हिंदी में ‘आलोचना’ शब्द अंग्रेजी के ‘क्रिटिसिज़्म’ (Criticism) का पर्याय है जिसका अर्थ है ‘मूल्यांकन’ अथवा ‘निर्णय करना’। अर्थात् किसी वस्तु या कृति की सम्यक व्याख्या अथवा मूल्यांकन आदि करना ही आलोचना है । आलोचना को समीक्षा भी कहा जाता है। समीक्षा का अर्थ है ‘सम्यक निरीक्षण’। वस्तुत: पहले सर्जनात्मक साहित्य प्रकाश में आता है तत्पश्चात् उसकी आलोचना की आवश्यकता का अनुभव किया जाता है ।आज हिंदी आलोचना का क्षेत्र-विस्तार हो जाने के परिणामस्वरूप इसके लिए ‘समीक्षा’, ‘आलोचना’, ‘समालोचना’ जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया जाता।
बाबू गुलाबराय के अनुसार आलोचना का अर्थ है- “आलोचना का मूल उद्देश्य कवि की कृति का सभी दृष्टिकोणों से आस्वादकर पाठकों को उस प्रकार के आस्वाद में सहायता देना तथा उनकी रुचि को परिमार्जित करना एवं साहित्य की गति निर्धारित करने में योग देना है |”
इस तरह आलोचना, साहित्य कीव्याख्या करती है, उसके गुण-दोष बताती है, उसके निर्माण की दिशा निर्धारित करती है।
हिंदी आलोचना का इतिहास रीतिकाल से थोड़ा पहलेशुरू होता है। रीतिकाल का रीतिबद्ध साहित्य रीतिवादी आलोचना से प्रभावित है और लक्षणों के उदाहरण रूप में रचा गया है। दरअसल, उस समय विवेचनागद्य में नहीं पद्य में की जाती थी। यह माध्यम विवेचन-विश्लेषण के लिए उतना उपयुक्त नहीं था। साहित्य को देखने समझने की दृष्टि बदली तो उसके मूल्यांकन की कसौटी भी
बदलती गई।
आलोचना में जो युगांतर आया, उसे प्रमुखतः तीन युगों में हम बांट सकते हैं- शुक्ल पूर्व युग, शुक्ल युग और शुक्लोत्तर युग।
हिंदी आलोचना के विकास के विभिन्न चरण
Hindi Alochana ka Udbhav aur Vikas हिंदी आलोचना का प्रारंभ भी गद्य की अन्य विधाओं के साथ ही साथ भारतेन्दु युग यानी आधुनिक युग से हुआ है। इस युग में मुद्रण कला का विकास हुआ, राजनीतिक जागृति आई और पत्र-पत्रिकाओं का लगातार प्रकाशन हुआ।
अंग्रेजी साहित्य के सम्पर्क से लोगों को नई-नई जानकारियाँ मिलीं। स्कूल-कालेजों में हिंदी पढ़ाई जाने लगी। अध्यापकों को साहित्य सृजन की नवीन प्रेरणा मिली जिसके फलस्वरूप गद्य में पुस्तकें लिखी जाने लगीं। इस प्रकार धीरे-धीरे गद्य की तमाम विधाओं का विकास हुआ। गद्य का विकास भी आधुनिक आलोचना के उद्भव और विकास का सहायक कारण बना। आलोचना के विकास में पाश्चात्य साहित्य और बौद्धिक जागृति प्रधान कारण थे।
उस समय एक-एक विषय पर इतनी पुस्तकें प्रकाशित हो रही थीं कि सबको पढ़ना संभव न था । अतः पाठक अच्छी पुस्तकों की उपादेयता को आँकने लगा। इसी से उसमें आलोचना की प्रवृत्ति पैदा हो गई।
हिंदी साहित्य को युगीन परिस्थितियों ने नए आयाम और नए संदर्भ दिए, फलतः आलोचना के पुराने मानदंड अपर्याप्त दिखायी देने लगे और पाश्चात्य समीक्षा साहित्य से प्रेरणा प्राप्त करके हिंदी आलोचना ने नए युग में प्रवेश किया।
आलोचना के प्रारंभिक काल में निंदा-स्तुति की अधिकता रही। भारतेन्दु काल की आलोचना में भी यही हुआ। इस युग के बाद पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रयत्नों से हिंदी आलोचना का स्वरूप कुछ और अधिक व्यवस्थित और सुनियोजित हुआ। हिंदी आलोचना में विश्लेषण और मूल्यांकन की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी आलोचना को शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया। इसलिए हिंदी आलोचना के विकास के केंद्र में
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को मानते हुए हम उसे तीन युगों में बाँट सकते हैं-
1) शुक्ल पूर्व हिंदी आलोचना (1850 से 1920 ई.)
2) शुक्ल युगीन हिंदी आलोचना (1920 से 1940 ई.)
3) शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना (1940 से आज तक)
शुक्ल पूर्व हिंदी आलोचना
शुक्ल पूर्व हिंदी आलोचना के विकास को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है :
1.1 भारतेन्दु पूर्व हिंदी आलोचना
1.2 भारतेन्दु युगीन हिंदी आलोचना
1.3 द्विवेदी युगीन हिंदी आलोचना
भारतेन्दु पूर्व हिंदी आलोचना
इस समय आलोचना की दो विशिष्ट धाराओं को देखा जा सकता है –
अलंकारवादी
रसवादी
अलंकारवादी धारा के प्रवर्त्तक केशवदास है तो रसवादी धारा के प्रवर्तक देव, मतिराम और बिहारी।
भारतेन्दु पूर्व हिंदी आलोचकों (काव्य-शास्त्रीय विवेचकों) के रूप में – आचार्य केशवदास, चिंतामणि, कृपाराम, पद्माकर, भिखारीदास, देव, घनानंद, मतिराम, बिहारी आदि प्रमुख हैं ।
भारतेन्दु युगीन हिंदी आलोचना
भारतेन्दु युग के मुख्य आलोचक हैं- भारतेन्दु हरिशचन्द्र, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ और बालकृष्ण भट्ट इत्यादि।
द्विवेदी युगीन हिंदी आलोचना
द्विवेदी युग में हिंदी आलोचना के पाँच रूप मिलते हैं-
- शास्त्रीय आलोचना
- तुलनात्मक आलोचना
- अनुसंधानपरक आलोचना
- परिचयात्मक आलोचना
- व्याख्यात्मक
द्विवेदी युग के मुख्य आलोचक हैं : आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, जगन्नाथ प्रसाद भानु, लाला भगवानदीन, पं.पद्मससिंह शर्मा, मिश्र बंधु, कृष्ण बिहारी
मिश्र, श्यामदास, जगन्नाथदास रत्नाकर, सुधाकर द्विवेदी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी इत्यादि।
शुक्ल युगीन हिंदी आलोचना
वास्तव में हिंदी आलोचना का पूर्ण रूप शुक्ल युग में ही निखर पाया और इसका श्रेय इस युग के प्रमुख आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल को है। इस युग में समीक्षा के लिए जो मानदंड और शैली अपनाई गई उनमें प्रमुख हैं-
- सुरुचि और नैतिकता
- शास्त्रीयता
- कवि के व्यक्तित्व का अध्ययन
- तुलना और निर्णय
- देशकाल की समीक्षा
शुक्ल युग के प्रमुख आलोचक हैं : बाबू गुलाबराय, बाबू श्यामसुंदर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’, विश्वनाथ प्रसाद, मिश्र, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, डॉ. रामकुमार वर्मा आदि।
शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना
शुक्लोत्तर युग में आलोचना अनेक धाराओं में विकसित हुई:
3.1 स्वच्छंदतावादी समीक्षा
3.2 ऐतिहासिक समीक्षा
3.3 मनोविश्लेषणात्मक समीक्षा
3.4 मार्क्सवादी आलोचना
3.5 नयी समीक्षा
स्वच्छंदतावादी समीक्षा
स्वच्छंदतावादी समीक्षा पद्धति के प्रतिनिधि आलोचक हैं- पं.नंददुलारे वाजपेयी, डॉ.नगेन्द्र और पं.शांतिप्रिय द्विवेदी । छायावाद के मूल्यांकन के प्रश्न पर इन आलोचकों ने आचार्य शुक्ल का विरोध किया था।
ऐतिहासिक समीक्षा
ऐतिहासिक समीक्षकों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और पदुमलाल पन्नालाल बक्शी प्रमुख हैं ।
मार्क्सवादी समीक्षा
मार्क्सवादी आलोचकों में शिवदान सिंह चौहान, प्रकाशचंद्र गुप्त और डॉ. रामविलास शर्मा अग्रणी हैं।
मनोविश्लेषणात्मक समीक्षा
मनोविश्लेषणवादी समीक्षा के क्षेत्र में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, इलाचंद्र जोशी और देवराज उपाध्याय के नाम उल्लेखनीय है।
नयी समीक्षा
इस समीक्षा के अंतर्गत सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, गिरिजा कुमार माथुर, शमशेर बहादुर सिंह, धर्मवीर भारती, नलिन विलोचन शर्मा, नेमिचंद्र जैन, लक्ष्मीकांत वर्मा इत्यादि प्रमुख हैं ।
इन तमाम आलोचकों के साथ-साथ कई अन्य आलोचक भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं- डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ.विजयदेव नारायण साही, डॉ.शंभुनाथ सिंह, डॉ.बच्चन सिंह, डॉ. शिवप्रसाद सिंह, डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, डॉ.देवीशंकर अवस्थी, डॉ.इंद्रनाथ मदान, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, डॉ. रमेश कुंतल मेघ आदि। इन नए आलोचकों द्वारा हिंदी आलोचना में साहित्य को जांचने परखने के लिए नए मूल्य विकसित हुए विश्लेषण की नयी प्रणाली बनी, नयी भाषा का विकास हुआ।
आलोचना के भेद या प्रकार
आलोचना की विभिन्न पद्धतियों के आधार पर उसके अनेक भेद या प्रकार बताए गए हैं। यहां हम कुछ प्रमुख भेदों (प्रकारों) की चर्चा कर रहे हैं:
शास्त्रीय आलोचना
इस आलोचना के अन्तर्गत आलोचक काव्यशास्त्र के नियमों को आधार बनाकर मूल्यांकन करता है। आलोचना की इस प्रणाली में आलोचक न तो व्याख्या करता है और न ही अपने मन पर पड़े प्रभावों को प्रस्तुत करता है।
वह व्यक्तिगत रुचि को भी कृति के मूल्यांकन का आधार नहीं बनाता अपितु काव्यशास्त्र के सिद्धान्त की कसौटी पर किसी कृति की जांच परख करता है।
निर्णयात्मक आलोचना
इस आलोचना पद्धति में आलोचक एक न्यायाधीश की भांति आलोच्य कृति के विषय में अपना निर्णय देता है। निर्णय के विषय में वह कभी तो शास्त्रीय सिद्धान्तों को आधार बनाता है तो कभी व्यक्तिगत रुचि को। कभी लोकहित की दृष्टि से वह कृति का मूल्यांकन कर वह उसे शत या अशत घोषित करता है और कभी कृति की परीक्षा नवीन सिद्धान्तों के आधार पर करके अपना निर्णय देता है।
वह कृतियों को सुन्दर, असुन्दर, उत्तम-मध्यम, अधम, आदि श्रेणियों में वर्गीकृत कर साहित्य में उसका स्थान निर्धारित करता है।
कुछ विद्वानों ने इस आलोचना पद्धति का खण्डन किया है। उनका तर्क है कि आलोचक का कार्य कृति की व्याख्या कर उसके सौन्दर्य का उद्घाटन करना है जिससे सामान्य पाठकों को उस कृति का अध्ययन करने में सहायता मिल सके, न्यायाधीश की भांति निर्णय करना आलोचक का धर्म नहीं है।
हिंदी में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की आलोचना निर्णयात्मक आलोचना कही जाती है।
बाबू गुलाबराय जी ने कहा है कि यदि निर्णय शास्त्रीय सिद्धान्तों के आधार पर किया गया हो तब तो उचित है अन्यथा व्यक्तिगत रुचि-अरुचि के आधार पर किया गया निर्णय युक्ति-संगत नहीं हो सकता।
व्याख्यात्मक आलोचना
शास्त्रीय नियमों से मुक्त होकर कृति की व्याख्या करने का प्रयास ही व्याख्यात्मक आलोचना है। रूढ़िवादी आलोचकों के द्वारा बनाए गए नियमों के आधार पर जो आलोचना होती है उसमें कृति के सौन्दर्य का उद्घाटन नहीं हो पाता अतः कृति का वास्तविक मूल्यांकन नहीं हो सकता।
व्याख्यात्मक आलोचना में आलोचक व्यक्तिगत रुचि-अरुचि को एक ओर रखकर निरपेक्ष दृष्टि से किसी कृति की व्याख्या करता है, जिसमें वह इतिहास, तत्कालीन परिस्थितियों, प्रतिपाद्य विषय और प्रतिपाद्य शैली, आदि का विश्लेषण करता है।
एक युग के नियम दूसरे युग में खरे नहीं उतर सकते इसलिए इस प्रणाली से आलोचना करने वाले आलोचक को अपने मानदण्ड लचीले बनाने पड़ते हैं।व्याख्यात्मक आलोचना प्रारम्भ करने का श्रेय डॉ. मुल्टन को है।
कार्लायल और मैथ्यू आर्नोल्ड ने भी व्याख्यात्मक आलोचना को लोकप्रिय बनाया।
हिंदी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने व्याख्यात्मक आलोचना का सूत्रपात किया उन्होंने तुलसी, सूर और जायसी की आलोचना में व्याख्यात्मक आलोचना पद्धति का आश्रय लिया है।
सैद्धान्तिक आलोचना
साहित्यिक रचना से सम्बन्धित आधारभूत सिद्धान्तों का निर्माण इस आलोचना पद्धति के द्वारा किया जाता है। रीति ग्रन्थ या लक्षण ग्रन्थ सैद्धान्तिक आलोचना के ग्रन्थ हैं।
आलोचक अपनी प्रतिभा के आधार पर तथा प्राचीन पद्धति ग्रन्थों के आधार पर काव्य रचना सम्बन्धी मूलभूत सिद्धान्तों का निर्माण करता है और उसी के आधार पर किसी कृति की आलोचना करता है।
सैद्धान्तिक आलोचना एक प्रकार से शास्त्रीय पक्ष है। सिद्धान्त निर्माण करने वाले आलोचक को केवल परम्परा से प्राप्त सिद्धान्तों के चक्कर में ही नहीं पड़ना चाहिए अपितु उसे नवीन सिद्धान्तों का निर्माण नए साहित्य के आधार पर करना चाहिए।
संस्कृत में सैद्धान्तिक आलोचना पर्याप्त विकसित थी। भरत मुनि का ‘नाट्यशास्त्र’, मम्मट का भारतीय ‘काव्यप्रकाश’, विश्वनाथ का ‘साहित्य-दर्पण’, आनन्दवर्द्धन का ‘ध्वन्यालोक’ आदि ऐसे ग्रन्य हैं।
हिंदी में आचार्य शुक्ल का ‘रस मीमांसा’, डॉ. नगेन्द्र का ‘रस सिद्धान्त’, बाबू गुलाबराय का ‘काव्य के रूप’, भगीरथ मिश्र का ‘भारतीय काव्यशास्त्र’ सैद्धान्तिक आलोचना के के प्रमुख ग्रन्थ माने जा सकते हैं।
ऐतिहासिक आलोचना
साहित्यकार की रचना अपने युग से प्रभावित होती है। अतः ऐतिहासिक आलोचना समीक्षा वह पद्धति है जिसमें कोई आलोचक तत्कालीन परिस्थितियों का विश्लेषण कर उनकी पृष्ठभूमि में किसी लेखक की रचनाओं की परीक्षा करता है।
उदाहरण के लिए, राम काव्य की रचना वाल्मीकि, तुलसी और मैथिलीशरण गुप्त ने की है, किन्तु उनकी कृतियों में आधारभूत मौलिक अन्तर है जो तद्युगीन परिस्थितियों को उपज है। जब तक युगीन इतिहास को समझा नहीं जाता तब तक उसे स्पष्ट नहीं किया जा सकता।
आधुनिक युग में ऐतिहासिक आलोचना का पर्याप्त विकास हुआ है। समालोचना की इस पद्धति ने समीक्षा को एक नई दिशा दी है।
अन्य प्रणालियों के आलोचक भी किसी-न-किसी रूप में ऐतिहासिक आलोचना का आधार ग्रहण करने लगे हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों की रचना इसी प्रणाली पर की गई है।
इस आलोचना पद्धति में केवल एक ही त्रुटि है और वह यह कि इसमें युगीन परिस्थितियों के विश्लेषण को इतना अधिक विस्तार मिल जाता है कि कवि और उसकी कृतियों की उपेक्षा हो जाती है।
मनोवैज्ञानिक आलोचना
मनोवैज्ञानिक आलोचना का अभिप्राय है मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में किसी कृति की समीक्षा करना। फ्रायड के अनुसार, कला का जन्म वासना से होता है। हमारी कुण्ठाएं और अतृप्त वासनाएं जो अवचेतन पड़ी रहती हैं; जाने-अनजाने कला या स्वप्न के माध्यम से व्यक्त हो जाती हैं। अतः हमें किसी साहित्यिक कृतिकार के अन्तरमन और स्वभाव का मनोविश्लेषण करना चाहिए।
यह आलोचना पद्धति साहित्य को सामाजिक कर्म न मानकर वैयक्तिक कर्म मानती है और कवि के आन्तरिक व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कृति का विश्लेषण और भावन करती है।
मनोवैज्ञानिक आलोचना में मनोविश्लेषण के आधार पर रचना की केवल परीक्षा नहीं होती अपितु रचनाकार की मानसिक स्थितियों का विश्लेषण और उसके व्यक्तित्व का अध्ययन भी होता है। वस्तुतः इस प्रणाली में काव्य रचना की प्रक्रिया का विश्लेषण किया जाता है।
इस आलोचना पद्धति में सबसे बड़ा दोष यह है कि वह साहित्य को कुण्ठाजनित मानती है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है।
सच्चा कवि तो अपने हृदय को लोक हृदय में लीन कर देता है अतः यह कहना तर्कसंगत होगा कि इस आलोचना पद्धति से निकाले गए निष्कर्ष भ्रामक हैं।
प्रभाववादी आलोचना
इस आलोचना पद्धति में आलोचक कृति का विश्लेषण या विवेचन नहीं करता, केवल अपने मन पर पड़ी प्रभाव तरंगों को व्यक्त करता है।
आलोचक अपने हृदय पर पड़े हुए प्रभावों से बच ही नहीं सकता अतः तटस्थ होकर आलोचना करना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।
हडसन प्रभाववादी आलोचना को विशेष महत्व देता हुआ कहता है :
“वास्तव में हम किसी कृति के सम्बन्ध में अपने विचार ही व्यक्त करते हैं अर्थात् अपने मन पर पड़े प्रभावों को ही सामने रखते हैं।”
प्रभाववादी आलोचना में सबसे बड़ा दोष यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि-भिन्नता के कारण एक ही रचना के बारे में अलग-अलग राय व्यक्त करता है इसलिए आलोचना में प्रामाणिकता नहीं रहती। ऐसा लगता है कि आलोचक अपनी रुचि को पाठकों पर थोपने का प्रयास कर रहा है।
प्रभाववादी आलोचना तभी उपादेय बन सकती है जब उस पर कुछ नियन्त्रण लगा दिए जाएं। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा अथवा प्रशंसा से बचते हुए रचना के मार्मिक और प्रभावशाली पक्ष का उद्घाटन करना ही सच्ची प्रभाववादी आलोचना है।
हिंदी में श्री शान्तिप्रिय द्विवेदी इसी कोटि के आलोचक हैं।
प्रगतिवादी आलोचना
इस आलोचना पद्धति के जनक मैक्सिम गोर्की हैं। इस आलोचना का आधार समाजवादी यथार्थ है। वर्ग संघर्ष की पृष्ठभूमि में किसी कृति की परीक्षा या आलोचना करना प्रगतिवादी आलोचना है।
इसके अनुसार जो कृति शोषण का विरोध करती है जन सामान्य के लिए हितकर है और मार्क्सवादी सिद्धान्तों का प्रचार करती है वह उतनी ही श्रेष्ठ कृति है।
इस प्रकार प्रगतिवादी आलोचना में साहित्य की सामाजिक उपयोगिता को ही एकमात्र मापदण्ड बनाया गया है।
निश्चय ही यह दृष्टि एकांगी है और काव्य के मान्य सिद्धान्तों की उपेक्षा करने वाली है।
शिवदान सिंह चौहान, नामवर सिंह, डॉ. रामविलास शर्मा, प्रकाश चन्द गुप्त आदि प्रगतिवादी आलोचक हैं।
तुलनात्मक आलोचना
तुलनात्मक आलोचना का प्रारम्भ उन्नीसवीं शताब्दी से हुआ। इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है और यह कई प्रकार की हो सकती है जैसे:
- दो काव्य प्रवृत्तियों की तुलना।
- एक ही युग के दो कवियों की तुलना।
- विभिन्न युगों के कवियों की तुलना।
- अलग-अलग भाषाओं के दो कवियों की तुलना।
- एक ही कवि की दो कृतियों की तुलना।
तुलनात्मक आलोचना में बहुत सावधान रहना चाहिए, तुलना करने के लिए समान आधारों की खोज करनी चाहिए। तभी तुलना सार्थक होगी। तुलना में भी विवेचन और विश्लेषण ही करना चाहिए निर्णय देना उचित नहीं है।
हिंदी में इस वर्ग के आलोचक हैं लाला भगवानदीन और पद्मसिंह शर्मा।
निष्कर्ष
इस प्रकार ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में हिंदी-आलोचना के क्रमिक विकास का व्यवस्थित रूप से अध्ययन किया जा सकता है।
भारतेन्दु युग की तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों से लोगों में जागृति आई। मुद्रण कला के विकास से अनेक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगी।
विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाने लगी। पाश्चात्य साहित्य का भी प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप अन्य गद्य विधाओं के साथ आलोचना की भी शुरूआत आधुनिक युग यानी भारतेंदु युग से हुई।
भारतेंदु युग में आलोचना केवल गुण-दोष विवेचन तक ही सीमित रही लेकिन द्विवेदी युग से हिंदी आलोचना में अधिक तर्कशक्ति और विचार
क्षमता में प्रवेश किया। हिंदी आलोचना को वैज्ञानिक आधार शुक्ल युग में ही मिला।
उसमें विश्लेषण की प्रवृत्ति भी आई। इस तरह आपने देखा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल का हिंदी आलोचना के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। यही कारण है कि हमने हिंदी आलोचना का विकास केंद्र आचार्य रामचंद्र शुक्ल को मानते हुए उसे तीन युगों में बाँटा:
- शुक्ल पूर्व हिंदी आलोचना
- शुक्लयुगीन हिंदी आलोचना
- शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना
शुक्लोत्तर युग में समीक्षा की अनेक नयी पद्धतियों अपनाई जाने लगीं। क्योंकि युगीन साहित्य को समझने के लिए आलोचना के पुराने मानदंड काफी नहीं थे। इन पद्धतियों में प्रमुख है स्वच्छंदतावादी, ऐतिहासिक, मार्क्सवादी, मनोविश्लेषणात्मक और नयी आलोचना । हिंदी साहित्य के विकास के साथ-साथ आलोचना के मूल्यांकन में भी प्रगतिशील परिवर्तन हुए हैं, किंतु अभी आलोचना को विभिन्न नए आयामों की आवश्यकता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न – हिंदी आलोचना का उद्भव और विकास
1. हिंदी आलोचना का आरंभ कब और कैसे हुआ?
हिंदी आलोचना का आरंभ 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ, जब आधुनिक हिंदी साहित्य का विकास हो रहा था। भारतेंदु युग को आलोचना का प्रारंभिक दौर माना जाता है, लेकिन व्यवस्थित आलोचना का विकास द्विवेदी युग में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में हुआ। उन्होंने साहित्य के मूल्यांकन के लिए तर्क और विवेक पर आधारित दृष्टिकोण अपनाया।
2. हिंदी साहित्य में आलोचना का मुख्य उद्देश्य क्या होता है?
हिंदी आलोचना का मुख्य उद्देश्य साहित्यिक रचनाओं का मूल्यांकन, विश्लेषण और व्याख्या करना होता है। आलोचना साहित्य को सही संदर्भ में समझने, उसकी गुणवत्ता आंकने तथा साहित्यिक विकास की दिशा तय करने में सहायता करती है।
3. हिंदी आलोचना के प्रमुख युग कौन-कौन से हैं?
हिंदी आलोचना को निम्नलिखित प्रमुख युगों में बाँटा जा सकता है:
- प्रारंभिक आलोचना (भारतेंदु युग)
- द्विवेदी युग की आलोचना
- छायावादी युग की आलोचना
- प्रगतिवादी आलोचना
- नई कविता और प्रयोगवादी आलोचना
- समकालीन आलोचना (उत्तर-आधुनिक, स्त्रीवादी, दलित आदि दृष्टिकोण)
4. हिंदी आलोचना के प्रमुख आलोचक कौन हैं?
हिंदी आलोचना के प्रमुख आलोचकों में निम्नलिखित नाम प्रमुख हैं:
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- डॉ. नगेन्द्र
- डॉ. नामवर सिंह
- डॉ. रामविलास शर्मा
- केदारनाथ सिंह
- गजानन माधव मुक्तिबोध
5. आधुनिक हिंदी आलोचना में कौन-कौन सी प्रवृत्तियाँ प्रमुख हैं?
आधुनिक हिंदी आलोचना में कई प्रवृत्तियाँ विकसित हुई हैं, जिनमें प्रमुख हैं:
- प्रगतिवादी आलोचना
- मार्क्सवादी आलोचना
- मनोविश्लेषणात्मक आलोचना
- उत्तर-आधुनिक आलोचना
- स्त्रीवादी एवं दलित आलोचना

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