काव्य-दोष | भारतीय काव्यशास्त्र | Kavya Dosh | Bhartiya Kavyashastra

जो तत्त्व काव्य, काव्य-रस और काव्य-सौन्दर्य में शिथिलता, उपेक्षा अथवा अपकर्ष (ह्रास) लाते हैं तथा शब्द-अर्थ में विकृति पैदा करते हैं, वे दोष अथवा काव्यदोष हैं।

विभिन्न आचार्यों ने काव्यदोष की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं ।

आचार्य भरतमुनि के शब्दों में गुण का विपर्यय दोष है ।  (विपर्यय = प्रतिकूलता)

आचार्य भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ के सोलहवें अध्याय में दस काव्य-दोष माने गए हैं। वे हैं – 1.गूढ़ार्थ, 2.अर्थान्तर, 3.अर्थहीन, 4.भिन्नार्थ, 5.एकार्थ, 6.अभिलुप्तार्थ, 7.न्यायादपेत, 8.विषय, 9.विसन्धि, 10.शब्दच्युत 

काव्य में दोष की अवधारणा अत्यन्त प्राचीन है। काव्य का दोष-रहित होना आवश्यक माना गया है। आचार्य ‘मम्मट’ ने ‘काव्यप्रकाश’ में काव्य की परिभाषा करते हुए कहा है- “तत् अदोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि ।”

काव्य-दोषों के सम्बन्ध में आचार्य ‘वामन’ ने बहुत स्पष्ट कहा है कि जिन तत्वों से काव्य-सौन्दर्य की हानि होती है, उन्हें दोष समझना चाहिए।

आचार्य ‘मम्मट’ के अनुसार जिससे मुख्य अर्थ का अपकर्ष (ह्रास) हो, उसे दोष कहते हैं। मुख्य अर्थ है- ‘रस’। इसलिए जिससे रस का अपकर्ष (ह्रास) हो, वही दोष है।

हिंदी में चिन्तामणि, कुलपति मिश्र, सूरति मिश्र, श्रीपति, सोमनाथ, भिखारीदास आदि आचार्यों ने काव्य-दोषों पर विचार किया है। इनमें अधिकांश का आधार ‘मम्मट’ का ‘काव्य-प्रकाश’ है।

आचार्य मम्मट ने दोषों के मुख्य रूप से तीन भेद किए हैं-

1.शब्द-दोष, 2.अर्थदोष, 3.रस-दोष।

दोषों की संख्या उनके अनुसार 70 है। इनमें 37 शब्द-दोष, 23 अर्थदोष और 10 रस-दोष हैं। अब हम कुछ प्रमुख दोषों पर चर्चा करेंगे ।

1.शब्द-दोष या पद दोष (भेद-सहित)

शब्द-दोष या पद दोष के अन्तर्गत ‘शब्दांश’ (पदांश), ‘शब्द’ (पद) और ‘वाक्य’ तीनों की गणना की जाती है।

(1) श्रुति-कटुत्व – जहाँ सुनने में कठोर लगने वाले शब्दों का अधिक प्रयोग किया जाता है, वहाँ श्रुति-कटुत्व दोष माना जाता है।

उदाहरण : पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता।

उपर्युक्त पंक्ति में ‘विषयोत्कृष्टता’ और ‘विचारोत्कृष्टता’ सुनने में कठोर लगते हैं। इसलिए यहाँ’ श्रुति-कटुत्व’ दोष है।

(2) च्युत-संस्कृति – व्याकरण-विरुद्ध प्रयोगों में च्युत-संस्कृति दोष माना जाता है।

उदाहरण : पीछे मघवा मोहिं साप दई।

         अंगद रक्षा रघुपति कीन्हो ॥

उपर्युक्त पहली पंक्ति में ‘मघवा’ शब्द पुल्लिंग है, इसलिए क्रिया ‘दई’ न होकर ‘दयों’ होनी चाहिए। इसी प्रकार दूसरी पंक्ति में ‘रक्षा’ स्त्रीलिंग है, इसलिए क्रिया ‘किन्ही’ होनी चाहिए। व्याकरण-विरुद्ध प्रयोगों के कारण यहाँ च्युत-संस्कृति दोष है।

(3) अप्रयुक्तत्व – जहाँ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाय जो व्याकरण और कोश से सिद्ध (सही) हो किन्तु प्रचलन में न हो, वहाँ अप्रयुक्तत्व-दोष माना जाता है।

उदाहरण : पुत्र जन्म उत्सव समय स्पर्श कीन्ह बहु गाय।

यहाँ ‘स्पर्श’ का प्रयोग दान के अर्थ में किया गया है। कोश से यह अर्थ ठीक है पर प्रचलन में न होने के कारण उसे अप्रयुक्तत्व-दोष मानेंगे।

(4) असमर्थत्व – जब हम किसी शब्द का प्रयोग किसी विशेष अर्थ की प्रतीति (जानकारी या ज्ञान प्रदान करने के लिए) के लिए करते हैं और वह शब्द उस अर्थ की प्रतीति नहीं करा पाता तब ‘असमर्थत्वदोष’ होता है।

उदाहरण : जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की

          क्षमा वहाँ निष्फल है।

उपर्युक्त उदाहरण में ‘शोध’ शब्द का प्रयोग प्रतिशोध (बदला लेने) के अर्थ में किया गया है किन्तु उससे अभीष्ट अर्थ व्यक्त नहीं हो पाता। यहाँ असमर्थत्वदोष है।

(5) निहतार्थत्व – जहाँ दो अर्थों वाले शब्द का अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयोग किया जाता है वहाँ ‘निहतार्थत्व’ दोष होता है।

उदाहरण : विषमय यह गोदावरी, अमृतन के फल देति।

उपर्युक्त उदाहरण में ‘विष’ शब्द का प्रयोग ‘जल’ के अर्थ में किया गया है। विष का प्रसिद्ध अर्थ ‘जहर’ है। ‘जल’ का अर्थ अप्रसिद्ध है। इसलिए यहाँ ‘निहतार्थत्व’ दोष है।

(6) अनुचितार्थत्व – जहाँ कोई शब्द अनुचित अर्थ का बोध कराता है, वहाँ ‘अनुचितार्थत्व’ दोष होता है।

उदाहरण :  व्हैके पसु रन-यज्ञ में, अमर होहिं जग सूर।

उपर्युक्त उदाहरण में शूरवीरों के लिए ‘पशु’ शब्द का प्रयोग अनुचित है।

इसलिए यहाँ अनुचितार्थत्व दोष है।

(7) अश्लीलत्व – जहाँ ‘लज्जा’, ‘घृणा’ और ‘अमंगल’ सूचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है वहाँ ‘अश्लीलत्व’ दोष होता है।

उदाहरण : लहू में तैर-तैर के नहा रही जवानियाँ।

उपर्युक्त उदाहरण में जवानियों का लहू में तैर-तैर कर नहाना घृणा-व्यंजक है। इसलिए यहाँ अश्लीलत्व-दोष है।

(8) क्लिष्टत्व – जहाँ ऐसे शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका अर्थ-बोध कठिनता से होता है, वहाँ ‘क्लिष्टत्व’ दोष होता है। इसे ‘गूढ़ार्थ’ दोष भी कहते हैं।

उदाहरण : अहि-रिपु-पति-पिय-सदन है मुख तेरो रमनीय।

उपर्युक्त उदाहरण में कवि नायिका के मुख को ‘कमल’ के समान रमणीय कहना चाहता है किन्तु ‘कमल’ अर्थ तक हम बड़ी कठिनाई से पहुँचते हैं।

अहि = सर्प, उसका रिपु गरुड़, गरुड़ के पति विष्णु, विष्णु की प्रिया लक्ष्मी, लक्ष्मी का सदन कमल। इतनी कष्टसाध्य यात्रा के बाद अर्थ की प्राप्ति होने के कारण यहाँ ‘क्लिष्टत्व’ दोष है।

(9) संदिग्धत्व – जहाँ किसी ऐसे पद का प्रयोग हो जो दो अर्थों का उपस्थापक (द्योतक) हो और यह सन्देह बना रहे कि कौन सा अर्थ तात्पर्यभूत (अभिप्राय) है, वहाँ ‘संदिग्धत्व’ दोष माना जाता है।

उदाहरण : बंद्या पर करिये कृपा

उपर्युक्त उदाहरण में ‘बंद्या’ पद के दो अर्थ हैं- वन्दिनी और वन्दनीया। प्रयोग से यह स्पष्ट नहीं है कि यहाँ तात्पर्यभूत अर्थ क्या है (इसका अभिप्राय क्या है)?

(10) अप्रतीतत्व – जहाँ शास्त्र-विशेष के किसी ऐसे पारिभाषिक शब्द का प्रयोग किया जाता है जो लोक-प्रचलित नहीं होता वहाँ ‘अप्रतीतत्व’ दोष माना जाता है।

उदाहरण : जग जीव जतीन की छूटी तटी

उपर्युक्त उदाहरण में ‘तटी’ शब्द योगशास्त्र का है जिसका प्रयोग ‘त्राटक मुद्रा’ के अर्थ में होता है। शास्त्र-विशेष का पारिभाषिक शब्द होने के कारण अर्थ की प्रतीति में बाधा होती है। इसलिए यहाँ’ अप्रतीतत्व’ दोष है।

(11) न्यूनपदत्व (वाक्य-दोष) – जहाँ अभीष्ट अर्थ के वाचक पद (बोध कराने वाले पद) का प्रयोग न किया गया हो, वहाँ न्यून-पदत्व दोष होता है।

उदाहरण : पानी पावक पवन प्रभु, ज्यों असाधु त्यों साधु

उपर्युक्त उदाहरण में कवि का अभीष्ट अर्थ यह है कि पानी, आग, वायु और स्वामी ‘साधु’ और ‘असाधु’ दोनों के प्रति एक-सा व्यवहार करते हैं किन्तु ‘ज्यों असाधु त्यों साधु’ कहने से पूरी बात स्पष्ट नहीं होती। यहाँ ‘समान व्यवहार करते हैं’ इस अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कोई और ‘पद’ होना चाहिए। इसलिए यहाँ ‘न्यूनपदत्व-दोष’ है।

(12) अधिकपदत्व (वाक्य-दोष) – जहाँ वाक्य में अविवक्षित अर्थ (अनावश्यक अर्थ) का सूचक पद प्रयुक्त होता है वहाँ अधिकपदत्व दोष माना जाता है।

उदाहरण : लपटी पुहुप-पराग-पट, सनी स्वेद मकरंद ।

        आवनि नारि नवोढ लौं, सुखद वायु गति मंद ॥

उपर्युक्त दोहे में ‘पुहुप’ शब्द अनावश्यक है। ‘पराग’ कहने से ही ‘पुष्प-रज’ का बोध हो जाता है। ‘पुहुप पद’ अधिक है। इसलिए यहाँ ‘अधिकपदत्व’ दोष है।

(13) पतत्प्रकर्ष (वाक्य-दोष) – जहाँ किसी वस्तु का प्रकर्ष (उत्कृष्टता) दिखाकर फिर ऐसा वर्णन किया जाय कि प्रकर्ष में न्यूनता आ जाय वहाँ ‘पतत्प्रकर्ष’ दोष माना जाता है।

उदाहरण :   कहँ मिश्री कहँ ऊख रस नहिं पीयूष समान।

           कलाकंद कतरा अधिक तुव अधरारस पान ॥

उपर्युक्त उदाहरण में अधरों के रस को पीयूष से भी उत्कृष्ट कहकर फिर ‘कलाकंद’ से उत्कृष्ट कहना पतत्प्रकर्ष है।

(14) दूरान्वय दोष – यह अन्वय-दोष के अन्तर्गत आता है। जहाँ वाक्य-प्रयोग में किसी शब्द को उसके विशेष्य से इतना दूर रख दिया गया हो कि अन्वय करने में दूरी के कारण कठिनाई हो, वहाँ ‘दूरान्वय-दोष’ माना जाता है। (अन्वय = तार्किक क्रम)

उदाहरण : हृदय की अनुकृति वाह्य उदार, एक लम्बी काया उन्मुक्त।

उपर्युक्त उदाहरण में ‘उदार’ को ‘हृदय’ के पास होना चाहिए। ‘उदार’ शब्द हृदय का विशेषण है। अन्वय करते समय उसे दूर से खींच कर हृदय के (विशेषण के रूप में) समीप लाना पड़ता है। इसलिए यहाँ दूरान्वय-दोष है।

2. अर्थ-दोष (भेद-सहित)

(1) ग्राम्यत्व – गँवारू या ग्रामीण बोलचाल के शब्दों का शिष्ट साहित्य में प्रयोग ग्राम्यत्व दोष है।

उदाहरण : धनु है यह ‘गौरमदाइन’ नाहीं। (केशवदास)

उपर्युक्त उदाहरण में ‘गौरमदाइन’ का प्रयोग ‘इन्द्रधनुष’ के अर्थ में किया गया है। यह प्रयोग बुन्देलखण्डी बोली में ही होता है। अतः यहाँ ग्राम्यत्व-दोष है।

(2) दुष्क्रमत्व दोष – जहाँ किसी बात को सामान्य लोक-नियम की अवहेलना करके प्रस्तुत किया जाय वहाँ दुष्क्रमत्व दोष होता है।

उदाहरण : पैसे दे दो पाँच नहीं तो दस ही दे दो।

उपर्युक्त उदाहरण में लोक-नियम की अवहेलना की गई है। लोक में अधिक की माँग पूरी न होने की स्थिति में कम की माँग की जाती है। यहाँ पाँच के बाद दस की माँग की गई है। इसलिए दुष्क्रमत्व-दोष है।

(3) पुनरुक्तत्व – जहाँ शब्द-भेद से एक ही बात दो बार कही जाय, वहाँ ‘पुनरुक्तत्व’ दोष होता है।

उदाहरण : मैं निस्तेजों का तेज, युगों के ‘मूक’ ‘मौन’ की बानी हूँ।

उपर्युक्त उदाहरण में ‘मूक’ और ‘मौन’ में शब्द-भेद-मात्र है। अर्थ एक ही है। अतः यहाँ पुनरुक्तत्व-दोष है।

(4) कष्टार्थत्व – जहाँ अर्थ की प्रतीति में कष्ट हो, वहाँ कष्टार्थत्व दोष होता है। क्लिष्टत्व (शब्द-दोष) में शब्द का परिवर्तन कर देने पर अर्थ की प्रतीति में क्लिष्टता नहीं रहती किन्तु ‘कष्टार्थत्व’ (अर्थ-दोष) में शब्द-परिवर्तन कर देने पर भी क्लिष्टता बनी रहती है।

उदाहरण : वैसे अभेद सागर में प्राणों का सृष्टि क्रम है।

        सब में घुलमिलकर रसमय, रहता यह भाव चरम है।

 उपर्युक्त उदाहरण में अर्थबोध में कठिनाई है। अतः यहाँ ‘कष्टार्थत्व’ दोष है ।

(5) अयुक्तपदत्व – जहाँ ऐसे अयुक्त पद (असंबद्ध, अनुपयुक्त पद) का प्रयोग होता है जिससे कवि के अभीष्ट अर्थ का समर्थन न होकर खण्डन हो जाता है, वहाँ ‘अयुक्तपदत्व’ दोष होता है।

उदाहरण : आज्ञानुकारि सुरनाथ, पुरारिभक्ति,

         लंकापुरी, विमलवंश, अपारशक्ति

         है धन्य, ये यदि न रावणता कहीं हो,

         एकत्र सर्वगुण किंतु कहीं नहीं हो।

उपर्युक्त उदाहरण में चौथे पद में जो बात कही गई है उससे कवि के अभीष्ट अर्थ की पुष्टि नहीं होती। चौथे पद में कही गई बात प्रतिपाद्य अर्थ के विरोध में चली गई है। इसलिए यहाँ अयुक्तपदत्व दोष है।

(6)  प्रसिद्धि-विरुद्ध – जहाँ लोक या शास्त्र-विरुद्ध वर्णन हो, वहाँ प्रसिद्धि-विरुद्ध-दोष होता है।

उदाहरण : उदयगिरि पर पिनाकी का कहीं टंकार बोला।

उपर्युक्त उदाहरण में पिनाकी (शिव) का सम्बन्ध उदयगिरि से दिखाया गया है। यह लोक और शास्त्र-विरुद्ध है। पिनाकी का सम्बन्ध कैलाश पर्वत से है। उनके धनुष की टंकार कैलाश पर ही सुनाई पड़ेगी, उदयगिरि पर नहीं। अतः यहाँ ‘प्रसिद्धि-विरुद्ध’ दोष है।

(7) साकांक्षत्व – जहाँ अर्थ की संगति के लिए किसी शब्द की आकांक्षा बनी रहे अर्थात् वाक्य के अर्थ की संगति के लिए किसी शब्द की आवश्यकता हो किन्तु कवि ने उसका प्रयोग न किया हो, वहाँ ‘साकांक्षत्व-दोष’ होता है।

उदाहरण : परिरंभ कुंभ की मदिरा, निश्वास-मलय के झोंके।

        मुख-चन्द्र-चाँदनी जल में, मैं उठता था मुँह धोके ॥

उपर्युक्त उदाहरण में ‘परिरंभ कुंभ की मदिरा’ के बाद ‘पीकर’ क्रिया पद की आकांक्षा वाक्य की अर्थ-संगति के लिए बनी रहती है। इसलिए यहाँ ‘साकांक्षत्व-दोष’ है।

3. रस-दोष (भेद-सहित)

वैसे तो सभी प्रकार के दोषों से ‘रस’ का अपकर्ष (ह्रास) होता है किन्तु सभी दोष नित्य (शाश्वत, अविनाशी, निरंतर)नहीं होते। शब्द-दोष और अर्थ-दोष अनित्य होते हैं। ‘रस-दोष’ नित्य होते हैं।

रस के आस्वादन में जिन कारणों से बाधा उत्पन्न होती है उन्हें ही रस-दोष माना जाता है। रस-दोष दस हैं।

यहाँ संक्षेप में प्रत्येक रस-दोष के स्वरूप की व्याख्या आवश्यक है।

1.स्व-शब्दवाच्यत्व – जहाँ किसी रस की व्यञ्जना की सूचना उसके नाम के कथन द्वारा दी जाती है वहाँ ‘स्वशब्द वाच्यत्व दोष’ माना जाता है। रस की व्यंजना उसके अंगों के उचित संयोग से होनी चाहिए। रस-विशेष की व्यंजक कविता में उसका नाम नहीं आना चाहिए।

उदाहरण : अंचल ऐंचि जु सिर धरत, चंचल नैनी चारु।

        कुच कोरनि हिम कोरि कै, भर्यो सुरस श्रृंगार ॥

उपर्युक्त दोहे में ‘श्रृंगार’ शब्द का प्रयोग नहीं होना चाहिए। नायिका की चेष्टाओं से श्रृंगार की व्यञ्जना स्वतः हो रही है। ‘श्रृंगार’ शब्द के प्रयोग से श्रृंगार-व्यञ्जना की सूचना देने से यहाँ ‘स्व-शब्द वाच्यत्व’ दोष माना जायगा।

2. विभावादि की कष्टकल्पना – जहाँ कविता को पढ़कर विभाव-अनुभाव की ठीक-ठीक कल्पना करने में कठिनाई होती है, वहाँ कष्टकल्पना दोष माना जाता है।

(विभाव = आश्रय में भाव उद्दीप्त करने वाला हेतु)

(अनुभाव = मनोगतभाव की सूचक बाह्य क्रियाएँ या चेष्टाएँ)

उदाहरण: उठति, गिरति, फिरि-फिरि उठति, उठि-उठि गिरि-गिरि जात।

       कहा करौं कासौं कहाँ क्यों जीवै यहि राति ॥

उपर्युक्त दोहे में विरह-दशा का वर्णन है किन्तु नायिका की जो दशा वर्णित है उसमें यह पता नहीं चलता कि यह साधारण व्याधि है या विरह की व्याधि। इसमें श्रृंगार का कोई संकेत नहीं है। अतः यह कल्पना करने में कठिनाई होती है कि आलम्बन विभाव किस रस का है।

3. परिपंथि रसांग-परिग्रह – जहाँ जिस रस का वर्णन अभीष्ट हो वहाँ उसी के अथवा उसके अनुकूल रस के अंगों का वर्णन होना चाहिए। जैसे श्रृंगार के वर्णन में या तो श्रृंगार के विभावादि का वर्णन होना चाहिए या हास्य के; किन्तु जब श्रृंगार के वर्णन में ‘भयानक’ के ‘विभावादि’ का वर्णन होगा तो ‘परिपंथि-रसांग-परिग्रह’ दोष माना जायगा।

4. रस की पुनः पुनः दीप्ति – जहाँ एक ही रस की बार-बार दीप्ति होती है, वहाँ ‘पुनः पुनः दीप्ति’ दोष माना जाता है। वस्तुतः सहृदय के हृदय को काव्य में लीन करने के लिए अनेक रसों का उचित विनियोग होना चाहिए। बार-बार एक ही रस की दीप्ति अप्रीतिकर होती है।

5.अकाण्डप्रथन – जहाँ जिस रस के विस्तार का अवसर न हो, वहाँ अनावश्यक रूप से उसका विस्तार किया जाय तो ‘अकाण्डप्रथन’ दोष आ जाता है। करुण-रस के प्रसंग में श्रृंगार का विस्तार ‘अकाण्ड-प्रथन-दोष’ माना जायगा।

6. अकाण्डच्छेदन – किसी रस का वर्णन करते समय सहसा (परिस्थिति का विचार किए बिना) उसे समाप्त कर देना अकाण्डच्छेदन दोष है। सहसा सहृदय का चित्त एक रस से हटकर दूसरे में प्रवृत्त नहीं हो पाता। इस मनोवैज्ञानिक सत्य को ध्यान में रखकर किसी रस की समाप्ति और अन्य रस का आरंभ करना चाहिए।

7. अंगभूत रस का विस्तार – किसी भी प्रबन्ध-रचना में एक अंगी रस (प्रधान रस) होता है। अन्य रस उसके अंग बनकर आते हैं। अंग बनकर आने वाले रसों का अनावश्यक विस्तार उपर्युक्त दोष का कारण बनता है।

8. अनंग-वर्णन – जो प्रधान या अंगी रस की निष्पत्ति में सहायक न हो उस ‘अनंग’ (अर्थात् जो प्रधान रस का अंग न हो) का वर्णन करने से ‘अनंग-वर्णन’ दोष माना गया है।

9.अंगी की विस्मृति – नाटक या प्रबन्ध-काव्य में नायक और नायिका का विशेष महत्त्व होता है। अंगी रस की निष्पत्ति भी उन्हीं के माध्यम से होती है। अतः उन्हें नाटक या प्रबन्ध-काव्य में प्रमुखता मिलनी चाहिए। रचनाकार जब उन्हें विस्मृत कर देता है और गौण पात्रों को अधिक महत्त्व देता है तब अंगी की विस्मृति का दोष माना जाता है।

10. प्रकृति-विपर्यय – भारतीय नाट्यशास्त्र में नायक की प्रकृति निर्धारित होती है। नायक तीन प्रकार के होते हैं- (क) दिव्य, (ख) अदिव्य (मनुष्य), (ग) दिव्यादिव्य (मनुष्य के रूप में अवतरित देवता)।

निष्कर्ष

इन सभी नायकों की प्रकृति का एक बना-बनाया रूप लोक-मानस में अंकित है। उदाहरण के लिए राम का ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ रूप सर्वविदित है। जहाँ इस प्रकृति का विपर्यय करके वर्णन किया जायगा अर्थात् राम को मर्यादा-भंजक रूप में प्रस्तुत किया जायगा वहाँ प्रकृति-विपर्यय दोष होगा। (विपर्यय = प्रतिकूलता, विपरीतता)

उपर्युक्त सभी दोष रस की व्यञ्जना में बाधा पहुँचाते हैं। अतः इन्हें रस-दोष माना जाता है। इनमें अंतिम सात की स्थिति प्रबन्ध-काव्यों में ही लक्षित होती है। विचारपूर्वक देखा जाय तो सभी रस-दोषों का मूल कारण एक ही है- अनौचित्य । औचित्य ही रस का पोषक है और अनौचित्य ही रस में सबसे बड़ा बाधक है।

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