हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास | Hindi Alochana ka Udbhav aur Vikas

हिंदी में ‘आलोचना’ शब्द अंग्रेजी के ‘क्रिटिसिज़्म’ (Criticism) का पर्याय है जिसका अर्थ है ‘मूल्यांकन’ अथवा ‘निर्णय करना’। अर्थात् किसी वस्तु या कृति की सम्यक व्याख्या अथवा मूल्यांकन आदि करना ही आलोचना है । आलोचना को समीक्षा भी कहा जाता है। समीक्षा का अर्थ है ‘सम्यक निरीक्षण’। वस्तुत: पहले सर्जनात्मक साहित्य प्रकाश में आता है तत्पश्चात् उसकी आलोचना की आवश्यकता का अनुभव किया जाता है ।आज हिंदी आलोचना का क्षेत्र-विस्तार हो जाने के परिणामस्वरूप इसके लिए ‘समीक्षा’, ‘आलोचना’, ‘समालोचना’ जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया जाता।

हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास | Hindi Alochana ka Udbhav aur Vikas

बाबू गुलाबराय के अनुसार आलोचना का अर्थ है-  आलोचना का मूल उद्देश्य कवि की कृति का सभी दृष्टिकोणों से आस्वादकर पाठकों को उस प्रकार के      आस्वाद में सहायता देना तथा उनकी रुचि को परिमार्जित करना एवं साहित्य की गति निर्धारित करने में योग देना है |”

इस तरह आलोचना, साहित्य कीव्याख्या करती है, उसके गुण-दोष बताती है, उसके निर्माण की दिशा निर्धारित करती है।

हिंदी आलोचना का इतिहास रीतिकाल से थोड़ा पहलेशुरू होता है। रीतिकाल का रीतिबद्ध साहित्य रीतिवादी आलोचना से प्रभावित है और लक्षणों के उदाहरण रूप में रचा गया है। दरअसल, उस समय विवेचनागद्य में नहीं पद्य में की जाती थी। यह माध्यम विवेचन-विश्लेषण के लिए उतना उपयुक्त नहीं था। साहित्य को देखने समझने की दृष्टि बदली तो उसके मूल्यांकन की कसौटी भी
बदलती गई।
 

आलोचना में जो युगांतर आया, उसे प्रमुखतः तीन युगों में हम बांट सकते हैं- शुक्ल पूर्व युग, शुक्ल युग और शुक्लोत्तर युग।

हिंदी आलोचना के विकास के विभिन्न चरण

Hindi Alochana ka Udbhav aur Vikas   हिंदी आलोचना का प्रारंभ भी गद्य की अन्य विधाओं के साथ ही साथ भारतेन्दु युग यानी आधुनिक युग से हुआ है। इस युग में मुद्रण कला का विकास हुआ, राजनीतिक जागृति आई और पत्र-पत्रिकाओं का लगातार प्रकाशन हुआ।

अंग्रेजी साहित्य के सम्पर्क से लोगों को नई-नई जानकारियाँ मिलीं। स्कूल-कालेजों में हिंदी पढ़ाई जाने लगी। अध्यापकों को साहित्य सृजन की नवीन प्रेरणा मिली जिसके फलस्वरूप गद्य में पुस्तकें लिखी जाने लगीं। इस प्रकार धीरे-धीरे गद्य की तमाम विधाओं का विकास हुआ। गद्य का विकास भी आधुनिक आलोचना के उद्भव और विकास का सहायक कारण बना। आलोचना के विकास में पाश्चात्य साहित्य और बौद्धिक जागृति प्रधान कारण थे।

 

 

उस समय एक-एक विषय पर इतनी पुस्तकें प्रकाशित हो रही थीं कि सबको पढ़ना संभव न था । अतः पाठक अच्छी पुस्तकों की उपादेयता को आँकने लगा। इसी से उसमें आलोचना की प्रवृत्ति पैदा हो गई।

हिंदी साहित्य को युगीन परिस्थितियों ने नए आयाम और नए संदर्भ दिए, फलतः आलोचना के पुराने मानदंड अपर्याप्त दिखायी देने लगे और पाश्चात्य समीक्षा साहित्य से प्रेरणा प्राप्त करके हिंदी आलोचना ने नए युग में प्रवेश किया।

आलोचना के प्रारंभिक काल में निंदा-स्तुति की अधिकता रही। भारतेन्दु काल की आलोचना में भी यही हुआ। इस युग के बाद पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रयत्नों से हिंदी आलोचना का स्वरूप कुछ और अधिक व्यवस्थित और सुनियोजित हुआ। हिंदी आलोचना में विश्लेषण और मूल्यांकन की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी आलोचना को शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया। इसलिए हिंदी आलोचना के विकास के केंद्र में
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को मानते हुए हम उसे तीन युगों में बाँट सकते हैं-

1) शुक्ल पूर्व हिंदी आलोचना (1850 से 1920 ई.)

 2) शुक्ल युगीन हिंदी आलोचना (1920 से 1940 ई.)

  3) शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना (1940 से आज तक)

 शुक्ल पूर्व हिंदी आलोचना   

 शुक्ल पूर्व हिंदी आलोचना के विकास को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है :

1.1 भारतेन्दु पूर्व हिंदी आलोचना 

1.2 भारतेन्दु युगीन हिंदी आलोचना

1.3 द्विवेदी युगीन हिंदी आलोचना

भारतेन्दु पूर्व हिंदी आलोचना

इस समय आलोचना की दो विशिष्ट धाराओं को देखा जा सकता है – 

 अलंकारवादी

  रसवादी

अलंकारवादी धारा के प्रवर्त्तक केशवदास है तो रसवादी धारा के प्रवर्तक देव, मतिराम और बिहारी।

भारतेन्दु पूर्व हिंदी आलोचकों (काव्य-शास्त्रीय विवेचकों) के रूप में – आचार्य केशवदास, चिंतामणि, कृपाराम, पद्माकर, भिखारीदास, देव, घनानंद, मतिराम, बिहारी आदि प्रमुख हैं ।

 भारतेन्दु युगीन हिंदी आलोचना

भारतेन्दु युग के मुख्य आलोचक हैं- भारतेन्दु हरिशचन्द्र, बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन और बालकृष्ण भट्ट इत्यादि।

 द्विवेदी युगीन हिंदी आलोचना

 द्विवेदी युग में हिंदी आलोचना के पाँच रूप मिलते हैं-

  1.      शास्त्रीय आलोचना
  2.     तुलनात्मक आलोचना
  3.     अनुसंधानपरक आलोचना
  4.     परिचयात्मक आलोचना
  5.     व्याख्यात्मक

द्विवेदी युग के मुख्य आलोचक हैं : आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, जगन्नाथ प्रसाद भानु, लाला भगवानदीन, पं.पद्मससिंह शर्मा, मिश्र बंधु, कृष्ण बिहारी
मिश्र
, श्यामदास, जगन्नाथदास रत्नाकर, सुधाकर द्विवेदी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी इत्यादि।
   

शुक्ल युगीन हिंदी आलोचना

वास्तव में हिंदी आलोचना का पूर्ण रूप शुक्ल युग में ही निखर पाया और इसका श्रेय इस युग के प्रमुख आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल  को है। इस युग में समीक्षा के लिए जो मानदंड और शैली अपनाई गई उनमें प्रमुख हैं-

  1.            सुरुचि और नैतिकता
  2.            शास्त्रीयता
  3.            कवि के व्यक्तित्व का अध्ययन
  4.            तुलना और निर्णय
  5.            देशकाल की समीक्षा

शुक्ल युग के प्रमुख आलोचक हैं : बाबू गुलाबराय, बाबू श्यामसुंदर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, लक्ष्मीनारायण सुधांशु’, विश्वनाथ प्रसाद, मिश्र, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, डॉ. रामकुमार वर्मा आदि।

शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना

शुक्लोत्तर युग में आलोचना अनेक धाराओं में विकसित हुई:

 3.1   स्वच्छंदतावादी समीक्षा

 3.2  ऐतिहासिक समीक्षा

  3.3  मनोविश्लेषणात्मक समीक्षा

  3.4 मार्क्सवादी आलोचना

     3.5 नयी समीक्षा

 स्वच्छंदतावादी समीक्षा

स्वच्छंदतावादी समीक्षा पद्धति के प्रतिनिधि आलोचक हैं- पं.नंददुलारे वाजपेयी, डॉ.नगेन्द्र और पं.शांतिप्रिय द्विवेदी । छायावाद के मूल्यांकन के प्रश्न पर इन आलोचकों ने आचार्य शुक्ल का विरोध किया था।

ऐतिहासिक समीक्षा

ऐतिहासिक समीक्षकों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और पदुमलाल पन्नालाल बक्शी प्रमुख हैं ।

 मार्क्सवादी समीक्षा

मार्क्सवादी आलोचकों में शिवदान सिंह चौहान, प्रकाशचंद्र गुप्त और डॉ. रामविलास शर्मा अग्रणी हैं।

मनोविश्लेषणात्मक समीक्षा   

मनोविश्लेषणवादी समीक्षा के क्षेत्र में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय’, इलाचंद्र जोशी और देवराज उपाध्याय के नाम उल्लेखनीय है।

 नयी समीक्षा

इस समीक्षा के अंतर्गत सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय’, गिरिजा कुमार माथुर, शमशेर बहादुर सिंह, धर्मवीर भारती, नलिन विलोचन शर्मा, नेमिचंद्र जैन, लक्ष्मीकांत वर्मा इत्यादि प्रमुख हैं ।

इन तमाम आलोचकों के साथ-साथ कई अन्य आलोचक भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं- डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ.विजयदेव नारायण साही, डॉ.शंभुनाथ सिंह, डॉ.बच्चन सिंह, डॉ. शिवप्रसाद सिंह, डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, डॉ.देवीशंकर अवस्थी, डॉ.इंद्रनाथ मदान, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, डॉ. रमेश कुंतल मेघ आदि। इन नए आलोचकों द्वारा हिंदी आलोचना में साहित्य को जांचने परखने के लिए नए मूल्य विकसित हुए विश्लेषण की नयी प्रणाली बनी, नयी भाषा का विकास हुआ।  

निष्कर्ष

इस प्रकार ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में हिंदी-आलोचना के क्रमिक विकास का व्यवस्थित रूप से अध्ययन किया जा सकता है।
भारतेन्दु युग की तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों से लोगों में जागृति आई। मुद्रण कला के विकास से अनेक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगी।
विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाने लगी। पाश्चात्य साहित्य का भी प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप अन्य गद्य विधाओं के साथ आलोचना की भी शुरूआत आधुनिक युग यानी भारतेंदु युग से हुई।

भारतेंदु युग में आलोचना केवल गुण-दोष विवेचन तक ही सीमित रही लेकिन द्विवेदी युग से हिंदी आलोचना में अधिक तर्कशक्ति और विचार
क्षमता में प्रवेश किया। हिंदी आलोचना को वैज्ञानिक आधार शुक्ल युग में ही मिला।

उसमें विश्लेषण की प्रवृत्ति भी आई। इस तरह आपने देखा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल का हिंदी आलोचना के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। यही कारण है कि हमने हिंदी आलोचना का विकास केंद्र आचार्य रामचंद्र शुक्ल को मानते हुए उसे तीन युगों में बाँटा:

  1.  शुक्ल पूर्व हिंदी आलोचना
  2.  शुक्लयुगीन हिंदी आलोचना
  3.  शुक्लोत्तर  हिंदी आलोचना

शुक्लोत्तर युग में समीक्षा की अनेक नयी पद्धतियों अपनाई जाने लगीं। क्योंकि युगीन साहित्य को समझने के लिए आलोचना के पुराने मानदंड काफी नहीं थे। इन पद्धतियों में प्रमुख है स्वच्छंदतावादी, ऐतिहासिक, मार्क्सवादी, मनोविश्लेषणात्मक और नयी आलोचना । हिंदी साहित्य के विकास के साथ-साथ आलोचना के मूल्यांकन में भी प्रगतिशील परिवर्तन हुए हैं, किंतु अभी आलोचना को विभिन्न नए आयामों की आवश्यकता है।

Leave a Comment

error: Content is protected !!