आरम्भिक हिंदी को प्रारंभिक हिंदी, प्राचीन हिंदी अथवा पुरानी हिंदी के नाम से भी जाना जाता है। चंद्रधर शर्मा गुलेरीजी के शब्दों में “अपभ्रंश का परवर्ती रूप ही पुरानी हिंदी है।”
आरम्भिक हिंदी, अपभ्रंश से विकसित अवहट्ट तथा आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी है ।
उत्तरकालीन अपभ्रंश पुरानी हिंदी से साम्य रखता था। यही स्थल पुरानी हिंदी का उद्गम स्थल है। अपनी प्रौढ़ सामर्थ्य के कारण पुरानी हिंदी ने अनेकानेक कवियों को साहित्य-सृजन के लिए प्रेरित किया। इसके अंतर्गत आदिकालीन रासोकाव्य, रासकाव्य, परवर्ती सिद्ध काव्य, नाथ काव्य आदि को परिगणित किया जा सकता है।
आरम्भिक हिंदी की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- (arambhik hindi ki pramukh visheshtaen)
1. अवहट्ट में जिन दो स्वरों- ऐ, औ का प्रवेश हुआ, आरम्भिक हिंदी में उसका प्रयोग बहुलता से हुआ।
2. अनुनासिक तथा अनुस्वार दोनों के लिए बिन्दु का प्रयोग किया गया।
3. सभी शब्द स्वरांत होते हैं, व्यंजनांत नहीं। इसे उकार बहुला भाषा कहा गया। जैसे- पापु, पिंडु, चलु आदि।
4. श, ष. स के स्थान पर सर्वत्र ‘स’ का ही प्रयोग होता है।
5. ड़ और ढ़ का प्रयोग भी स्पष्ट रूप से होने लगा। ण के प्रयोग की बहुलता है। ह कार का प्राधान्य है। व-ब में कोई अंतर नहीं रह गया। शब्द के बीच में आने वाला ‘म’ अब ‘व’ या ‘उ’ रूप में मिलता है, जैसे- कमल > कवल, दमन >डवण।
6. शब्द के आरंभ में आने वाले संयुक्त व्यंजनों में से केवल एक ही रह गया, जैसे- स्कंध > कंधा, प्रिय > पिय। शब्द के मध्य में आने वाले संयुक्त व्यंजन द्वित्व हो गए। यथा – दुर्जन > दुज्जन, अक्षर > अक्खर इत्यादि ।
7. अनुकरणात्मक शब्दों की प्रचुरता भी आरम्भिक हिंदी की विशेषता है। उदाहरणार्थ – कनकन, डगमगाना।
8. व्याकरणिक कोटियों की दृष्टि से नये-नये प्रत्यय, परसर्ग और कृदन्त रूप विकसित हुए। सविभक्तिक प्रयोग बहुत थोड़े हैं, प्रायः निर्विभक्ति रूप अर्थात् बिना कारक चिह्न के सभी कारकों के अर्थ प्राप्त होते हैं।
9. प्रायः स्त्रीलिंग शब्द इकारांत हैं; जैसे- आँखि, आगि, औरति, बहुरिया आदि। संख्यावाचक विशेषण स्पष्ट होने लगे।
10. अपभ्रंश और अवहट्ट की तरह ही तद्भव शब्दों की प्रधानता रही, किन्तु भक्ति-आन्दोलन के प्रभाव से तत्सम शब्दों का प्राचुर्य बढ़ा। मुगल काल में अरबी-फारसी शब्दों का प्रवेश हुआ।
इस प्रकार ध्वनि व्यवस्था, व्याकरण रूप तथा शब्द-भण्डार की दृष्टि से आरम्भिक हिंदी, अपभ्रंश, अवहट्ट एवं मध्यकालीन हिंदी के बीच की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है।
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