औचित्य सिद्धान्त | औचित्य सम्प्रदाय | Auchitya Siddhant | Auchitya Sampraday | Bhartiya Kavyashastra
औचित्य सिद्धान्त | औचित्य सम्प्रदाय
औचित्य से तात्पर्य है - उचित व्यवहार, उचित कार्य
अथवा उचित आचरण । किन्तु भारतीय साहित्यशास्त्र या काव्यशास्त्र में औचित्य का
अभिप्राय है – काव्यांगों की उचित योजना। आचार्य क्षेमेन्द्र औचित्य सिद्धान्त के
प्रणेता हैं । उन्होंने अपने ग्रंथ ‘औचित्य विचार चर्चा’ में औचित्य का विवेचन किया है ।
ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के आरम्भ तक भारतीय काव्य-शास्त्र के क्षेत्र में
पाँच प्रमुख सम्प्रदाय रस, अलंकार, रीति, ध्वनि
और वक्रोक्ति प्रतिष्ठित हो चुके थे, किन्तु फिर भी काव्य के
आधारभूत तत्व के सम्बन्ध में कोई एक सर्वमान्य निर्णय नहीं हो सका। इतना ही नहीं,
अनेक सम्प्रदायों की स्थापना के कारण ‘काव्य
की आत्मा’ सम्बन्धी विवाद सुलझाने के स्थान पर और अधिक उलझ
गया था- रस, अलंकार, रीति आदि प्रत्येक
सम्प्रदाय अपने-अपने मत को प्रमुखता देते थे तथा दूसरे के मत को नीचा दिखाने का
प्रयत्न करते थे। ऐसी स्थिति में काव्य के सामान्य अध्येता (अध्ययन करने वाला,पाठक) के सामने यह समस्या थी कि
वह किस मत को माने और किसको नहीं।
ठीक इसी समय आचार्य क्षेमेन्द्र ने औचित्य की स्थापना करके इस विवाद को
सुलझाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कहा कि काव्य में रस, गुण, अलंकार
आदि सभी का महत्व है, किन्तु उसी अवस्था में जबकि ये सब
औचित्य से समन्वित हों। औचित्य के अभाव में ये सभी तत्व व्यर्थ हैं। इस प्रकार
औचित्य सम्प्रदाय इन सबके लिए उचित समन्वय का सन्देश लेकर उपस्थित हुआ।
औचित्य
की पूर्व-परम्परा
यद्यपि ‘औचित्य’ की एक पृथक् सम्प्रदाय के रूप में स्थापना
करने का श्रेय आचार्य क्षेमेन्द्र को ही है, किन्तु उनसे
पूर्व भी अनेक आचार्य इसकी चर्चा सामान्य रूप से कर चुके थे।
आचार्य
भरतमुनि ने ‘नाट्य-शास्त्र’ में औचित्य
का आधार लोक की रुचि, प्रवृत्ति एवं उसके रूप को मानते हुए लिखा- ‘जो लोक-सिद्ध है वह सब अर्थों में सिद्ध है और नाट्य का जन्म लोक-स्वभाव
से हुआ है, अतः नाट्य प्रयोग में लोक ही प्रमाण है।’ आगे चलकर उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया कि जैसा पात्र हो, उसी के अनुरूप उसकी भाषा, वेश, चरित्र आदि होने चाहिए-
वयोऽनरूपः प्रथमवस्तु वेषः
वेषानुरूपश्च गति-प्रचारः ।
गति-प्रचारानुगतं च पाठ्यं
पाठ्यानुरूपोऽभिनयश्य कार्यः।
अर्थात् ‘वय (उम्र या अवस्था) के अनुरूप वेष होना चाहिए, वेष के अनुरूप गति (भाव-भंगिमा), गति के अनुरूप
पाठ्य तथा पाठ्य के अनुरूप अभिनय होना चाहिए।’ इस प्रकार
आचार्य भरत ने स्वाभाविकता के रूप में औचित्य का प्रतिपादन किया है- इतना अवश्य है
कि उन्होंने ‘औचित्य’ शब्द का प्रयोग
नहीं किया।
आगे चलकर आचार्य
दंडी ने भी यह
संकेत किया कि काव्य में औचित्य का स्थान है।
वस्तुतः भामह, दंडी, वामन,
रुदट आदि का दोष-विवेचन एक प्रकार से औचित्य के अभाव
या अनौचित्य की ही व्याख्या है।
औचित्य की स्पष्ट रूप से व्याख्या करने वाले आचार्यों में सर्वप्रथम आनन्दवर्धन आते हैं।
उन्होंने ‘औचित्य’ शब्द का प्रयोग करते हुए उसके छः प्रकार
निश्चित किये (1)
रसौचित्य, (2) अलंकारौचित्य, (3) गुणौचित्य, (4) संघटनौचित्य, (5) प्रबन्धौचित्य, (6 ) रीति-औचित्य। इनमें से प्रत्येक का संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:
( (1)रसौचित्य - इसका सम्बन्ध रस से है। काव्य में रस का उचित
रूप से प्रतिपादन तब ही सम्भव है जबकि उसमें रसौचित्य हो। विभाव, अनुभाव, संचारी भाव आदि का
वर्णन करने में औचित्य का ध्यान रखा जाना चाहिए।
रसौचित्य के लिए आनन्दवर्धन ने मुख्यतः दस नियम निर्धारित किये हैं।
रसौचित्य
के सम्बन्ध
में संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि काव्य में रस के विभिन्न अवयवों
तथा विरोधी रसों का समन्वय उचित रूप से होना चाहिए, तब ही उससे रस-निष्पत्ति हो
सकेगी।
(2) अलंकारौचित्य - अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप में होना चाहिए तथा अलंकार लाने के लिये कवि को प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इसके अलावा अलंकार भावों की पुष्टि में योग देने वाले होने चाहिए।
(3) गुणौचित्य - काव्य में विभिन्न काव्य गुणों जैसे प्रसाद, माधुर्य और ओज का समन्वय रस के
अनुकूल होना चाहिए। जैसे-ओज का वीर रस में, माधुर्य का
श्रृंगार और करुण में।
(4) संघटनौचित्य - संघटना या रचना का उद्देश्य रस है, अतः उसमें विभिन्न तत्वों का
नियोजन रस के अनुकूल होना चाहिए।
(5) प्रबन्धौचित्य – प्रबंध काव्य में ऐतिहासिक व कल्पनात्मक कथ्य का उचित अनुपात ।
(6) रीति-औचित्य - रीति का प्रयोग भी उचित रूप से यानी वक्ता, रस, अलंकार
तथा काव्य के स्वरूप के अनुकूल करना चाहिए। वैदर्भि, गौड़ी, पांचाली रीतियों का सम्यक प्रयोग किया जाना चाहिए ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आनन्दवर्धन ने औचित्य का प्रतिपादन
पर्याप्त विस्तार से किया था।
औचित्य की परम्परा पहले से चली आ रही थी किन्तु क्षेमेन्द्र ने ‘औचित्य विचार चर्चा’ लिखकर उसे
काव्य का प्राण घोषित किया और साथ ही उसे अत्यन्त व्यापक रूप प्रदान किया।
औचित्य
का लक्षण
आचार्य
क्षेमेन्द्र ने औचित्य का लक्षण निर्धारित करते हुए कहा “ जो जिस स्थान के अनुरूप हो
अथवा जो जहां सही हो, उसी स्थान पर उसका प्रयोग उचित कहलाता है और उचित का भाव
ही औचित्य है”
औचित्य को आधुनिक शब्दावली में ‘स्वाभाविकता’ कहना अधिक
उचित होगा। काव्य में घटनाओं और पात्रों के आयोजन में स्वाभाविकता होने पर ही वह प्रेषणीय
हो पाता है। अस्तु, स्वाभाविकता ही औचित्य है।
औचित्य
के अंग
आचार्य क्षेमेन्द्र ने काव्य के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवयव से लेकर उसके
विशालतम रूप को ध्यान में रखते हुए औचित्य के 28 अंग या (भेद) निर्धारित किये है, जो इस प्रकार हैं :
(1)
पद, (2) वाक्य, (3) प्रबन्धार्थ, (4) गुण (5) अलंकार, (6) रस, (7) क्रिया, (8) कारक, (9) लिंग, (10) वचन; (11) विशेषण, (12) उपसर्ग, (13) निपात, (14) काल, (15) देश, (16) कुल, (17) व्रत, (18) तत्व, (19) सत्व, (20) अभिप्राय, (21) स्वभाव, (22) सार-संग्रह, (23) प्रतिभा, (24) अवस्था, (25) विचार, (26) नाम, (27) आशीर्वाद और
(28) काव्य के
अन्य विविध अंग।
नोट
: कुछ किताबों
में आचार्य क्षेमेन्द्र के अनुसार औचित्यके 27 अंग या भेद मिलते हैं ।
इन 28 तत्त्वों को सुगमता की दृष्टि से निम्नांकित चार विभागों में विभक्त
किया जा सकता है-
(क) शब्द - पद, वाक्य, क्रिया,
कारक, लिंग, वचन,
विशेषण, उपसर्ग, निपात।
(ख) काव्यशास्त्रीय तत्व – प्रबन्धार्थ, गुण, अलंकार,
रस, सार-संग्रह, तत्व, आशीर्वाद, काव्य के अन्य अंग।
(ग) चरित्र संबंधी - व्रत, सत्व, अभिप्राय,
स्वभाव, प्रतिभा, विचार,
नाम।
(घ) परिस्थिति संबंधी - काल, देश, कुल,
अवस्था ।
उपर्युक्त अंगों के पर्यालोचन (सम्यक विवेचन) से पता चलता है कि आचार्य
क्षेमेन्द्र ने काव्य की विषय-वस्तु और उसकी शैली दोनों में ही औचित्य का विधान
किया है।
क्षेमेन्द्र-परवर्ती
आचार्य
क्षेमेन्द्र-परवर्ती आचार्यों में से कुछ ने ‘औचित्य’ की
चर्चा तो की है किन्तु उन्होंने उसे काव्य का प्राण तत्व स्वीकार नहीं किया। आचार्य मम्मट ने कहा है
कि औचित्य के कारण गुण भी दोष या गुण बन सकता है - अतः उसके आधार पर गुण दोषों की
ही परीक्षा की जा सकती है। इससे अधिक उसका महत्व नहीं है।
आचार्य
हेमचन्द्र ने अपने ‘काव्यानुशासन’ में औचित्य चर्चा गौण रूप से की है। उन्होंने यह
बताया है कि पूर्व कवियों का अनुकरण कहाँ तक उचित है और कहाँ तक अनुचित।
आगे चलकर ‘साहित्यदर्पणकार’ आचार्य विश्वनाथ एवं पंडितराज
जगन्नाथ ने भी इसे गुण दोषों तक ही सीमित रखा।
हाँ, आधुनिक युग के कतिपय आचार्यों
ने अवश्य ही इसकी प्रशंसा की है। साहित्याचार्य बलदेव उपाध्याय ने इसके
सम्बन्ध में लिखा है- “सच्ची बात तो यह है कि औचित्य भारतीय अलंकारियों की संसार
के आलोचना-शास्त्र को महती देन है। जितना प्राचीन तथा सांगोपांग विवेचन इसका भारत
में हुआ है, उतना अन्यत्र नहीं। यह हमारे साहित्य के महत्व का पर्याप्त परिपोषक है।’
पाश्चात्य
काव्य-शास्त्र और औचित्य
पाश्चात्य काव्य-शास्त्र के क्षेत्र में भी औचित्य पर पर्याप्त विचार हुआ
है। प्रसिद्ध यूनानी
दार्शनिक अरस्तू ने अपने ‘पोइटिक्स’ में चार प्रकार के औचित्य की मीमांसा की है- (1) घटनौचित्य; (2) रूपकौचित्य, (3) विशेषणौचित्य, (4) विषयौचित्य ।
लौंजाइनस
ने अपने
उदात्त-तत्व सम्बन्धी ग्रंथ (On the sublime) में दो प्रकार के औचित्य- अलंकारौचित्य एवं
शब्दौचित्य की विवेचना की है। उन्होंने यह स्पष्ट रूप में स्वीकार किया है कि
अलंकारों और शब्दों के उचित प्रयोग से ही काव्य के प्राण-तत्व-उदात्त तत्व की
सिद्धि होती है।
आगे चलकर एक अन्य पाश्चात्य आचार्य होरेस ने अपने ‘काव्य-कला’ संबंधी
प्रबन्ध में कवियों के लिए तीन उपदेश दिये हैं, जिनमें एक ‘काव्य में औचित्य का सदा ध्यान रखना है।’
वस्तुतः औचित्य को भारतीय एवं पाश्चात्य आचार्यों ने समान रूप से महत्व
प्रदान किया है।
निष्कर्ष
निष्कर्षत: औचित्य
सम्प्रदाय के महत्व के सम्बन्ध में यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि काव्य-शास्त्र
में औचित्य की प्रतिष्ठा से एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति हुई।
एक ओर तो इसने अलंकारवादियों, रीतिवादियों एवं
वक्रोक्तिवादियों की अति चमत्कारवादी प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने में योगदान
दिया तो दूसरी ओर काव्य में स्वाभाविकता
को अत्यधिक सम्मान प्राप्त होने लगा।
आचार्य क्षेमेन्द्र का औचित्य या स्वाभाविकता सम्बन्धी दृष्टिकोण आधुनिक
युग की धारणाओं के भी अनुकूल है। इतना अवश्य है कि जहाँ आधुनिक युग का साहित्यकार
साहित्य को नियमों से पूरी तरह से मुक्त कर देने में उसकी स्वाभाविकता मानता है, वहीं आचार्य क्षेमेन्द्र आवश्यक
नियमों का पालन करते हुए यथार्थ चित्रण में स्वाभाविकता मानते हैं। किन्तु यह
अन्तर भी युग के दृष्टिकोण के अनुकूल ही है। उस युग का पाठक सामाजिक प्राचीन
नियमों को श्रद्धा की दृष्टि से देखता था, अतः उसका पालन उस
युग के साहित्यकार के लिए अपेक्षित था, जबकि आज का दृष्टिकोण
बदल गया है।
यहाँ एक बात विचारणीय है कि क्या औचित्य को काव्य का जीवन या प्राण, माना जा सकता है? क्या औचित्य अपने-आपमें इतना समर्थ है कि वह काव्य में सौन्दर्यतत्व की
प्रतिष्ठा कर सके ? इन प्रश्नों का उत्तर हमें निषेधात्मक (नकारात्मक)
ही देना पड़ेगा।
इसमें सन्देह नहीं कि औचित्य से
काव्य में मूल सौन्दर्य की रक्षा होती है, उसके अभाव में सौन्दर्य नहीं
रहता- कुरूपता में परिणत हो सकता है, किन्तु यह भी स्पष्ट है
कि वह मूल सौन्दर्य का स्थानापन्न (किसी दूसरे का स्थान ग्रहण करना) नहीं बन सकता। औचित्य में अपने-आपमें इतनी
सामर्थ्य नहीं है कि वह काव्य- सौन्दर्य की सृष्टि कर सके।
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