंदी में समेट लिया है। इसीलिए वे 'स्वयंभू' को हिंदी का पहला कवि मानने की भूल कर गए हैं।
इसका दूसरा भाग अभी तक अप्रकाशित है, अतः यह अधूरा ग्रंथ है क्योंकि इसमें केवल भक्तिकाल तक का ही विवेचन किया गया है।
1. छायावादी कवि डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा रचित इस इतिहास-ग्रंथ में उनकी काव्यात्मक भाषा ने पाठकों को आकर्षित किया था । अपनी विस्तृत सामग्री, उसकी आकर्षक प्रस्तुति एवं भाषा के कारण यह ग्रंथ प्रभाव छोडने में सफल रहा।
2. इसमें सिर्फ आदिकाल और भक्तिकाल (693 ई. से 1693 ई.) तक की अवधि को ही स्थान मिला है । इससे आगे का भाग वे नहीं लिख पाए ।
3. उन्होंने ‘निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा’ को ‘संतकाव्य’ तथा ‘निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा’ को ‘सूफ़ीकाव्य’ नाम दिया ।
4. इसमें अपभ्रंश साहित्य के बड़े हिस्से को भी शामिल कर ‘संधिकाल’ शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया था । डॉ. रामकुमार वर्मा ने इसी से आदिकाल को ‘संधिकाल एवं चारणकाल’ कहा था ।
7. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
आचार्य
शुक्ल के उपरांत यदि किसी अन्य विद्वान् की मान्यताओं को हिंदी जगत ने नतमस्तक
होकर स्वीकार किया है तो वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ही हैं, जिन्होंने आदिकाल
के सम्बन्ध में पर्याप्त कार्य किया है।
अब तक साहित्य के इतिहास से सम्बन्धित उनकी निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाश में आयी हैं-
(क) हिंदी साहित्य की भूमिका (1940 ई.)
(ख) हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास (1952 ई.)
(ग) हिंदी साहित्य का आदिकाल (1952 ई.)
आचार्य द्विवेदी द्वारा रचित हिंदी साहित्य की भूमिका यद्यपि पद्धति की दृष्टि से इतिहास-ग्रंथ नहीं है, परन्तु उसमें दिये गये स्वतंत्र लेख हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन हेतु नयी सामग्री एवं नयी व्यवस्था प्रस्तुत करते हैं।
वे आचार्य शुक्ल के कई निष्कर्षो से असहमत हैं। यथा-शुक्लजी ने जिस काल को वीरगाथा काल कहना उचित माना है, उसे आचार्य द्विवेदी आदिकाल कहना उचित मानते हैं। वीरगाथा काल का नामकरण शुक्लजी ने जिन ग्रन्थों के आधार पर किया है, द्विवेदी जी ने उन ग्रन्थों की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है।
इसी प्रकार शुक्ल जी ने भक्ति आन्दोलन के उदय का प्रमुख कारण पराजित हिन्दू जाति की निराशा को माना है, वहीं द्विवेदी जी ने इसका खण्डन किया है। ये यह भी मानते हैं कि भक्ति का उदय इस्लाम के प्रभाव से नहीं हुआ।
उन्होंने कबीर की अवहेलना करने वाले आलोचकों को मुंहतोड़ जवाब दिया और उनकी काव्य प्रतिभा को उजागर करने का महत्वपूर्ण प्रयास किया।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहास ग्रन्थों से संबंधित स्मरणीय तथ्य :
1. आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने कोई स्वतंत्र इतिहास-ग्रंथ नहीं लिखा, किन्तु उल्लिखित तीनों ग्रंथ साहित्येतिहास संबंधी ही हैं एवं इनमें एक निश्चित साहित्येतिहास-दृष्टि मिलती है ।
2. आचार्य द्विवेदी इतिहास को परंपरा के विकास के रूप में व्याख्यायित करते थे।
3. इन्होंने विश्व भारती के गैर-हिंदी भाषी साहित्य-जिज्ञासुओं को हिंदी साहित्य से परिचित करवाने हेतु जो व्याख्यान दिये थे, उन्हें ही संशोधित परिवर्तित कर 'हिंदी साहित्य की भूमिका' नामक ग्रंथ तैयार किया गया था।
4. आदिकाल का स्वरूप-निर्धारण; भक्तिकाल के उदय की पृष्ठभूमि; पूर्ववर्ती सिद्धांतों से भक्तिकालीन संत काव्यधारा का संबंध उद्घाटन; हिंदी सूफी काव्य का आधार संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश की काव्य परंपराओं को मानना आदि उनकी साहित्येतिहासकार के रूप में उपलब्धियाँ हैं।
8. डॉ. गणपति चन्द्र
गुप्त
डॉ.
गणपति चन्द्र गुप्त का हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में महत्वपूर्ण
योगदान है। उन्होंने 'हिंदी साहित्य का
वैज्ञानिक इतिहास' (1965 ई.) लिखकर एक अभाव
की पूर्ति की है।
इस ग्रंथ में साहित्येतिहास के विकासवादी सिद्धान्तों
की प्रतिष्ठा करते हुए उसके आलोक में हिंदी साहित्य की नूतन व्याख्या प्रस्तुत की गई
है।
लेखक के अनुसार “विगत तीस-पैंतीस वर्षो में हिंदी साहित्य के क्षेत्र में पर्याप्त अनुसंधान कार्य हुआ है, जिनसे बहुत नये तथ्य और नए निष्कर्ष प्रकाश में आए हैं जो आचार्य शुक्ल के वर्गीकरण-विश्लेषण आदि के सर्वथा प्रतिकूल पड़ते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इन शोध निष्कर्षो के अनुरूप हम इतिहास को नवीन रूप में प्रस्तुत करें और पुरानी मान्यताओं से चिपके न रहें।”
प्रारम्भिक काल एवं मध्यकाल के अन्तर्गत वे तीन-तीन प्रकार के काव्यों की रचना को स्वीकार करते हैं-
(अ) धर्माश्रित काव्य, (ब) लोकाश्रित काव्य, (स) राज्याश्रित काव्य ।
आधुनिक काल का विकास वे स्वतंत्र रूप से हुआ मानते हैं। अतः उसमें इस प्रकार की काव्य परम्पराओं का समावेश नहीं है।
आचार्य गणपति चन्द्र गुप्त ने शुक्ल जी की अनेक मान्यताओं का निर्भीकता से खण्डन करते हुए अपनी मान्यताओं को तर्कपूर्ण ढंग से स्थापित किया है। वस्तुतः हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन की परम्परा में उनके द्वारा रचित ‘हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ एक महत्वपूर्ण कड़ी सिद्ध हुआ है।
1. आचार्य शुक्ल द्वारा प्रतिपादित ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन करने का एक सार्थक प्रयास इस ग्रंथ के माध्यम से किया गया।
2. संपूर्ण इतिहास को तीन कालों में विभक्त किया गया - प्रारंभिक काल, मध्यकाल और आधुनिक काल।
3. इसमें 'साहित्येतिहास के विकासवादी सिद्धांतों की प्रतिष्ठा करते हुए, उसके आलोक में हिंदी साहित्य की नूतन व्याख्या प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है।'
9. ‘हिंदी साहित्य का
इतिहास’ (सं. डॉ. नगेंद्र
एवं डॉ.हरदयाल 1973 ई.) से संबंधित स्मरणीय तथ्य
1. डॉ. नगेंद्र के संपादन में 26 विद्वानों के सहयोग से यह विशद ग्रंथ रचा गया था।
2. इतने विद्वानों के कारण एक ऐतिहासिक दृष्टि संपूर्ण ग्रंथ में आद्योपांत नहीं हो पाई है किंतु फिर भी प्रत्येक काल व उससे जुड़े रचनाकारों पर सरल भाषा में अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक व व्यवस्थित सामग्री के कारण यह विद्यार्थियों में विशेष रूप से प्रचलित है।
10. ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’ (रामस्वरूप चतुर्वेदी, 1986 ई.) से संबंधित स्मरणीय तथ्य
1. साहित्येतिहास लेखन के लिये व्यास सम्मान सहित कई पुरस्कार प्राप्त करने वाला यह ग्रंथ अपनी लोकप्रियता एवं आकर्षण में अद्वितीय है।
2. रामस्वरूप चतुर्वेदी मूलतः आचार्य शुक्ल की दृष्टि से प्रभावित हैं फिर भी उन्होंने शुक्ल जी के युगीन दृष्टिकोण और द्विवेदी जी के परंपरावादी दृष्टिकोण में परस्पर संबंध बनाते हुए लिखा है।
4. भाषा और साहित्य के गहरे संबंधों की खोज उनकी प्रमुख विशेषता है। भाषिक प्रवृत्तियों की गहरी समीक्षा से साहित्यिक परंपराओं के संदर्भ व्याख्यायित किये हैं।
11. हिंदी साहित्य का वृहत् इतिहास (सम्पादित)
नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा सोलह खण्डों में हिंदी साहित्य के वृहत्
इतिहास को प्रकाशित करने की योजना बनाई गई है।
यह विशाल ग्रंथ किसी एक व्यक्ति की रचना न होकर शताधिक लेखकों के सामूहिक प्रयास का प्रतिफल है। इसका प्रत्येक खण्ड अलग-अलग विद्वान् के सम्पादन में तैयार किया गया है। अतः शैली की एकरूपता नहीं रह पायी है, यद्यपि इस ग्रंथ के लेखन हेतु कुछ सामान्य सिद्धान्त निर्धारित किये गये थे।
इस ग्रंथ की योजना हिंदी साहित्य की इधर-उधर बिखरी हुई सामग्री को एक स्थान पर एकत्र कर उसे श्रृंखलाबद्ध कर देने हेतु की गई है। अपने विशाल आकार के कारण यह ग्रंथ पाठकों एवं जिज्ञासुओं के लिए अधिक सुविधाजनक तो नहीं है, किन्तु एक संदर्भ ग्रन्थ के रूप में इसकी उपयोगिता निर्विवाद रूप से स्वीकार की गई है।
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