अपभ्रंश की विशेषताएं | Apbhransh ki Visheshtaen

अपभ्रंश भाषा (या भाषाओं) का समय 500 ई. से 1000 ई. तक माना जाता है। अपभ्रंश शब्द का अर्थ आमतौर पर विद्वान “अपभ्रष्ट” या “बिगड़ी हुई” भाषा लेते हैं। इस भाषा के निम्नलिखित नाम भी हैं अवब्भंस, अवहंस, अवहट्ठ (अपभ्रष्ट), अवहट, अवहत्थ आदि। यह बोलचाल की भाषा अर्थात् देश भाषा थी। आज हम Apbhransh ki Visheshtaen विषय को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे । इसलिए कृपया इस लेख को पूरा पढ़ें।

अपभ्रंश का सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य व्याडि (पतंजलि से पूर्ववर्ती) ने किया था ।

अपभ्रंश का अर्वप्रथम प्रामाणिक प्रयोग पतंजलि के ‘महाभाष्य’ में मिलता है ।

अपभ्रंश का सबसे प्राचीन उदाहरण भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में प्राप्त होता है, जिसमें अपभ्रंश को विभ्रष्ट कहा गया है ।

अपभ्रंश मध्यकालीन और आधुनिक आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी है । भाषा के अर्थ में इसका प्रयोग छठी शती से होने लगता है ।

14वीं शताब्दी के कवि विद्यापति लिखते हैं- “देसिल बअना सबजन मि‌ट्ठा। तें तैंसन जंपओं अवह‌ट्ठा” अर्थात् देशी भाषा (बोलचाल की भाषा) सबको मीठी लगती है, इससे वैसा ही अपभ्रंश (देशी भाषा का मिला हुआ) मैं कहता हूँ । विद्यापति ने अपभ्रंश से भिन्न, प्रचलित बोलचाल की भाषा को ही ‘देशी भाषा’ कहा है । (आचार्य रामचन्द्र शुल्क- हिंदी साहित्य का इतिहास)

अपभ्रंश साहित्य

अपभ्रंश का साहित्य विविध प्रकार का है। इसकी प्रमुख धाराएँ निम्न प्रकार की हैं; 

(क) पुराण साहित्य

अपभ्रंश में प्रमुख रूप से जैनियों के पुराण लिखे गये जिनमें प्रमुख हैं पुष्पदंत का ‘महापुराण’ और शालिभद्र सूरि का ‘बाहुबलि रास’।

अपभ्रंश के राम काव्य के कवि स्वयंभू ने ‘पउम चरिउ’ (पद्म चरित्र याने राम काव्य) की रचना की।

 (ख) चरित्र काव्य

चरित्र काव्य लोकप्रिय व्यक्तियों के जीवन चरित्र हैं। पुष्पदंत के णायकुमार चरिउ (नागकुमार चरित्र),  जसहर चरिउ आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।

 (ग) कथा काव्य

ये आदि काल के महाकाव्यों की तरह काल्पनिक कथा कृतियाँ हैं।

 (घ) जैन कवियों का नीतिपरक साहित्य

ये वो मुक्तक रचनाएँ हैं, जिनमें जीवन के आदर्शों का विवरण है। जोइन्दु का  “परमात्म प्रकाश” और “योग सार” और रामसिंह का “पाहुड़ दोहा” प्रमुख कृतियाँ हैं।

(ङ)  बौद्ध सिद्ध साहित्य

बौद्ध सिद्ध कवियों ने रहस्य साधना संबंधी अपनी काव्य रचना अपभ्रंश में ही की। इस धारा में सरहपा और काण्हपा के दोहा कोष प्रसिद्ध हैं।

(च)  आदिकालीन रचनाएँ

हम जिसे हिंदी साहित्य का आदिकाव्य कहते हैं उसकी कई रचनाएँ अपभ्रंश में हुई हैं। काव्य कृतियों में “रासो साहित्य” आदिकाल की प्रमुख रचनाएँ हैं। उनमें अब्दुल रहमान की कृति ‘संदेश रासक’ अपभ्रंश में लिखी गयी है।

अपभ्रंश के रूप

अपभ्रंश के कितने रूप हैं? विद्वानों में इस संबंध में मतभेद हैं। कुछ विद्वान अपभ्रंश के दो रूप मानते हैं -पश्चिमी और पूर्वी। अब सर्वमान्य विचार छह रूपों का है। ये हैं शौरसेनी, पैशाची, ब्राचड़, महाराष्ट्री, मागधी और अर्ध मागधी। अब यह माना जाता है कि इन्हीं क्षेत्रीय रूपों से विविध आधुनिक आर्य भाषाओं का विकास हुआ।

अपभ्रंश भाषा की विशेषताएँ

अपभ्रंश भाषा की विशेषताओं का अध्ययन हम ध्वनि के स्तर पर और व्याकरण के स्तर पर अलग-अलग रूप से निम्नानुसार कर सकते हैं :

ध्वनि स्तर

ध्वनि स्तर पर इसकी तीन-चार विशेषताएँ हैं, जो आधुनिक हिंदी और उसकी बोलियों के स्वरूप को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

i) स्वरों का दीर्घीकरण हुआ जैसे अक्खि से आखि। हिंदी में आँख आदि शब्दों का रूप इसी से विकसित हुआ।

ii) अनुनासिकता का विकास इसी युग में हुआ, जैसे बक्र से बंक (और आधुनिक हिंदी में बाँका)।

iii) शब्द उकार बहुल थे याने /उ/ से समाप्त होते थे जैसे चरिउ (चरित), बहुतु (बहुत)। आधुनिक हिंदी में शब्दांत स्वर समाप्त हो गये।

व्याकरणिक स्तर

i) अपभ्रंश में दो ही वचन (एकवचन और बहुवचन) मिलते हैं । 

ii) संस्कृत के तीन लिंगों के स्थान पर दो लिंगों पुल्लिंग व स्त्रीलिंग का प्रयोग होने लगा। 

iii) संस्कृत शब्दों के संज्ञा रूप 24 थे, जो पालि में 14 बने, प्राकृत में 12 और अपभ्रंश तक आते-आते सिर्फ़ 6 ही रह गये। उदाहरण के लिए पुत्त (पुत्र) शब्द लिया जा सकता है।

iv) संज्ञा के कारक रूप कम होने के कारण विभक्ति के अर्थ को प्रकट करने के लिए परसर्ग शब्दों का प्रयोग बढ़ा।

v) भाषा के आयोगात्मक हो जाने से वाक्य में पदों का क्रम निश्चित हो गया । कुल मिलाकर अपभ्रश की प्रवृत्ति आर्यभाषाओं की ओर बढ़ रही थी ।

vi) अपभ्रंश में संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग व्यापक रूप से होने लगा, जैसे जाऊँ गउ, भागा एन्तु, रडन्तउ जाइ, ज=कहि न सक्कउ ।

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