प्लेटो का आदर्शवाद | Plato ka Adarshvad

 

प्लेटो का आदर्शवाद | Plato ka Adarshvad

प्लेटो का आदर्शवाद | Plato ka Adarshvad


पाश्चात्य संस्कृति एवं सभ्यता का आदिस्रोत यूनान रहा है। यूनान के दार्शनिकों, विचारकों एवं काव्य-चिन्तकों ने जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन ईसा से चार-पाँच शताब्दियों पूर्व किया था, उन्हीं की अनुगूँज परवर्ती युग में यूरोप के विभिन्न विचारकों की शब्दावली में सुनाई देती है।

 

यूनान के गौरवशाली चिन्तकों एवं महान् दार्शनिकों में सुकरात के शिष्य प्लेटो (427 ई० प०-347 ई० पू०) का नाम सर्वोपरि है। प्लेटो मूलतः दार्शनिक एवं आचार्य थे। प्लेटो का दृष्टिकोण अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों से सर्वत्र स्वतन्त्र एवं मौलिक दिखाई पड़ता है जिसका प्रकटीकरण उनके द्वारा रचित विभिन्न दार्शनिक एवं राजनीतिक ग्रन्थों में हुआ। उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में 'दि रिपब्लिक' (गणराज्य), 'दि स्टेट्समैन' (राजनेता), 'दि लॉज' (विधि) आदि उल्लेखनीय हैं।

 

प्लेटो के दार्शनिक विचार - दर्शन का चरम लक्ष्य सत्य या अन्तिम सत्य की खोज करना होता है, पर अन्तिम सत्य के सम्बन्ध में भी दार्शनिकों के मुख्यतः दो वर्ग रहे हैं- एक, जो किसी सूक्ष्म सत्ता या परोक्ष शक्ति को जिसे परमात्मा का भी नाम दिया जाता है-अंतिम सत्य या शाश्वत तत्व मानते हैं, जबकि दूसरे वर्ग में वे आते हैं, जो इस स्थूल एवं भौतिक जगत् को ही सृष्टि का आधारभूत तत्व एवं सत्व मानते हैं। इन्हें क्रमशः आदर्शवादी एवं यथार्थवादी कहा जाता है।

 

प्लेटो प्रथम वर्ग (आदर्शवादी) में आते हैं।

 

वे मानते थे कि इस भौतिक जगत् के पीछे किसी सूक्ष्म, शाश्वत एवं अलौकिक जगत् का आधार है या यों कहिए कि यह जगत् किसी आध्यात्मिक लोक की प्रतिच्छाया है, अतः यह जगत् और इसके पदार्थ मिथ्या हैं, जबकि उनका वास्तविक रूप विचार (Ideas) रूप में अध्यात्म-लोक में विद्यमान है। इस सृष्टि का निर्माण किसी अलौकिक शक्ति या परमात्मा के विचारों (Ideas) के अनुसार हुआ-अतः विचार(idea) ही मूल तत्व है जबकि वस्तु मिथ्या है। प्लेटो के अनुसार इस संसार में जितनी वस्तुएँ हैं, वे सभी विचाररूप (idea के रूप में )में अलौकिक जगत् में विद्यमान हैं।


सांसारिक पदार्थ अपूर्ण, परिवर्तनशील एवं नाशवान् है, अतः वे मिथ्या हैं जबकि अलौकिक जगत में विद्यमान उनका विचार या प्रत्यय अपरिवर्तनीय एवं शाश्वत होने के कारण -सत्य हैं ।

 

इस प्रकार वस्तु की अपेक्षा विचार या तत्व (idea) को ही प्रमुखता देने के कारण ही प्लेटो के विचारों को तत्ववाद या आदर्शवाद (idealism) कहा जाता है ।

 

ध्यान रहे अंग्रेजी का 'आइडियलिज्म' (आदर्शवाद) शब्द भी 'आइडिया' (विचार) से बना है-जो इस तथ्य का सूचक है कि वह वाद पदार्थों की अपेक्षा उनके विचार को अधिक महत्व देता है। आगे चलकर यही 'आदर्शवाद' आध्यात्मिक विचारों, नैतिक सिद्धान्तों एवं उच्च कोटि के मानव-मूल्यों के लिए प्रयुक्त होने लगा।


इस प्रकार, प्लेटो भारतीय अद्वैतवादियों की भाँति जगत् को मिथ्या और विचाररूपी ब्रह्म को सत्य मानते थे। उनकी उस धारणा का प्रभाव उनके राजनीतिक एवं साहित्यिक विचारों पर भी पड़ा, जिसे आगे स्पष्ट किया जायेगा।

 

राजनीतिक विचार - प्लेटो के समय यूनान की राजनीति अत्यन्त अस्त-व्यस्त दशा में थी। स्वयं प्लेटो के नगर में प्रजातंत्रीय व्यवस्था थी, पर वह भी अत्यन्त शोचनीय स्थिति में पहुँच गयी थी। एथेन्स के मूर्खतापूर्ण शासन ने  प्लेटो के गुरु सुकरात के प्राण ले लिये थे जिसकी प्रतिक्रिया प्लेटो के मन में भी अत्यन्त तीव्र रूप में हुई थी।


कदाचित् इसीलिए वह एक ऐसी शासन-प्रणाली का आविष्कार करने के लिए लालायित थे, जिसमें सत्य के पुजारियों को सर्वोपरि स्थान प्राप्त हो। वह तभी संभव है जबकि शासन की सत्ता किसी सत्यवेत्ता विद्वान् एवं सदाचारी कर्मनिष्ठ व्यक्ति के हाथ में रहे। इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने एक ऐसे 'गणराज्य' की कल्पना की जिसका शासक कोई महान् दार्शनिक आचार्य या महात्मा होगा।

 

अपने ग्रन्थ 'दि रिपब्लिक' में प्लेटो ने विस्तार से इसे ही आदर्श गणराज्य की परिकल्पना की है ।


प्लेटो के अनुसार उनके स्वप्नों का शासक न केवल दर्शन, विज्ञान एवं शासन पद्धति में पारंगत होगा, अपितु वह अपने वैयक्तिक एवं चारित्रिक गुणों की दृष्टि से भी सम्पन्न होगा। सम्भव है, सत्ता-प्राप्ति के बाद यह शासक भी स्वार्थी एवं लोभी होकर प्रजा के साथ अन्याय करने लगे- इस सम्भावना को समाप्त करने के लिए प्लेटो ने उसके लिए व्यक्तिगत धन-सम्पत्ति एवं परिवार का निषेध किया।

 

प्लेटो का आदर्श शासक अपने उचित उपयोग के लिए राज्य की सम्पत्ति को काम में ले सकेगा तथा सीमित एवं अस्थायी रूप से किसी स्त्री से यौन सम्पर्क भी स्थापित कर सकेगा, किन्तु वह विवाह करके अपना अलग घर कभी नहीं बसाएगा।


सच पूछें, तो अधिकांश शासकों या मंत्रियों को प्रायः उनके बेटे-बेटियाँ ही अधिक बदनाम करते हैं या यों कहिए कि सन्तान-प्रेम के कारण ही कई बार शासकगण नियमों की अवहेलना कर देते हैं अथवा पक्षपात और सिफारिश का आश्रय ग्रहण करते हैं जिससे शासन में भ्रष्टाचार का बीज-वपन होता है। प्लेटो इस यथार्थ से भली-भाँति परिचित थे-इसीलिए उन्होंने शासक के निजी परिवार एवं सम्पत्ति का सर्वधा निषेध किया है।


प्लेटो का लक्ष्य एक ऐसे राज्य की स्थापना करने का था जिसमें सत्य, न्याय, धर्म और सदाचार की पूर्ण प्रतिष्ठा हो सके। इसके लिए एक ओर शासक में इन सबकी प्रतिष्ठा आवश्यक है, तो दूसरी ओर राज्य की सारी व्यवस्था एवं उसका वातावरण भी उसके अनुकूल होना चाहिए। इस व्यवस्था और वातावरण को अनुकूल या प्रतिकूल बनाने में कला और साहित्य क्या योग दे सकते हैं- इसी दृष्टिकोण से प्लेटो ने इन पर विचार किया है।

 

वस्तुतः कला और साहित्य पर स्वतंत्र एवं निरपेक्ष दृष्टि से विचार करना उनका लक्ष्य नहीं था, अपितु आदर्श गणराज्य की सहयोगिनी शक्तियों के रूप में ही इनकी आलोचना की गयी है, कदाचित् इसीलिए वे इनके साथ पूरा न्याय नहीं कर सके।

 

साहित्य संबंधी दृष्टिकोण - प्लेटो के लिए साहित्य का महत्व उसी सीमा तक था, जहाँ तक वह उसके आदर्श-गण-राज्य के नागरिकों में सत्य, न्याय और सदाचार की भावना की प्रतिष्ठा में सहायक सिद्ध होता है।

 

कला और साहित्य से असीम आनन्द प्राप्त होता है - इस तथ्य को प्लेटो महोदय अस्वीकार नहीं करते, किन्तु वे ऐसे आनन्द को जो उपर्युक्त लक्ष्यों की पूर्ति में बाधक सिद्ध हो, कोई महत्व प्रदान नहीं करते।

 

दूसरे शब्दों में, कला और साहित्य की कसौटी उनके लिए सौन्दर्य या आनन्द न होकर उपयोगिता थी। इतना ही नहीं, स्वयं सौन्दर्य के सम्बन्ध में उनकी धारणा थी कि जो वस्तु उपयोगी है वही सुन्दर है।

 

'एक गोबर से भरी हुई टोकरी भी सुन्दर कही जा सकती है यदि वह अपना कोई उपयोग रखती हो, अन्यथा एक स्वर्णजटित चमचमाती हुई ढाल भी असुन्दर है यदि वह उपयोग की दृष्टि से महत्वशून्य हो।'

 

संक्षेप में उन्होंने शुद्ध उपयोगितावादी दृष्टिकोण से ही साहित्य पर विचार किया। दुर्भाग्य से उस समय का यूनानी साहित्य कामोत्तेजक एवं भावोद्वेलनप्रधान था अतः सामाजिक हित की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध नहीं होता था; फलतः प्लेटो ने साहित्य के विरुद्ध मोर्चा लगाते हुए उस पर अनेक आक्षेप (व्यंग्यपूर्ण दोषारोपण करना) आरोपित किये, जिन पर आगे क्रमशः विचार किया जायेगा।

 

(क) पहला आक्षेप : मिथ्यात्व - प्लेटो ने अपने पूर्वोक्त दार्शनिक सिद्धान्त के अनुसार काव्य या साहित्य को मिथ्या जगत् की मिथ्या अनुकृति सिद्ध किया। उनके विचारानुसार साहित्यकार जिन वस्तुओं या व्यक्तियों अथवा क्रिया-कलापों का वर्णन करता है, वे पहले से ही भौतिक जगत् में विद्यमान हैं - जिनकी अनुकृति वह अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करता है।

 

पर यह अनुकृति भी दो प्रकार की हो सकती है-एक कुर्सी को देखकर कुर्सी बनाना अनुकृति के द्वारा दूसरी अनुकृति प्रस्तुत करना है। यह दूसरे प्रकार की अनुकृति एक प्रकार की मिथ्या एवं भ्रामक अनुकृति है तथा चित्रकार, कवि और कथाकार भी ऐसी मिथ्या अनुकृति प्रस्तुत करते हैं। और इससे भी बुरा यह है कि जिन वस्तुओं की अनुकृति प्रस्तुत करते हैं वे स्वयं मिथ्या हैं, क्योंकि उनका सत्य रूप तो केवल विचार (Idea) रूप में अलौकिक जगत् में ही है। ऐसी स्थिति में कलाकार की स्थिति उस नकलची की सी हो जाती है, जो नकल भी झूठ की कर रहा हो।

 

प्लेटो के विचार से साहित्यकार मिथ्या जगत् की मिथ्या अनुकृति प्रस्तुत करता है और इस प्रकार वह सत्य से तिगुना दूर है या यह कह सकते हैं कि वह तिगुने झूठ का आविष्कार करता है, अतः वह प्रशंसनीय नहीं दंडनीय है।

 

(ख) दूसरा आक्षेप : अमौलिकता एवं अज्ञानता - कवि या चित्रकार वस्तुतः कृति नहीं, अनुकृति एवं प्रतिकृति मात्र प्रस्तुत करता है, अतः उस पर दूसरा आरोप अज्ञानता का आरोपित किया जा सकता है।

एक मोची के कार्य को देखकर जब दूसरा मोची अनुकृति द्वारा जूतों की जोड़ी बनाता है, तो हम उसे अमौलिक तो कह सकते हैं किन्तु अज्ञानी नहीं, क्योंकि वह जब तक जूता बनाने के सारे ज्ञान को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक अनुकृति प्रस्तुत नहीं कर सकता।

 

पर चित्रकार या कवि पर यह बात लागू नहीं होती! चाहे उन्हें इस बात का भी पता न हो कि जूते में जो चमड़ा लगता है, वह कहाँ से आता है या उसमें गाय की खाल का उपयोग होता है या बकरी की खाल का- पर फिर भी वे उसका प्रतिबिम्ब प्रस्तुत कर सकते हैं! ऐसी स्थिति में कवि का ज्ञान मोची के ज्ञान से भी कम होता है! फिर मोची के बनाये जूतों को तो पहनकर आप सड़क पर चल सकते हैं, काँटों से बच सकते हैं, सर्दी-गरमी से बच सकते हैं, पर क्या चित्रकार या कवि के द्वारा प्रतिबिम्बित जूतों से ऐसा कर सकते हैं? उनका क्या उपयोग है! उपयोग न सही, उनसे तो यह भी, पता नहीं चलता कि जूते कैसे बनाये जाते हैं, या कहाँ मिलते हैं!

 

इस प्रकार प्लेटो के अनुसार तो कवि या चित्रकार का महत्व मोची या बढ़ई जितना भी नहीं है! प्लेटो के शब्दों में “एक चित्रकार मोची, बढ़ई या अन्य कारीगर की कला से सर्वथा अनभिज्ञ होते हुए भी उनके कार्यों को इस प्रकार चित्रित कर देगा कि उससे सरल प्रकृति के लोगों अथवा बच्चों के मन में उसके वास्तविक कारीगर होने का भ्रम उत्पन्न हो जायेगा!” इस प्रकार कवि न केवल स्वयं अज्ञानी है, अपितु वह अज्ञान के प्रसार में भी योग देता है।

 

(ग) तीसरा आक्षेप : अनुपयोगिता - कवि या साहित्यकार अनुकृति के बल पर जो रचना प्रस्तुत करता है, वह किसी भी दृष्टि से उपयोगी सिद्ध नहीं होती, अतः प्लेटो के विचार से कलात्मक रचनाएँ, समाज के लिए सर्वथा अनुपयोगी हैं।

 

कवि द्वारा वर्णित विषय से न तो उसकी यथातथ्य जानकारी प्राप्त हो सकती है और न ही उससे हमारे ज्ञान में अभिवृद्धि होती है। और तो और उससे शिक्षा-उपदेश भी प्राप्त नहीं होता।

 

इसलिए प्लेटो ने कवियों को चुनौती देते हुए कहा है कि वे सिद्ध करें कि कविता की समाज के लिए क्या उपयोगिता है।

 

कवियों में सर्वश्रेष्ठ उस युग में होमर माने जाते थे तथा प्लेटो भी उनका कम सम्मान नहीं करते थे,  फिर भी उनकी महानता पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाते हुए प्लेटो ने कहा- “हमें होमर से यह पूछना है क्या Asclepius की भाँति उसने कभी रोगियों को रोग-मुक्त किया है अथवा अपने पीछे अपने द्वारा वर्णित भेषज विद्या तथा अन्य कलाओं की किसी परम्परा को छोड़ा है?

 

इस प्रकार प्लेटो होमर जैसे कवि की अपेक्षा उस व्यक्ति को अधिक महत्व देते हैं,  जो किसी की चिकित्सा करके उसे रोग-मुक्त कर सके, या युद्धों का ज्ञान प्रदान कर सके अथवा राज्य की शासन-प्रणाली में कोई सुधार कर सके।


दूसरे शब्दों में वह कवि में कवि के नहीं, अपितु चिकित्सक, योद्धा, नेता या अध्यापक के गुणों की खोज करते हैं ! उनका यह प्रयास वैसा ही है जैसा कि कोई किसी फिल्म अभिनेत्री से पूछे कि तुम्हें कमीज में बटन टाँकने आते हैं या नहीं- और उसके 'ना' कहने पर उसे सर्वथा घटिया और बदसूरत करार दे दे !

 

(घ) चौथा आक्षेप:  कवि दुर्बलता एवं अनाचार का पोषक - प्लेटो के विचार से कवि न केवल अनुपयोगी एवं महत्वशून्य है, अपितु वह समाज में दुर्बलता एवं अनाचार का पोषण करने का भी अपराध करता है। प्लेटो के विचार से किसी भी समाज और राज्य में सत्य, न्याय और सदाचार की प्रतिष्ठा तभी संभव है, जबकि उसके सभी व्यक्ति अपनी वासनाओं एवं भावनाओं पर पूरा नियंत्रण रखते हुए विवेक-बुद्धि एवं नीति-ज्ञान के अनुसार चलें।

 

 इसके विपरीत कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्तियों की वासनाओं एवं भावनाओं को उद्वेलित कर देता है - ऐसी स्थिति में उसकी भावनाएँ प्रबल हो जाती हैं और बुद्धि का अंकुश ढीला पड़ जाता है। यह स्थिति व्यक्ति को न केवल दुर्बल एवं अशक्त बनाती है, अपितु उसे कुमार्ग की ओर भी अग्रसर करती है!

 

यह ठीक है कि कविता से आनन्द मिलता है - इसे प्लेटो महोदय अस्वीकार नहीं करते, पर ऐसे आनन्द से क्या लाभ जो हममें दुर्बलता एवं दुराचार की प्रवृत्ति का संचार करे! इसीलिए उनकी स्पष्ट घोषणा है कि यदि हम राज्य में सत्य, न्याय और सदाचार की रक्षा करना चाहते हैं तो कविता का बहिष्कार करना होगा। कवियों को राज्य से निकाल देना होगा। उन्हें राज्य में वापस आने की भी छूट दी जा सकती है, बशर्ते कि वे यह सिद्ध कर सकें कि कविता न केवल आनन्ददायक है, अपितु राज्य और मानव-समाज के लिए हितकर भी है।

 

प्लेटो की उपलब्धियाँ


प्लेटो की उपलब्धियों को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर भलीभाँति समझा जा सकता है :

1. पाश्चात्य आलोचना के इतिहास में प्लेटो का स्थान जितना विशिष्ट है उतना ही प्रभावी भी है ।

2. काव्य एवं कला के स्वरूप, प्रयोजन तथा प्रभाव से समबद्ध अनेक विचारों के प्राचीनतम उद्भावक (जन्मदाता) प्लेटो हैं ।

3. प्लेटो की दृष्टि में कला और साहित्य का प्रयोजन एवं मूल्य उसकी सामाजिक उपयोगिता है ।

4. अनुकरण सिद्धान्त की उद्भावना (जन्म देना) का श्रेय प्लेटो को है।

5. प्लेटो ईश्वरीय प्रेरणा को काव्य की रचना प्रक्रिया का अनिवार्य साधन मानते हैं । व्युत्पत्ति, अभ्यास आदि का महत्व उनाकी दृष्टि में नितांत गौण है । 

6. विरेचन सिद्धान्त के संकेत भी उनके कथनों में विद्यमान है ।

7. साहित्य में काव्यग्त न्याय (Poetic Justice) के सिद्धान्त के प्रतिष्ठाता (प्रतिष्ठा दिलाने वाले) प्लेटो हैं ।

8. प्लेटो की तार्किकता प्रखर, अभिव्यंजना प्रांजल तथा शैली आकर्षक है ।

 

प्लेटो के दोष

1. प्लेटो ने काव्य को हृदय का व्यापार नहीं माना, भाव एवं कल्पना के स्थान पर अनुकरण को महत्व दिया ।

2. प्लेटो कला में निहित सर्जनशीलता को नहीं समझ पाए ।

3. प्लेटो ने कला को कला की दृष्टि से न देखकर समाज कल्याण की दृष्टि से परखा है । उन्होंने कला में सुंदर से अधिक शिव पर बल दिया है जो सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि नहीं है ।

4. प्लेटो ने दर्शन और काव्य के शाश्वत विरोध की बात कही है, जबकि दर्शन और काव्यालोचन एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं ।

5. प्लेटो के कलाविषयक विवेचन में पर्याप्त पुनरूक्ति है।

 

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