सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की काव्यगत विशेषताएँ | Suryakant Tripathi ‘Nirala’ Ki Kavyagat Visheshtaen

1918 से 1936 तक 18 वर्षों का समय छायावाद युग है । दो महायुद्धों के बीच की हिंदी कविता के रूप में छायावाद का अध्ययन किया जा सकता है । सूर्यकांत त्रिपाठी निराला भी छायावादी कवि हैं । उनकी काव्यगत विशेषताओं को उनकी कविताओं का अध्ययन करके ही समझा जा सकता है। आइये अब nirala ki kavyagay visheshata को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं । 

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की काव्यगत विशेषताएँ | Suryakant Tripathi 'Nirala' Ki Kavyagat Visheshtaen
nirala ki kavyagat visheshta

  राम की शक्ति पूजा और सरोज स्मृतिस्वभाव से भिन्न होते हुए भी छायावादी भावबोध की कविताएं थी । कुकुरमुत्ता छायावाद की परिधि से बाहर की कविता है। यह भी कहा जा सकता है कि वह छायावाद से मोहभंग की कविता है। निराला Suryakant Tripathi ‘Nirala‘ छायावाद के कवि होते हुए भी उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं। वे छायावाद के भीतर ही छायावाद के एक नए मिजाज का निर्माण करते हैं।

निराला Suryakant Tripathi ‘Nirala’ की काव्य यात्रा अंतर्विरोधों से भरी हुई है। निराला की कविता तलाश की कविता है।  निराला की कविता की प्रकृति उस बेताल की है जो हर बार नई कहानी कहता है और नए प्रश्न पूछता है।

निराला की कविता अंतर्विरोधों से युक्त होती है क्योंकि अंतर्विरोधों से मुक्त समाज पशुओं का समाज होता है, मनुष्यों का समाज नहीं।  एक तरफ निराला में यथार्थ की क्रूरतम परिस्थितियां हैं तो दूसरी तरफ उनमें आस्था और प्रार्थना के विलक्षण स्वर सुनाई देते हैं।

प्रगतिवाद में यथार्थ इकहरा है इसलिए सैद्धांतिक है।  यथार्थ हो या आस्था,  अगर उनमें इकहरापन है तो वे निर्जीव होंगे । यह अंतर्विरोध ही निराला की कविता को एक नयी पहचान और नयी अर्थवत्ता देता है।  इसलिए प्रार्थना और यथार्थ या विद्रोह दोनों एक साथ उनकी कविता में दिखाई देते हैं ।   

लेकिन इसके साथ-साथ उनकी कविता में क्रांति और संघर्ष की चेतना भी सर्वत्र विद्यमान है।  बादल राग में वे लिखते हैं : 

“उथल-पुथल कर हृदय, मचा हलचलचल रे चल मेरे पागल बादल।”

 पूरी तरह से उथल-पुथल मचा देने का आह्वान बादल से किया गया है।

 ‘वह तोड़ती पत्थर कविता व्यवस्था पर प्रहार की कविता है: 

“वह तोड़ती पत्थर, 

देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर, 

वह तोड़ती पत्थर। 

कोई न छायादार, 

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार, 

श्याम तन, भर बँधा यौवन, 

नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन, 

गुरु हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार 

सामने तरुमालिका अट्टालिका प्राकार।”

 दूसरा अंतर्विरोध पराजय-बोध एवं आस्था की दृढ़ता के बीच है । निराला पराजय-बोध के कवि हैं।  यह पराजय-बोध एक अमानवीय तंत्र में अपनी ईमानदारी के बोध से उत्पन्न हुआ है।  

निराला में कई बार कई स्तरों पर इस पराजय-बोध की ध्वनि सुनाई पड़ती है।  “हो गया व्यर्थ जीवन, मैं रण में हार गया।” व्यर्थता का यह बोध निराला में एक गहरे अवसाद की सृष्टि करता है।

शोक-गीत हिंदी में तो कम लिखे गए । यूरोप की भाषाओं में ऐसा शायद ही प्रभावशाली गीत हो जिसे कवि पिता ने अपनी पुत्री के निधन
पर लिखा हो। ‘सरोज स्मृति’ निराला 
Suryakant Tripathi ‘Nirala‘ का शोक गीत है जिसमें निराला ने अपने मन के अंतर्द्वंद्व को जीवन-संघर्ष की  सफलता-असफलता को अपने इन शब्दों में व्यक्त किया है : 

“कन्ये, मैं पिता निरर्थक था  कुछ भी तेरे हित  कर न सका।”

बहुत सीधे-साढ़े ढंग से निराला ने अपने मन की ग्लानि को अभिव्यक्त किया है । यह पराजय-बोध सरोज स्मृति में “दु:ख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज जो नहीं कही। के रूप में व्यक्त हुआ है।

राम की शक्ति पूजा में भी इस पराजय-बोध, अवसाद और धिक्कार भावना को देखा जा सकता है: 

“धिक् जीवन को जो पाता आया ही विरोध 

धिक् साधन जिसके लिए किया हो सदा शोध 

जानकी ! हाय,  उद्धार प्रिया का हो न सका।”

लेकिन दूसरी तरफ इसी पराजय-बोध की कालरात्रि के भीतर से निराला आस्था के सूर्य का संधान करते हैं ।

वस्तुतः रचनात्मक अनास्था के कोहरे के बीच एक ज्योति की तलाश है।  निराला के यहाँ प्रतीकों के स्तर पर एक दिशाव्यापी अंधकार है, लेकिन उसके साथ एक मशाल भी है।  यह मशाल उम्मीदों की है, संभावनाओं की है, आस्था की है । राम पराजित हैं, राम के मन  में ग्लानि है किन्तु राम के एक मन और  है जो पराजित होना नहीं जानता- 

“वह रहा एक मन और राम का जो न थका।”

‘राम की शक्ति-पूजा’ में दो कविताओं का सारतत्व है – ‘तुलसीदास’र ‘सरोज-स्मृति’ का और इनके अलावा उसमें नयी सामग्री है – एक पराजित मन और दूसरे अपराजित मन के अस्तित्व की अनुभूति।

अपने गीतों में भी निराला देह की जर्जरता और गहन अकेलेपन के साथ फूलों और वसंत की चर्चा करते हैं।

 वे लिखते हैं :  “दुखता रहता है अब जीवन,  जैसे पतझड़ का वन उपवन।”  

वहीं निराला कह सकते हैं:  “मैं ही वसंत का अग्रदूत हूँ।”  मेरी इच्छाओं की लहरों पर चढ़कर धरती पर वसंत उतरता है। मैं चाहता हूँ कि वसंत हो तो फूल खिलें ।

प्रगतिवाद में इतने ढोल धमाके के बावजूद, क्रांति के नारे के बावजूद कविता कहीं पराई लगती है।  लेकिन निराला Suryakant Tripathi ‘Nirala‘ की कविता आश्वस्त करती है।  वह जिंदगी से हमें परिचित कराती है,  हमारी संवेदना की परिधि को विस्तृत करती है। 

दूसरा पक्ष है सौंदर्य बोध।

 निराला Suryakant Tripathi ‘Nirala‘ को सौन्दर्य का कवि भी कहा गया है।  समूची छायावादी कविता सौन्दर्य से साक्षात्कार की कविता है।  लेकिन निराला के यहाँ सौंदर्य की प्रकृति थोड़ी सी भिन्न है ।

निराला में सौन्दर्य तनाव की फलश्रुति है । वह जीवन के दु:ख और संघर्ष से सामना करने की उर्जा है । निराला की दो प्रतिनिधि कविताओं- सरोज स्मृति और राम की शक्ति पूजा में सौन्दर्य की चर्चा है।  जैसे मृत्यु की त्रासदी का सामना निराला सौन्दर्य  की ऊर्जा के माध्यम से करते हैं।  राम की शक्ति पूजामें पराजय-बोध, विफलता और संशय के क्षणों में फिर एक सौन्दर्य की स्मृति जगती है।

तीसरा पक्ष जो निराला की कविता में दिखाई देताहै वह है वेदना।

 छायावाद में दु:ख का एक अपना जीवनदर्शन है।  इसी जीवनदर्शन से छायावाद की काव्यानुभूति नियंत्रित होती है।  निराला का दु:ख बेईमानी की पगडंडियों के अस्वीकार से पैदा हुआ है।

निराला के यहाँ दु:ख व्यवस्थाजनित है।  निराला राम की शक्ति पूजा में राम के अश्रुपूरित आँखों का जिक्र करते हैं : “अन्याय जिधर है उधर शक्ति, कहते छल-छल हो गए नयन,  कुछ बूंद पुनः ढलके दृग जल।”

कल्पना निराला की काव्यानुभूति का महत्वपूर्ण प्रसंग है ।

छायावाद को कल्पना का काव्य कहा जाता है।  निराला की कल्पना की प्रकृति  अन्य छायावादी कवियों से भिन्न है ।

डॉ. रामविलास शर्मा नेराग विराग की भूमिका में लिखा है कि निराला का मन धरती के सौन्दर्य से बंधा हुआ है और उस पर जीवन-यथार्थ के गहरे दबाव हैं।  निराला की कल्पनाशीलता जीवनानुभूतियों का सृजनात्मक रूपांतरण करती है।  वह दूसरे लोक की खोज नहीं है।  बल्कि इसी जीवन में संभावनाओं की पहचान की दृष्टि है।

निराला के काव्यचेतना में राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना का भरपूर स्वर विद्यमान है।  

निराला की काव्यचेतना में आत्म-गौरव, जागरण,  स्वाधीनताबोध तथा राष्ट्रप्रेम का मिलाजुला भाव है। निराला में जागरण भी बहुत है,  रात के बीतने का बोध या कम से कम रात बीतेगी-  इसका विश्वास निराला की प्राय: सभी महत्वपूर्ण कविताओं में है । राम की शक्ति पूजा’,
तुलसीदास
और अन्य कविताओं में भी संभावनाओं के प्रति प्रबल आस्था है।

वर्षा सृजन का प्रतीक है निराला के लिए ध्वंस का भी । जैसे राग के साथ विराग, वैसे ही सृजन के साथ ध्वंस । निराला उल्लास और विषाद के ही कवि नहीं संघर्ष और क्रांति के भी कवि हैं । प्रेमचंद और निराला का ऐतिहासिक महत्व यह है कि उन्होंने समझा कि भारतीय  स्वाधीनता आंदोलन कि धुरी है -किसान क्रांति, साम्राज्यवाद के मुख्य समर्थक सामंतों के खिलाफ जमीन पर अधिकार करने के लिए किसानों का संघर्ष । सन् 1924 में निराला ने लिखा :  

 जीर्ण बाहु, है जीर्ण शरीर 

 तुझे बुलाता कृषक अधीर,

 ऐ विप्लव के वीर !

 चूस लिया है उसका सार,

 हाड़ मात्र ही है आधार,

ऐ जीवन के पारावार।   

 

स्वतंत्रता सबसे प्रिय शब्द है निराला का । 


स्वतंत्रता उनकी रचनात्मक ऊर्जा का पर्याय है।  इसलिए वे कविता को स्वाधीन करते है,  छंद को स्वाधीन करते हैं।  परिमल की भूमिका में उन्होंने कहा था कि छंद की मुक्ति का प्रश्न कविता की मुक्ति से जुड़ा हुआ है और कविता की मुक्ति में ही मनुष्य की मुक्ति निहित है।  कविता की मुक्ति को उन्होंने मनुष्य की मुक्ति से जोड़ा।  इसीलिए अपने बहुत चर्चित प्रार्थना गीत में उन्होंने देवी सरस्वती से स्वतंत्रता के रव के विस्तार की अपील की है : “प्रिय स्वतंत्र रव अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।”

 छायावाद में नव या नूतन के प्रति अभूतपूर्व ललक है।

 यह ललक निराला के काव्य में भी जगह-जगह मिलती है।  नवस्वर की इस चाह के ही कारण निराला के काव्य में प्रयोगशीलता की विविध धाराएं देखने को मिलती है। निराला के गीत तराशे हुए, विवेक को साधकर रचे हुए गीत हैं, वे भावोद्गार मात्र नहीं हैं । उनमें जल की तरलता नहीं, हीरे की-सी कठोरता और भीतरी दमक है ।

प्रत्येक गीत में एक आंतरिक गति है। तत्सम शब्दावली का ध्वनि-सौन्दर्य लिए हुए परिचित छायावादी शैली के गीतों के अलावा निराला Suryakant Tripathi ‘Nirala‘ आरंभ से ही ऐसे गीत भी रचते रहे हैं जिनमें लोकगीतों की-सी मिठास है, ब्रजभाषा के ललित पदों की-सी शब्द योजना है । निराला की सभी कविताएं उनके सुदीर्घ कवि जीवन की सार्थकता का प्रमाण हैं ।    

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