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वक्रोक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तन का श्रेय आचार्य कुन्तक को है। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘वक्रोक्ति जीवित‘ में वक्रोक्ति को काव्य का अनिवार्य तत्व स्वीकार करते हुए इसे काव्य की आत्मा कहा। काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति शब्द का प्रयोग कुन्तक से पहले भी उपलब्ध होता है, पर यह उस अर्थ में नहीं मिलता, जिस अर्थ में कुन्तक ने इसका प्रयोग किया है। आइये अब आचार्य kuntak ka vakrokti siddhant को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं ।
वक्रोक्ति का अर्थ
वक्रोक्ति शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – वक्र + उक्ति । वक्र का अर्थ है— कुटिल या विलक्षण और उक्ति का अर्थ है — कथन । अतः वक्रोक्ति से अभिप्राय है – बांकपन या विलक्षणता से भरा हुआ कथन ।
किसी बात को सामान्य ढंग से व्यक्त करने में सरसता नहीं आती, अतः उसे चमत्कारिक ढंग से या विलक्षणता से कहना ही वक्रोक्ति है। भावों की अभिव्यक्ति के लिए कवि सामान्य मनुष्यों द्वारा अपनाए गए मार्गों से भिन्न विलक्षणता या वक्रता का आश्रय लेता है । कथन की यह विलक्षण भंगिमा ही वक्रोक्ति है।
वक्रोक्ति का इतिहास
काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति का प्रयोग प्रारम्भ से ही होता रहा है। भामह, दण्डी आदि अलंकारवादी आचार्यों ने वक्रोक्ति का निरूपण करने का प्रयास किया है।
आचार्य भामह का विचार
आचार्य भामह वक्रोक्ति को अतिशयोक्ति का पर्यायवाची स्वीकार करते हैं। उन्होंने सभी अलंकारों के मूल में वक्रोक्ति को ही स्वीकार किया हैं ।
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते ।
यत्नो अस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया बिना।
इस प्रकार आचार्य भामह ने वक्रोक्ति को व्यापक अर्थ में ग्रहण किया और सभी अलंकारों के मूल में इस वक्रोक्ति को ही स्वीकार किया।
वक्रोक्ति की परिभाषा उन्होंने निम्न शब्दों में दी : ‘लोकातिक्रान्तगोचरं वचनम्‘
अर्थात् ‘लोक की साधारण कथन प्रणाली से भिन्न उक्ति ही वक्रोक्ति है’।
भामह अलंकारवादी आचार्य थे और अलंकार को काव्य का मूल तत्व स्वीकार करते थे तथा इन अलंकारों में वक्रोक्ति की अनिवार्यता भी मानते थे। उनका मत था कि वक्रोक्ति रहित वाक्य काव्य न रहकर वार्ता मात्र रह जाता है।
आचार्य दण्डी का विचार
आचार्य दण्डी ने काव्य को दो भागों में विभक्त किया है— (1) स्वभावोक्ति और (2) वक्रोक्ति।
वक्रोक्ति को वे अर्थालंकारों का सामूहिक रूप मानते हैं और श्लेष इस वक्रोक्ति के सौन्दर्य में वृद्धि करता है।
आचार्य वामन का विचार
आगे चलकर वक्रोक्ति की सीमा संकुचित होती गई और आचार्य वामन ने वक्रोक्ति को एक-दूसरे ही रूप में स्वीकार किया।
उन्होंने वक्रोक्ति को अर्थालंकारों में से एक विशेष अलंकार माना है और इसकी निम्न परिभाषा दी है : “सादृश्यात् लक्षणा वक्रोक्तिः।”
अर्थात् सादृश्य पर आश्रित लक्षणा (गौणी लक्षणा) वक्रोक्ति है, पर वामन के मत को परवर्ती आचार्यों ने स्वीकार नहीं किया।
अलंकारवादी आचार्यों ने इसे एक अलंकार विशेष ही माना और इस प्रकार इसे संकुचित अर्थ ही प्रदान किया।
आचार्य रुद्रट का विचार
आचार्य रुद्रट ने वक्रोक्ति को एक अलंकार मानकर इसके दो भेद किए – (1) काकु वक्रोक्ति (2) श्लेष वक्रोक्ति ।
ध्वनिवादी आचार्य, आनन्दवर्धन और अभिनवगुप्त ने वक्रोक्ति को पुनः महत्व प्रदान किया और इसे समग्र अलंकारों का मूल तत्व स्वीकार
किया। संक्षेप में कुन्तक से पहले वक्रोक्ति का यही स्वरूप था ।
आचार्य कुन्तक द्वारा वक्रोक्ति विवेचन
आचार्य कुन्तक ने अपने ग्रन्थ ‘वक्रोक्ति जीवित‘ में वक्रोक्ति के स्वरूप और महत्व की विशद व्याख्या की है और इसे काव्य का प्राण तत्व स्वीकार करते हुए लिखा : “वक्रोक्तिः काव्य जीवितम्”
अर्थात् वक्रोक्ति काव्य की आत्मा है।
वक्रोक्ति की परिभाषा करते हुए वे कहते हैं— ‘वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभंगी भणितिरुच्यते।‘ अर्थात् वैदग्ध्यपूर्ण विचित्र उक्ति ही वक्रोक्ति है ।
वैदग्ध्य का अर्थ है— विलक्षणता, भंगी का तात्पर्य है-भंगिमा और भणिति का अर्थ है— कथन ।
इस प्रकार वक्रोक्ति का अर्थ हुआ— कथन की वह भंगिमा, जो विलक्षणता से युक्त हो।
कुन्तक ने वक्रोक्ति के लिए काव्य में तीन बातों की आवश्यकता मानी है – 1. कवि कौशल, 2. चमत्कार, 3. उक्ति ।
कुन्तक के वक्रोक्ति विवेचन में निम्न तथ्य उल्लेखनीय हैं :
1. वक्रोक्ति एक कथन प्रणाली या प्रतिपादन पद्धति है। वह अलंकार्य न होकर अलंकार है, किन्तु इतनी महत्वपूर्ण है कि उसे काव्यात्मा पद पर कुन्तक ने प्रतिष्ठित किया है।
2. प्रसिद्ध कथन प्रणाली से भिन्न कथन प्रणाली वक्रोक्ति का आधारभूत तत्व है। लोक एवं शास्त्र से भिन्न कथन पद्धति ही वक्रोक्ति है।
3. काव्यगत चारुता, चमत्कार, वक्रता, विदग्धता, शोभा और विच्छिति का मूल आधार कुन्तक वक्रोक्ति को मानते हैं। यह कवि कौशल पर निर्भर है।
4. वक्रोक्ति शब्द क्रीड़ा या निकृष्ट काव्य कौतुक न होकर सहृदयों को आनन्दित करने वाला कवि कौशल है – इस बात पर कुन्तक ने अत्यधिक बल दिया है।
वक्रोक्ति का सौन्दर्य शब्द और अर्थ दोनों में निहित होता है अर्थात् उक्ति की विचित्रता शब्द में भी होती है और अर्थ में भी इसका तात्पर्य यह हुआ कि शब्द और अर्थ अलंकार्य होते हैं और उनको अलंकृत करने वाला तत्व वक्रोक्ति है।
वक्रोक्ति के भेद
आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति के छ: भेद माने हैं :
- 1. वर्ण विन्यास वक्रता
- 2. पद-पूर्वार्द्ध वक्रता
- 3. पद-परार्द्ध वक्रता
- 4. वाक्य वक्रता
- 5. प्रकरण वक्रता
- 6. प्रबन्ध वक्रता ।
वर्ण विन्यास वक्रता
व्यंजन वर्णों की ऐसी व्यवस्था एवं विन्यास जिससे सौन्दर्य का विधान हो, वर्ण-विन्यास वक्रता कहलाती है। यमक और अनुप्रास अलंकार इसी के अन्तर्गत आते हैं। वर्णों की कर्णप्रियता एवं बार-बार आवृत्ति भी इसी वक्रता का परिणाम है। यथा—
तरणि के संग तरल तरंग में,
तरणि डूबी थी हमारी ताल में ।
तरणि के दो अर्थ हैं— सूर्य, नौका।
पद-पूर्वार्द्ध वक्रता
पद से तात्पर्य सविभक्तिक शब्द से है। पद के दो भाग किए जा सकते हैं— (i) प्रकृति (ii) प्रत्यय।
प्रकृति पद का पूर्वार्द्ध होती है और प्रत्यय पद का परार्द्ध । वह वक्रता, जो पद के पूर्वार्द्ध (अर्थात् प्रकृति) पर आधारित होती है, पद पूर्वार्द्ध वक्रता कहलाती है इसे प्रकृति वक्रता भी कहते हैं।
कुन्तक ने इसके नौ भेद माने हैं। यह वक्रता लिंग, क्रिया, भाव, वृत्ति, विशेषण, उपचार आदि पर आधारित होती है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है :
मधु पवन क्रीड़ित ज्यों शिशु साल सुशोभित हो सौरभ संयुक्त।
कामायनी की इन पंक्तियों में प्रसादजी ने ‘शिशु साल’ कहकर श्रद्धा के लम्बे-छरहरे वदन को व्यक्त किया है। उपमान साल में जुड़ा विशेषण शिशु ‘विशेषण वक्रता‘ है।
पद-परार्द्ध वक्रता
पद के परार्द्ध में ‘प्रत्यय‘ रहता है यह वक्रता इसी भाग में स्थापित की जाती है। इसे प्रत्यय वक्रता भी कहते हैं। इसके आठ भेद होते हैं— (1) काल वैचित्र्य वक्रता, (2) कारक वक्रता, (3) संख्या वक्रता, (4) पुरुष वक्रता, (5) उपग्रह वक्रता, (6) प्रत्यय वक्रता, (7) उपसर्ग वक्रता, (8) निपात वक्रता।
एक उदाहरण द्रष्टव्य है : तेरा अधर विचुम्बित प्याला।
यहां ‘वि‘ उपसर्ग का प्रयोग करके भाव को प्रगाढ़ बना दिया गया है ।
वाक्य वक्रता
वाक्य वक्रता को वस्तु वक्रता या वाच्य वक्रता भी कहते हैं। यह कवि की प्रतिभा पर आश्रित होती है। अतः यह वक्रता भी विविध रूप में पाई जाती है।
आचार्य कुन्तक ने इसके अन्तर्गत अलंकारों का विवेचन किया है। अलंकारों में वे चारुत्व के अतिरिक्त वैचित्र्य और कवि प्रतिभा को भी विशेष महत्व देते हैं। यथा-
पति सेवारत सांझ
उझकता देख पराया चांद
लजाकर ओट हो गई।
यहां संध्या में पतिपरायणा स्त्री, सूर्य में पति तथा चन्द्र में पाप बुद्धि वाले पर पुरुष का आरोप करते हुए
विषय को रमणीय बना दिया गया है।
प्रकरण वक्रता
वाक्यों के संयोग से प्रकरण बनता है। एक प्रबन्ध काव्य में अनेक प्रकरण होते हैं। इन प्रकरणों या प्रसंगों को औचित्यपूर्ण तथा प्रभावशाली बनाना ही प्रकरण वक्रता का प्रयोजन है। अनेक लालित्यपूर्ण और सरस प्रसंगों से प्रकरण में सौन्दर्य का समावेश किया जाता है। यह वक्रता भी कवि की कुशलता पर निर्भर है। इसके नौ भेद बताए गए हैं।
प्रबन्ध वक्रता
जब सम्पूर्ण प्रबन्ध में वक्रता होती है, तब उसे प्रबन्ध वक्रता कहते हैं। प्रबन्ध वक्रता के अन्तर्गत प्रबन्धात्मक काव्य रूपों का वस्तु कौशल अपेक्षित होता है। प्रबन्ध का योग सर्वाधिक व्यापक है और सभी प्रकार की वक्रताओं का सहयोग इसमें अपेक्षित होता है। कुन्तक ने इसके छः भेद किए हैं।
वक्रोक्ति सिद्धान्त और अभिव्यञ्जनावाद
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पाश्चात्य अभिव्यञ्जनावाद को भारतीय वक्रोक्ति सिद्धान्त का विलायती उत्थान बताया है।
पाश्चात्य समीक्षाशास्त्र में अभिव्यंजनावाद पर विचार करने का श्रेय इटली के विद्वान् ‘क्रोचे‘ (Croce) को है। क्रोचे की मान्यता थी कि कला का सम्बन्ध स्वयं प्रकाश ज्ञान (Intuition) से है, जबकि कुन्तक शास्त्रीय ज्ञान को भी कला से सम्बन्धित मानते हैं।
क्रोचे ने उक्ति की सहजता और स्वाभाविकता में काव्य का सौन्दर्य माना है, जबकि कुन्तक वक्रता या विचित्रता को ही सौन्दर्य का मूल आधार स्वीकार करते हैं ।
क्रोचे ने मानसिक अभिव्यञ्जना को प्रमुख माना है तथा वाच्य अभिव्यक्ति उनके लिए गौण है। जबकि कुन्तक ने वाच्य (शाब्दिक) अभिव्यक्ति की ही चर्चा की है । वे क्रोचे की तरह मानसिक अभिव्यक्ति की कल्पना नहीं करते ।
इसके अतिरिक्त इन दोनों सिद्धान्तों में एक बहुत बड़ा अन्तर यह भी है कि क्रोचे केवल कवि की आत्म तुष्टि को काव्य का लक्ष्य मानते हैं, जो मानसिक अभिव्यक्ति से पूरा हो जाता है। जबकि कुन्तक इसके स्थान पर सहृदय के मन को प्रसन्नता प्रदान करना काव्य का लक्ष्य स्वीकार करते हैं।
यही कारण है कि डॉ.गणपति चन्द्र गुप्त ने वक्रोक्ति सिद्धान्त और अभिव्यञ्जनावाद को अलग-अलग माना है और वे इस सम्बन्ध में शुक्ल जी के मत से सहमत नहीं हैं।
आगे चलकर डॉ. नगेन्द्र ने अभिव्यञ्जनावाद और वक्रोक्तिवाद में कुछ साम्य भी खोजा है, जो निम्नलिखित है :
1. दोनों सिद्धान्त अभिव्यंजना को ही काव्य का प्राण तत्व मानते हैं।
2. दोनों ने काव्य में कल्पना तत्व को प्रमुखता दी है।
3. दोनों ही मूलतः उक्ति को अखण्ड, अविभाज्य और अद्वितीय मानते हैं।
4. दोनों ने ही अलंकार और अलंकार्य का भेद नहीं माना है।
5. दोनों ही सफल अभिव्यञ्जना अथवा सौन्दर्य अभिव्यञ्जना में श्रेणियां स्वीकार नहीं करते।
निष्कर्ष
यद्यपि वक्रोक्ति सिद्धान्त का अधिक प्रचार काव्यशास्त्र में न हो सका, फिर भी इसका महत्व कम नहीं है। वक्रोक्ति में व्यापक रूप में रीति, अलंकार, ध्वनि, रस आदि सभी पूर्व प्रचलित सिद्धान्तों का थोड़ा बहुत समन्वय हो जाता है। वक्रोक्ति के विभिन्न भेदों पर दृष्टिपात करने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कवि कौशल और काव्य-सौन्दर्य दोनों ही वक्रोक्ति में समाहित हैं।
वस्तुतः इस सिद्धान्त को अधिक मान्यता इसलिए नहीं मिली क्योंकि यह काव्य के मूल विषय की वैसी व्याख्या प्रस्तुत नहीं करता, जैसी कि रस सिद्धान्त करता है।
दूसरे यह सिद्धान्त किंचित् बाद में सामने आया। इससे पहले रस, अलंकार, ध्वनि, रीति, आदि पर विचार किया जा चुका था और काव्यशास्त्र में इनकी पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी। अतः नए सिद्धान्त को स्वीकार करने में लोगों ने अरुचि दिखाई।
तीसरा कारण यह भी है कि वक्रोक्ति के भेदोपभेदों का वर्गीकरण अस्पष्ट एवं जटिल हो गया है, अतः यह सिद्धान्त लोकप्रियता प्राप्त न कर सका।
कुछ भी हो, इतना तो कहा ही जा सकता है कि वक्रोक्ति सिद्धान्त आचार्य कुन्तक की अद्भुत प्रतिभा, व्यापक दृष्टि एवं व्यवस्थित चिन्तन से उद्भूत एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।

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