ध्वनि सम्प्रदाय | ध्वनि सिद्धांत Dhwani Sampraday| Dhwani Siddhant | Acharya Anandvardhan | Bhartiya Kavyashastra
ध्वनि सम्प्रदाय | ध्वनि सिद्धांत | भारतीय काव्यशास्त्र
Dhwani Sampraday| Dhwani Siddhant | Bhartiya Kavyashastra
भारतीय काव्यशास्त्र में ध्वनि सम्प्रदाय का
महत्वपूर्ण स्थान है। ध्वनि-सिद्धान्त को व्यवस्थित करने का श्रेय आचार्य आनन्दवर्धन को है जिन्होंने
अपने ग्रन्थ ‘ध्वन्यालोक’ में ध्वनि
सिद्धान्त की स्थापना की। ध्वनि सिद्धान्त से पहले काव्यशास्त्र में तीन
महत्वपूर्ण सिद्धान्त अलंकार, रस और रीति का प्रवर्तन हो चुका था। अतः ध्वनि
सिद्धान्त के अन्तर्गत प्रबल एवं पुष्ट तर्कों के आधार पर ध्वनि को काव्य की आत्मा स्वीकार करते हुए उक्त सभी सिद्धान्तों का पुनः
मूल्यांकन किया गया।
ध्वनि-सिद्धांत का आधार वैयाकरण का स्फोटवाद है।
काव्यशास्त्रियों ने ध्वनि शब्द वैयाकरणों से लिया है। ध्वनि काव्य का संबंध व्यंजना शब्दशक्ति
से है। व्यंजना का
अर्थ है - स्पष्ट करना, खोलना या विकसित करना।
स्फोट
के 2 अर्थ हैं - 1. जिससे अर्थ
स्फुटित (व्यक्त) हो 2. जो वर्णों द्वारा
स्फुटित (प्रकाशित अथवा व्यक्त) हो। स्फोट व्यंग्य भी है। इस स्फोट को ही ध्वनि
कहा गया है।
शब्द
शक्ति : शब्द और अर्थ के
संबंध को ‘शक्ति’ कहते हैं । दूसरी
शब्दों में जिस शक्ति, वृत्ति या
व्यापार से शब्द में अंतर्निहित अर्थ को व्यक्त करने या समझने में सहायता मिलती
है, उसे ‘शब्द शक्ति’ कहते हैं ।
शब्द
शक्तियों के प्रकार : शब्द शक्तियाँ मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती हैं :
1. अभिधा 2. लक्षणा
3. व्यंजना
शक्ति या वृत्ति
शब्द अर्थ उदाहरण
अभिधा
वाचक वाच्य (मुख्य) गंगा, गधा
लक्षणा
लक्षक लक्ष्य (गौण) वह गधा है।
व्यंजना
व्यंजक व्यंग्य
(प्रतीयमान) उसका घर गंगा में है ।
ध्वनि का अर्थ और स्वरूप – आचार्य आनन्दवर्धन के अनुसार “जहाँ अर्थ स्वयं को तथा शब्द अभिधेय अर्थ को गौण करके
प्रतीयमान को प्रकाशित करता है उस काव्य विशेष को विद्वानों ने ध्वनि काव्य कहा
है।”
(प्रतीयमान का अर्थ है = जान पड़ता हुआ, जो समझ में आता हो, जो वास्तविक सा जान पड़े, जो व्यंजना द्वारा प्रकट हो)
इसका अभिप्राय यह है कि ध्वनि में व्यंग्यार्थ
(प्रतीयमान अर्थ) का
होना ही पर्याप्त नहीं है अपितु प्रतीयमान अर्थ का वाच्यार्थ से अधिक महत्वपूर्ण होना भी आवश्यक है।
सरल
शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जहाँ व्यंयार्थ प्रमुख हो और वाच्यार्थ गौण हो
वहीं ध्वनि मानी जा सकती है। उदाहरण के लिए यह दोहा देखिए :
माली आवत देख के कलियन करी पुकार।
फूली-फूली चुन लई काल हमारी बार।।
यहाँ ‘माली’ और ‘कली’ वाला अर्थ वाच्यार्थ (मुख्यार्थ) है जो गौण है जबकि जीवन की क्षणभंगुरता को व्यंजित
करने वाला अर्थ ‘व्यंग्यार्थ’ है और वही प्रमुख भी है। व्यंग्यार्थ की
प्रमुखता के
कारण यह ध्वनि
काव्य का उदाहरण है।
आचार्य आनन्दवर्धन
के अनुसार काव्य के भेद : आचार्य आनन्दवर्धन ने काव्य के तीन भेद किए हैं: (1) ध्वनि काव्य, (2) गुणीभूत व्यंग्य
काव्य,
(3) चित्र काव्य।
जहाँ व्यंग्यार्थ, वाच्यार्थ (मुख्यार्थ) से सुन्दर हो वहाँ ध्वनि काव्य होता है। जहाँ
वाच्यार्थ की तुलना में व्यंग्यार्थ कम सुन्दर है वहाँ गुणीभूत व्यंग्य काव्य होता है और जहाँ केवल वाच्यार्थ होता है उसे चित्र काव्य कहते हैं।
इस प्रकार ध्वनि काव्य को उन्होंने उत्तम, गुणीभूत व्यंग्य काव्य को मध्यम और चित्र काव्य को अधम कोटि का काव्य माना है।
ध्वनि काव्य का उदाहरण उपर्युक्त दोहा है।
गुणीभूत व्यंग्य एवं चित्रकाव्य के उदाहरण यहां दिए जा रहे हैं :
गुणीभूत
व्यंग्य काव्य -
अनदेखैं देखन चहैं देखैं विछुरन भीत।
देखैं बिन देखेहु पै तुम सौं सुख नहिं मीत।।
कोई नवयुवती अपने प्रिय से कहती है कि आपके
दिखायी न देने पर दर्शन की तीव्र इच्छा बनी रहती है और दर्शन होने पर वियोग का भय
व्याप्त हो जाता है, अतः मुझे तो
दोनों ही स्थितियां कष्टकारक हैं। व्यंग्यार्थ यह है कि आप कहीं भी न जाकर सदैव
मैरे पास रहें जिससे दर्शन लाभ मिलता रहे और वियोग का भय पीड़ित न करे।
चित्र काव्य
-
तो पर वारौं उरवसी सुन राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसी व्है उरवसी समान।।
हे राधा! तेरे ऊपर तो उर्वशी नामक अप्सरा भी
न्योछावर की जा सकती है अर्थात् तू उर्वशी से भी अधिक सुन्दर है इसलिए कृष्ण के
हृदय में ‘उर्वशी’ नामक आभूषण की तरह
सुशोभित हो रही है।
इसमें कवि का सारा ध्यान ‘यमक’ अलंकार पर
केन्द्रित है। ‘उरवसी’ का तीन बार अलग-अलग
अर्थों में प्रयोग होने से यमक अलंकार तो है पर व्यंग्यार्थ नहीं है अतः यह चित्र
काव्य का उदाहरण है।
प्रतीयमान
अर्थ - काव्यशास्त्र में
तीन शब्द शक्तियों का उल्लेख किया गया है: अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। इनमें से व्यंजना का संबंध ध्वनि से है। व्यंजना वह शब्द शक्ति है जो मुख्यार्थ या
लक्ष्यार्थ के झीने पर्दे में छिपे हुए व्यंग्यार्थ को स्पष्ट कर काव्य के
वास्तविक लावण्य (सुंदरता) को व्यक्त करती है।
व्यंजना से व्यक्त अर्थ को व्यंग्यार्थ या प्रतीयमान अर्थ कहा जाता है। आचार्य आनन्दवर्धन ने प्रतीयमान अर्थ की
प्रशंसा करते हुए इसे ही काव्य की आत्मा स्वीकार किया है। उनके अनुसार :
प्रतीयमानं पुनरन्यदेव बसत्वस्ति बाणीषु महाकवीनाम्।
यत् तत् प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति
लावण्यमिवांगनासु।।
अर्थात् प्रतीयमान अर्थ कुछ और ही वस्तु है
जो रमणियों के प्रसिद्ध अवयवों (मुख, नेत्र, आदि) से भिन्न लावण्य के समान महाकवियों की वाणी में
भाषित होता है।”
ध्वनि
सम्प्रदाय का विकास
(1) आचार्य आनन्दवर्धन - यद्यपि आचार्य आनन्दवर्धन ने ‘ध्वन्यालोक’ में इस बात को
स्वीकार किया है कि ध्वनि सिद्धान्त की परम्परा उनसे पहले भी वर्तमान (विद्यमान) थी, किन्तु उसके पुष्ट
प्रमाण न मिलने के कारण हम आनन्दवर्धन को ही ध्वनि सिद्धान्त का प्रथम आचार्य
मानते हैं।
उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘ध्वन्यालोक’ में ध्वनि सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन करते हुए ध्वनि को काव्य की
आत्मा सिद्ध किया।
व्यंजना को ध्वनि का आधारभूत तत्व मानते हुए आनन्दवर्धन ने व्यंजना के मूल में
अभिधा और लक्षणा दोनों शब्द शक्तियों को माना है और इसी आधार पर उन्होंने ध्वनि के
दो भेद किए हैं - अभिधामूला
ध्वनि और लक्षणामूला ध्वनि।
आनन्दवर्धन अलंकार, रस, रीति आदि सभी के मूल में ध्वनि को ही स्वीकार करते हैं
और ध्वनि काव्य को ही
उत्तम काव्य मानते
हैं।
(2) आचार्य अभिनव
गुप्त – आचार्य अभिनव
गुप्त’ ने ध्वन्यालोक की
टीका ‘ध्वन्यालोक लोचन’ नाम से लिखी जो
अत्यन्त लोकप्रिय सिद्ध हुई है। इस ग्रन्थ के द्वारा उन्होंने ध्वनि सिद्धान्त को
पल्लवित और विकसित किया और इस बात को स्पष्ट किया कि ध्वनिवादियों की व्यंजनाशक्ति
ही रस की अभिव्यक्ति कर सकती है क्योंकि रस, भाव आदि का बोध व्यंग्य रूप में ही हुआ करता है।
अपने
इस विवेचन द्वारा आचार्य अभिनव गुप्त ने रस सिद्धान्त और ध्वनि सिद्धान्त को परस्पर प्रगाढ़
रूप से सम्बद्ध कर
दिया। आचार्य अभिनव गुप्त मूलतः रसवादी आचार्य थे। रस की सम्यक् पुष्टि के लिए उन्होंने ध्वनि
सिद्धान्त को महत्व प्रदान किया और सिद्ध किया कि रस वाच्य न होकर व्यंग्य होता
है। उन्होंने यह भी स्थापित किया कि ‘रस’ ध्वनि ही काव्य की आत्मा है। दूसरे शब्दों में वे
ध्वनि सौन्दर्य से युक्त रसात्मक काव्य को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।
(3) आचार्य मम्मट – आचार्य मम्मट का
काव्यशास्त्र में महत्वपूर्ण योगदान हैं। वे एक सुलझे हुए प्रतिभाशाली आचार्य थे।
यद्यपि उन्हें रसवादी
आचार्य माना
जाता है तथापि वे ध्वनि सिद्धान्त के भी प्रबल पक्षधर थे।
ध्वनि सिद्धान्त के विरोधियों ने ध्वनि के
विरोध में जो तर्क दिए थे मम्मट ने उनका विद्वत्तापूर्ण ढंग से खण्डन किया और इस
प्रकार ध्वनि सिद्धान्त को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। इसीलिए आचार्य मम्मट को ‘ध्वनि प्रस्थापन
परमाचार्य’ कहा जाता है।
अपने
ग्रन्थ ‘काव्यप्रकाश’ में आचार्य मम्मट
ने व्यंजना शक्ति की सत्ता को स्वीकार किया और ध्वनिवादी आचार्यों की मान्यताओं
में एकरूपता लाने का ऐतिहासिक कार्य सम्पन्न किया।
आनंदवर्द्धन
के पूर्ववती ‘ध्वनि-विरोधियों’ के 3 वर्ग थे, जो निम्ननानुसार
हैं –
1. अभाववादी - (इनका मत है ध्वनि
नाम का कोई तत्त्व नहीं है।
2. भक्तिवादी - इनके अनुसार ध्वनि
की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वह गुणवृत्ति अर्थात् लक्षणा के अंतर्भूत है।
3. अलक्षणीयतावादी - इनकी मान्यता थी
कि ध्वनि तत्त्व अवश्य है किन्तु उसके लक्षण का निरूपण नहीं किया जा सकता। वह मात्र
सहृदय हृदय संवेद्य है।
आचार्य
आनंदवर्द्धन ने ‘ध्वन्यालोक’ में विरोधियों के
मतों का खंडन कर ध्वनि-सिद्धांत का स्थापना की।
ध्वनि विरोधी आचार्य - ध्वनि विरोधी आचार्यों में प्रमुख हैं मुकुल भट्ट, प्रतिहारेन्दुराज, भट्टनायक, कुन्तक, धनंजय और महिम
भट्ट ।
आचार्य मुकुल भट्ट
ने अपने ग्रंथ ‘अभिधावृत्ति
मातृका’ में केवल
अभिधा शक्ति को ही स्वीकार किया, जबकि प्रतिहारेन्दुराज ने अलंकार के अन्तर्गत ही ध्वनि को माना है।
इसी प्रकार ‘हृदयदर्पण’ के रचयिता प्रसिद्ध मीमांसक एवं रस समर्थक आचार्य भट्टनायक ने भी भावकत्व और भोजकत्व व्यापारों की कल्पना कर व्यंजना को स्वीकार नहीं किया।
आचार्य
महिम भट्ट ने
ध्वनि सिद्धान्त का विरोध करने के लिए ‘व्यक्ति विवेक’ नामक ग्रन्थ की रचना की। उनकी मान्यता है कि ध्वनि कोई
पृथक् वस्तु नहीं है अपितु वह अनुमान का ही एक भेद है। ‘ध्वन्यालोक’ में ध्वनि के जो उदाहरण दिए गए है उन्हें आचार्य महिम
भट्ट ने ‘अनुमान’ सिद्ध किया है। आचार्य
महिम भट्ट की मान्यता है कि प्रतीयमान अर्थ तो अनुमान पर आधारित होता है और अनुमान
के आधार पर किसी भी कथा के अनेक अर्थ हो सकते हैं फिर इन अनुमानित अर्थों को
प्रमुख कैसे माना जा सकता है। यही कारण है
कि वे अभिधा को ही स्वीकार करते हैं और ध्वनि का खण्डन करते हैं।
ध्वनि
के भेद - ध्वनि के
सामान्यतः दो भेद किए गए हैं:
(1)
अभिधामूला ध्वनि
(2)
लक्षणामूला ध्वनि
अभिधामूला
ध्वनि में अभिधेयार्थ (मुख्यार्थ)
से व्यंग्यार्थ ध्वनित होता है, जबकि लक्षणामूला ध्वनि में लक्ष्यार्थ (गौण) से
व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है।
अभिधामूला
ध्वनि को पुनः दो वर्गों में बांटा गया है :
(1)
असंलक्ष्य क्रम
ध्वनि,
(2) संलक्ष्य क्रम
ध्वनि
जहाँ वाच्यार्थ (मुख्यार्थ) के साथ-साथ ही
व्यंग्यार्थ ध्वनित होता है, दोनों के बीच समय का अन्तराल प्रतीत नहीं होता वहाँ असंलक्ष्य क्रम
ध्वनि होती है, जबकि वाच्यार्थ (मुख्यार्थ)
और व्यंग्यार्थ की प्रतीति में समय का अन्तराल होने पर संलक्ष्य क्रम ध्वनि होती है।
आचार्य आनन्दवर्धन
ने ध्वनि के तीन भेद किए हैं - रसध्वनि, अलंकारध्वनि, वस्तुध्वनि। इनमें से रसध्वनि को ध्वनि सम्प्रदाय में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान
दिया है।
रस ध्वनि ही काव्य में सर्वश्रेष्ठ मानी गयी
है। ध्वनिवादी यह तो स्वीकार करते हैं कि ‘रस’ श्रेष्ठतम काव्य तत्व है, पर वे काव्य की आत्मा पद पर ‘ध्वनि’ को ही प्रतिष्ठित करते हैं।
वस्तुतः ध्वनि के सैकड़ों भेदोपभेद किए गए
जिससे यह सम्प्रदाय अत्यन्त व्यापक रूप से विचार-विमर्श का विषय बना।
काव्य
की आत्मा ‘ध्वनि’ -ध्वनि सिद्धान्त
निश्चय ही अलंकार, रीति, वक्रोक्ति
सिद्धान्तों से अधिक व्यापक है तथा इसका विवेचन भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप में किया
गया है। ध्वनि को काव्य का प्राणतत्व स्वीकार करते हुए ध्वनि सम्प्रदाय के
प्रवर्तक आचार्य आनन्दवर्धन कहते हैं :
“काव्यस्य आत्मा
ध्वनिरितिः”
अर्थात् “काव्य
की आत्मा ध्वनि है।”
अन्य आचार्यों
ने ध्वनि को रस व्यंजना का माध्यम मात्र माना है, वे ध्वनि के स्थान पर ‘रस’ को वरीयता देते हैं। वस्तुतः ध्वनि सिद्धान्त ने रस
सिद्धान्त के रहस्य को खोल दिया, अतः इसे रस सिद्धान्त का पूरक ही कहना चाहिए।
आचार्य आनन्दवर्धन ने भी ‘रसध्वनि’ को सर्वश्रेष्ठ
माना है। इस प्रकार वे भी रस के महत्व को नकार नहीं सके। आचार्य अभिनवगुप्त ने तो
रस और ध्वनि का ऐसा समन्वय किया है कि परवर्ती आचार्यों ने ध्वनि युक्त सरस काव्य
को ही सर्वश्रेष्ठ कहा है। ध्वनि द्वारा रस की ही व्यंजना की जाती है, अतः काव्य की
आत्मा तो रस ही है,हाँ ध्वनि उसकी
साधिका अवश्य मानी जा सकती है।
हिंदी
आचार्य और ध्वनि
चिंतामणि
त्रिपाठी ने
ध्वनि काव्य को उत्तम माना और ध्वनि के भेदों की व्याख्या की-
प्रतिशब्दाकृत लब्धक्रम व्यंग्य सु त्रिविध बखानि।
शब्द, अर्थ, जुग सक्ति भव इति ध्वनि भेद सुजानि ।।
भिखारीदास
ने ध्वनि का
विवेचन और ध्वनि के भेदों का उल्लेख आचार्य मम्मट के अनुसार किया -
वाच्य अरथ तें व्यंग में चमत्कार अधिकार।
धुन ताही को कहत हैं, उत्तम काव्य विचार ।
प्रतापसाहि ने ‘व्यंग्यार्थ
कौमुदी’ में उसी काव्य को
उत्तम काव्य माना, जो ध्वनि- प्रधान
अथवा व्यंग्य प्रधान हो-
व्यंग्य जीव है कवित्त में, शब्द अरथ है अंग।
सो ही उत्तम काव्य है, जो बरने व्यंग्य-प्रसंग ।।
कुलपति
मिश्र ने ‘रस रहस्य’ में ध्वनि को
काव्य की आत्मा एवं ध्वनि की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुए गुण, अलंकारादि को
ध्वनि की सिद्धि का साधन बताया-
व्यंग्य जीव ताको कहत शब्द अरथ है देह।
गुण गुण भूषण भूषणो दूषण-दूषण एह ।।
निष्कर्ष
ध्वनि का प्राचीनतम प्रयोग ‘अथर्ववेद’ में मिलता है । ध्वनि संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य आनन्दवर्धन हैं । इन्होंने
अपने ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक’ में ‘ध्वनिरात्मा काव्यस्य’ कहा है । आचार्य आनन्दवर्धन कृत ‘ध्वन्यालोक’ की टीका ‘ध्वन्यालोकलोचन’ नाम से आचार्य अभिनवगुप्त ने लिखी है ।
आचार्य आनन्दवर्धन
के अनुसार महाकवियों की वाणी में वाच्य अर्थ (मुख्यार्थ) से भिन्न कुछ अधिक
चमत्कारपूर्ण अर्थ प्रतीयमान होता है, यह प्रतीयमान अर्थ ही ध्वनि है ।
आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी के शब्दों में –“ध्वनि सिद्धान्त का आविर्भाव वास्तव में रस की व्याख्या के
लिए किया गया। उसे स्वयं कोई संप्रदाय नहीं खा जा सकता। ध्वनिमत के द्वारा रस की
जो पुनः प्रतिष्ठा हुई उसे जो पूर्णता और व्याप्ति मिली, उसके कारण भारतीय मानस को उसने
सर्वाधिक आकृष्ट किया।”
*******
Post a Comment