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रस सिद्धान्त ras siddhant यद्यपि भारतीय काव्यशास्त्र में प्राचीनतम सिद्धान्त है, तथापि इसे व्यापक प्रतिष्ठा बाद में प्राप्त हुई। यही कारण है कि अलंकार सिद्धान्त को रस सिद्धान्त से प्राचीन माना जाने लगा। रस सिद्धान्त के मूल प्रवर्तक आचार्य भरत मुनि (200 ई.पू.) माने जाते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ में रस के विभिन्न अवयवों का विवेचन किया, तथा ‘रस सूत्र’ दिया। सबसे पहले हम आचार्य भरत मुनि के रस सूत्र को समझने का प्रयास करेंगे।
आचार्य भरत मुनि का ‘रस सूत्र’
आचार्य भरत मुनि का ‘रस सूत्र’ इस प्रकार है :
“विभावानुभाव व्यभिचारि संयोगाद्रस निष्पत्तिः”
रस के अवयव
रस के चार अवयव हैं:
(1) स्थायी भाव, (2) विभाव,
(3) अनुभाव, (4) संचारी भाव।
(1) स्थायी भाव – जो भाव हृदय में सदैव स्थायी रूप से विद्यमान रहते हैं किन्तु अनुकूल कारण पाकर उबुद्ध होते हैं, उन्हें स्थायी भाव कहा जाता है। इनकी संख्या नौ मानी गई है। रति, उत्साह, क्रोध, जुगुप्सा, विस्मय, निर्वेद, हास, भय, शोक स्थायी भाव हैं। प्रत्येक स्थायी भाव से सम्बन्धित एक रस होता हैं।
जिसका विवरण इस प्रकार है :
क्र.सं. |
रस का नाम |
स्थायी भाव |
---|---|---|
1 | श्रृंगार | रति |
2 | वीर | उत्साह |
3 | रौद्र | क्रोध |
4 | वीभत्स | जुगुप्सा |
5 | अद्भुत | विस्मय |
6 | शान्त | निर्वेद |
7 | हास्य | हास |
8 | भयानक | भय |
9 | करुण | शोक |
इनके अतिरिक्त दो रसों की चर्चा और होती है।
क्र.सं. | रस का नाम | स्थायी भाव |
---|---|---|
10 | वात्सल्य | सन्तान विषयक रति |
11 | भक्ति | भगवद् विषयक रति |
रति के तीन भेद माने जा सकते हैं – दाम्पत्य रति, वात्सल्य रति, भक्ति सम्बन्धी रति । इन तीनों से क्रमशः शृंगार, वात्सल्य एवं भक्ति रस की निष्पत्ति होती है। शृंगार रस को रसराज माना गया है।
विभाव दो प्रकार के होते हैं :
(अ) आलम्बन विभाव – जिसके कारण आश्रय के हृदय में स्थायी भाव उबुद्ध होता है उसे आलम्बन विभाव कहते हैं। दुष्यन्त के हृदय में शकुन्तला को देखकर ‘रति’ नामक स्थायी भाव उबुद्ध हुआ तो यहाँ दुष्यन्त आश्रय है, शकुन्तला आलम्बन है।
(ब) उद्दीपन विभाव – ये आलम्बन विभाव के सहायक एवं अनुवर्ती होते हैं। उद्दीपन के अन्तर्गत आलम्बन की चेष्टाएं एवं बाह्य वातावरण दो तत्व आते हैं जो स्थायी भाव को और अधिक उद्दीप्त, प्रबुद्ध एवं उत्तेजित कर देते हैं। शकुन्तला की चेष्टाएं दुष्यन्त के रति भाव को उद्दीप्त करेंगी तथा उपवन, चांदनी रात, नदी का एकान्त किनारा भी तथा, इस भाव को उद्दीप्त करेगा अतः ये दोनों ही ‘उद्दीपन’ हैं।
परिभाषा देते हुए कहा गया है :
“अनुभावो भाव बोधकः”
अर्थात् भाव का बोध कराने वाले कारण अनुभाव कहलाते हैं। आश्रय की वे बाह्य चेष्टाएं जिनसे यह पता चलता है कि उसके हृदय में कौन-सा भाव उद्बुद्ध हुआ है— अनुभाव कहलाती हैं।
अनुभाव चार प्रकार के होते हैं :
- (i) कायिक या आंगिक — शरीर की चेष्टाओं से प्रकट होते हैं,
- (ii) वाचिक — वाणी से प्रकट होते हैं,
- (iii) आहार्य — वेशभूषा, अलंकरण से प्रकट होते हैं,
- (iv) सात्विक – सत्व के योग से उत्पन्न वे चेष्टाएं जिन पर हमारा वश नहीं होता सात्विक अनुभाव कही जाती हैं। इनकी संख्या आठ है— 1. स्वेद, 2. कम्प, 3. रोमांच, 4. स्तम्भ, 5. स्वरभंग, 6. अश्रु, 7. वैवर्ण्य, 8. प्रलय ।
(4) संचारी भाव — स्थायी भाव को पुष्ट करने वाले संचारी भाव कहलाते हैं। ये सभी रसों में संचरण करते हैं। इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। इनकी संख्या 33 मानी गई है।
इन स्थायी भावों के नाम इस प्रकार हैं— 1. निर्वेद, 2. ग्लानि, 3. शंका, 4. असूया, 5. मद, 6. श्रम, 7. आलस्य, 8. दैन्य, 9. चिन्ता, 10. मोह, 11.स्मृति,
12. धृति, 13. ब्रीड़ा (लज्जा), 14. चपलता, 15. हर्ष, 16. आवेग, 17. जड़ता, 18. गर्व, 19. विषाद, 20. औत्सुक्य, 21. निद्रा, 22. अपस्मार, 23. स्वप्न,
24. विवोध, 25. अवमर्ष, 26. अवहित्था, 27. उग्रता, 28. मति, 29. व्याधि, 30. उन्माद, 31. मरण, 32. त्रास, 33. वितर्क।
आचार्य भरत मुनि ने रस विवेचन के सम्बन्ध में जिस श्लोक को प्रस्तुत किया है उसके अनुसार – “जिस प्रकार अनेक व्यंजनों और औषधियों के संयोग से रस की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार अनेक भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। जैसे गुड़ आदि द्रव्यों तथा औषधियों आदि से षाडवादि रस उत्पन्न होते हैं, वैसे ही अनेक भावों से उपगत होने से स्थायी भाव रसत्व को प्राप्त होता है।”
आचार्य भरत मुनि के अनुसार रस आस्वाद न होकर आस्वाद्य है, अर्थात् वह एक ऐसा तत्व है जिसका स्वाद लिया जा सकता है। रस के विविध अवयव समन्वित होकर ही रसत्व को प्राप्त होते हैं।
स्पष्ट है कि वे अवयव रस नहीं है, अपितु संयुक्तावस्था में वे रस रूप को प्राप्त होते हैं। आचार्य भरत मुनि यह भी कहते है जिस प्रकार स्वस्थ चित्त वाला व्यक्ति ही भोज्य पदार्थों का आस्वाद ले सकता है उसी प्रकार सहृदय ही रस का आस्वादन कर सकता है। आचार्य भरत मुनि ने रस की वस्तुपरक व्याख्या की है।
आचार्य अभिनव गुप्त का रस विवेचन
आचार्य अभिनव गुप्त का रस विवेचन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। रस विवेचन में अलौकिकता का समावेश करने का श्रेय इन्हीं को है।
आचार्य अभिनव गुप्त ने बताया कि ‘रति’ आदि स्थायी भाव पाठकों के अंतःकरण में वासना या संस्कार रूप में सदैव विद्यमान रहते हैं, जो विभावादि के संयोग से व्यंजनावृत्ति के अलौकिक व्यापार द्वारा ‘रस’ रूप में व्यक्त होते हैं।
वे रसानुभूति का आधार व्यंजना शक्ति को मानते हैं। उनकी मूल अवधारणा यह है कि काव्य हमारी भावोत्तेजना का साधन मात्र है, वह नए भावों की सृष्टि नहीं करता।
आदि स्थायी भाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस को प्राप्त होते हैं।
अन्तःकरण में तमोगुण और सतोगुण दब जाते हैं और सतोगुण का उद्रेक होता है। रस चर्वणा के अवसर पर अन्य संवेद्य विषयों का स्पर्श नहीं होता अतः रस समाधि अवस्था के समान ब्रह्मानन्द सहोदर कहा जा सकता है।
रस सूत्र के व्याख्याता आचार्य
आचार्य भरत मुनि के रस सूत्र में आए ‘संयोग’ एवं ‘निष्पत्ति’ शब्द की व्याख्या जिन चार आचार्यों ने की, उन्हें रस-सूत्र का व्याख्याता आचार्य कहा जाता है। इन आचार्यों के नाम है– 1. भट्ट लोल्लट, 2. आचार्य शंकुक, 3. भट्ट नायक, 4. आचार्य अभिनव गुप्त।
भट्ट लोल्लट
भट्ट लोल्लट का मत ‘उत्पत्तिवाद’ या ‘आरोपवाद’ कहा जाता है। उनके अनुसार ‘निष्पत्ति’ का अर्थ है ‘उत्पत्ति’ तथा ‘संयोग’ का अर्थ है-उत्पाद्य–उत्पादक, गम्य-गमक एवं पोष्य-पोषक सम्बन्ध।
वे रस की स्थिति अनुकार्य (मूल पात्र) में मानते हैं। दर्शक अभिनेताओं पर मूल पात्रों का आरोप कर लेता है, इसीलिए इनका मत ‘आरोपवाद’ कहा जाता है।
आचार्य शंकुक
आचार्य शंकुक का मत ‘अनुमितिवाद’ कहा जाता है। इन्होंने ‘चित्रतुरंग न्याय’ के आधार पर रस निष्पत्ति की व्याख्या की।
जैसे चित्र में बने तुरंग (घोड़े को देखकर हम उसे घोड़ा मान लेते है उसी प्रकार दर्शक नट में राम आदि की प्रतीति कर लेता है और फिर उसमें रति आदि भावों का भी अनुमान कर लेता है। इस विलक्षण अनुमान को कला प्रतीति कहा जाता है। शंकुक के अनुसार ‘संयोग’ का अर्थ है ‘अनुमान’ और ‘निष्पत्ति’ का अर्थ है अनुमिति’।
भट्ट नायक
भट्ट नायक के मत को ‘भुक्तिवाद’ कहा जाता है। रस निष्पत्ति में इनका सबसे बड़ा योगदान साधारणीकरण का सिद्धान्त है। भावकत्व व्यापार को वे साधारणीकरण कहते हैं तथा इस व्यापार से विभावादि अपने-पराए की भावना से मुक्त होकर सामान्यीकृत हो जाते हैं। इनके अनुसार ‘संयोग’ का अर्थ है-भोज्य-भोजक सम्बन्ध तथा ‘निष्पत्ति’ का अर्थ है – ‘भुक्ति’ ।
आचार्य अभिनव गुप्त
आचार्य अभिनव गुप्त का मत ‘’अभिव्यक्तिवाद कहा जाता है। वे रस को ‘व्यंजना का व्यापार’ मानते हैं।
जैसे जल के छींटे देने से मिट्टी में व्याप्त गन्ध व्यक्त हो जाती है, उसी प्रकार सहृदय में वासना रूप में निरन्तर विद्यमान स्थायी भाव विभावादि के संयोग से अभिव्यक्त हो जाते हैं।
वे रस की सत्ता आत्मगत मानते हैं। रस सहृदय सामाजिक के हृदय में व्याप्त होता है। अभिनव गुप्त के अनुसार ‘निष्पत्ति’ का अर्थ है—‘अभिव्यक्ति’ और ‘संयोग’
का अर्थ है- ‘व्यंग्य-व्यंजक सम्बन्ध’ ।
रस सम्प्रदाय के समर्थक आचार्य
रस सम्प्रदाय के समर्थक आचार्यों में आचार्य भरत मुनि, आचार्य अभिनव गुप्त, आचार्य विश्वनाथ, आचार्य मम्मट, पण्डितराज जगन्नाथ, भट्ट लोल्लट, आचार्य शंकुक, भट्ट नायक आदि के नाम लिए जा सकते हैं।
रस : काव्य की आत्मा
काव्य को पढ़ते या सुनते समय हमें जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे ही रस ras कहा जाता है। काव्यानन्द को ब्रह्मानन्द सहोदर कहा जाता है। पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायी भाव ही रस रूप में परिणत होकर उसे आनन्द प्रदान करता है।
रस को काव्य की आत्मा या प्राणतत्व माना गया है। रसहीन काव्य निर्जीव है, अतः रस के बिना काव्य का अस्तित्व ही नहीं है। जैसे प्राण के अभाव में शरीर व्यर्थ है, उसी प्रकार रस के अभाव में कोई रचना काव्यत्व से ही रहित हो जाती है।
रस ही कविता को प्राणवान बनाता है और पाठक या श्रोता को आनन्दमग्न करके भाव समाधि में पहुँचा देता है। अतः रस को काव्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व माना जा सकता है।
यह काव्य का अन्तरंग तत्व है, बहिरंग तत्व नहीं। अतः अलंकार आदि की भाँति यह काव्य की शोभा नहीं बढ़ाता, अपितु शोभा उत्पन्न करता है। काव्य के अन्य सभी तत्व रस के ही उपादान हैं। अतः निर्विवाद रूप में रस ही काव्य का सर्वप्रमुख तत्व या काव्य की आत्मा है।
रस की विशेषताएं
आचार्य विश्वनाथ ने रस की अनेक विशेषताएं बताई हैं। जो निम्नानुसार हैं :
- 1. रस आस्वाद रूप है, आस्वाद्य नहीं।
- 2. रस की उत्पत्ति सतोगुण के उद्रेक से होती है।
- 3. रस ब्रह्मानन्द सहोदर है ।
- 4. रसानुभूति अलौकिक होती है।
- 5. रस चिन्मय अर्थात् ज्ञान स्वरूप है।
- 6. रस स्वप्रकाशानन्द है।
- 7. रस अखण्ड है।
- 8. रस की अनुभूति तन्मयता की स्थिति में होती है।
- 9. रस लोकोत्तर चमत्कार है।
रस का स्वरूप
1. सहृदय सामाजिक के हृदय में वासना रूप में विद्यमान ‘रति’, आदि स्थायीभाव ‘आलम्बन’ द्वारा उबुद्ध होकर, ‘उद्दीपन’ विभाव से उद्दीप्त होते हैं। ‘अनुभाव’ उन्हें प्रतीति योग्य बनाते हैं और ‘संचारीभाव’ पुष्ट करते हैं। इस प्रकार विभावादि के संयोग से ये ‘रति’ आदि स्थायी भाव ही ‘शृंगार’, आदि रसों के रूप में परिणत हो जाते हैं।
2. रस की निष्पत्ति सामाजिक के हृदय में तभी सम्भव हो पाती है जब उसके हृदय में ‘रजोगुण’ एवं ‘तमोगुण का शमन होकर ‘सतोगुण’ का उद्रेक होता है। इस अवस्था में उसका हृदय राग-द्वेष से मुक्त होकर लोक सामान्य भावभूमि पर प्रतिष्ठित हो जाता है और रसास्वाद का अनुभव करता है।
3. रसानुभूति के समय विभावादि अपना स्वतन्त्र अस्तित्व त्यागकर स्थायीभाव में लय हो जाते हैं, अतः सहृदय को उनके पृथक्-पृथक् अस्तित्व का बोध न होकर समन्वित अनुभूति होती है। इसी को ‘रस की अखण्डता’ कहते हैं।
4. रस को ‘वेद्यान्तर सम्पर्क शून्य’ कहा जाता है। इसका तात्पर्य है कि रसानुभूति की स्थिति में सामाजिक इतना तन्मय रहता है कि उसे अन्य वेद्य विषयों का ज्ञान नहीं रहता। वह राग-द्वेष से ही नहीं अपितु देशकाल की सीमाओं से भी मुक्त हो जाता है।
5. रस को स्वप्रकाशानन्द एवं चिन्मय कहा गया है अर्थात् वह ऐसी आनन्दमयी चेतना है जिसमें ऐन्द्रियानुभूति का अभाव तथा चैतन्य आत्मास्वाद का सद्भाव रहता है।
6. रस को ब्रह्मानन्द सहोदर कहा गया है। जिस प्रकार समाधि की दशा में योगी को ब्रह्मानन्द की अनुभूति होती हैं और उस ब्रह्मानन्द में अन्य विषय उसे स्पर्श नहीं कर पाते, उसी प्रकार रसास्वादन काल में सहृदय सामाजिक को भी अन्य विषय स्पर्श नहीं करते। ब्रह्मानन्द लौकिक विषयों से पूर्णतः असम्पृक्त होता है तथा स्थायी होता है, जबकि रस का आनन्द लौकिक विषयों से पूर्णतः असम्पृक्त नहीं होता तथा चिरस्थायी भी नहीं होता, इसी कारण रस को ब्रह्मानन्द न मानकर ब्रह्मानन्द सहोदर माना जाता है।
रस की अलौकिकता
समावेश हो जाता है जो रस को लौकिक बना देता है।
2. रस की अलौकिकता ‘साधारणीकरण’ व्यापार के कारण होती है। यह व्यापार न केवल सामाजिक को साधारणीकृत करता है अपितु उसे देशकाल के बन्धनों से भी मुक्त करता है।
3. रस न तो सविकल्पक ज्ञान है और न निर्विकल्पक ज्ञान। वह इन दोनों से भिन्न अलौकिक ज्ञान है। सविकल्पक ज्ञान में पदार्थ के स्वरूप के साथ उसके नाम,
जाति का बोध होता है जबकि निर्विकल्पक ज्ञान में नाम, जाति, भाव से रहित केवल वस्तु मात्र का बोध होता है। रसानुभूति शब्द-व्यवहार का विषय न होकर संवेदन मात्र है इसलिए सविकल्पक ज्ञान नहीं है। इसी प्रकार रसानुभूति निर्विकल्पक ज्ञान भी नहीं है, क्योंकि उसमें विभावादि की प्रधानता रहती है। विद्वानों ने इसी कारण रस को सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञान से भिन्न अलौकिक ज्ञान माना है।
4. रस न प्रत्यक्ष है, न परोक्ष अतः अलौकिक है। रस का साक्षात्कार अनुभूति के रूप में होता है। रस को न तो नित्य कह सकते हैं और न अनित्य इसी कारण वह अलौकिक कहा जाता है।
निष्कर्ष
सकल प्रयोजन मौलिभूतं समनन्तरमेव रसास्वादन समुद्रभूतं विगलित वेद्यान्तरमानन्दम्।।
2. आचार्य विश्वनाथ ने भी ‘करुण’ रस को निर्भ्रान्त शब्दों में ‘आनन्दमय’ निरूपित करते हुए कहा है – “करुणादि रसों में भी जो परम आनन्द होता है वह केवल सहृदयों का अनुभव होता तो उनके श्रवण-दर्शन में सामाजिक प्रवृत्त न होते।”
3. पण्डितराज जगन्नाथ ने भी करुण रस की आनन्दमयता का समर्थन किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि “जिस प्रकार शृंगारादि से सुखानुभूति होती
है, उसी प्रकार करुणादि से भी, यदि ऐसा न होता तो सामाजिकों की प्रवृत्ति ही न होती।”
4. करुण, आदि भाव दुखात्मक भले ही हों, किन्तु काव्य में निबद्ध होकर वे सुखात्मक रूप में प्रस्तुत होते हैं। करुण रस में सामाजिक का अश्रुपात उसके आनन्द का द्योतक है। यह साधारणीकरण की उस अवस्था का सूचक है जिसमें सामाजिक का तादात्म्य कवि की अनुभूति के साथ हो जाता है तथा नट की अनुभूति से वह एकाकार होकर रसास्वादन का अनुभव करने लगता है।
इस प्रकार रस सिद्धान्त ras siddhant काव्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है तथा रस काव्य की आत्मा है।
प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
प्रश्न 1 : भरत मुनि का रस सिद्धान्त क्या है ?
उत्तर : रस सिद्धान्त के मूल प्रवर्तक आचार्य भरत मुनि (2 री शती ई.पू. से 2 री शती ई.) माने जाते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ में रस के विभिन्न अवयवों का विवेचन किया, तथा ‘रस सूत्र’ दिया। भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ को स्वयं पंचम वेद कहा था । इसमें 36 अध्याय तथा लगभग 5600 श्लोक हैं ।
आचार्य भरत मुनि मुनि का ‘रस सूत्र’ इस प्रकार है :
“विभावानुभाव व्यभिचारि संयोगाद्रस निष्पत्तिः”
अर्थात्–“विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव (संचारी भाव) के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।”
प्रश्न 2.भरत मुनि के अनुसार रस कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर : आचार्य भरत मुनि ने आठ रसों को मान्यता तो दी थी किन्तु प्रमुख चार ही माना था – शृंगार, रौद्र वीर और वीभत्स। फिर शृंगार से हास्य, रौद्र से करुण, वीर से अद्भुत और वीभत्स से भयानक रस की उत्पत्ति मानी थी ।
प्रश्न 3: भरत मुनि का रस सूत्र क्या है ?
उत्तर : आचार्य भरत मुनि का ‘रस सूत्र’ इस प्रकार है :
“विभावानुभाव व्यभिचारि संयोगाद्रस निष्पत्तिः”
अर्थात्–“विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव (संचारी भाव) के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।”
रस-निष्पत्ति से तात्पर्य है – काव्य-आस्वाद की प्रक्रिया। काव्य-आस्वाद का प्रश्न रचना में कवि द्वारा रस के सृजन तथा पाठक द्वारा उस रस को ग्रहण किए जाने की प्रक्रिया से संबंधित है ।
प्रश्न 4: रस सिद्धान्त के जनक कौन हैं ?
उत्तर : रस सिद्धान्त का प्रतिपादक प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ आचार्य भरत मुनि का ‘नाट्यशास्त्र’ है । रस सिद्धान्त के जनक आचार्य भरत मुनि हैं ।

नमस्कार ! मेरा नाम भूपेन्द्र पाण्डेय है । मेरी यह वेबसाइट शिक्षा जगत के लिए समर्पित है । हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य और अनुवाद विज्ञान से संबंधित उच्च स्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाना मेरा मुख्य उद्देश्य है । मैं पिछले 20 वर्षों से इस क्षेत्र में काम कर रहा हूँ । मेरे लेक्चर्स हिंदी के छात्रों के द्वारा बहुत पसंद किए जाते हैं ।
मेरी शैक्षिक योग्यता इस प्रकार है : बीएससी, एमए (अंग्रेजी) , एमए (हिंदी) , एमफिल (हिंदी), बीएड, पीजीडिप्लोमा इन ट्रांसलेशन (गोल्ड मेडल), यूजीसी नेट (हिंदी), सेट (हिंदी)
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