शौरसेनी अर्थात् परिनिष्ठित अपभ्रंश में देशी बोलियों के मिश्रण से भाषा और साहित्य के जिस रूप का विकास हुआ, उसे ‘अवहट्ट’ कहा जाता है । अवहट्ट ‘अपभ्रंश’ शब्द का विकृत रूप है। इसे परवर्ती अपभ्रंश भी कहा जाता है। अवहट्ट काल सन 900 ई. से 1100 ई. या थोड़ा बाद तक निश्चित किया गया है । साहित्य में इसका प्रयोग चौदहवीं शताब्दी तक होता रहा ।
अवहट्ट की व्याकरणिक विशेषताओं का अध्ययन संज्ञा तथा कारक व्यवस्था, लिंग संरचना, वचन व्यवस्था, सर्वनाम व्यवस्था, विशेषण व्यवस्था, क्रिया संरचना और काल संरचना के आधार पर किया जा सकता है ।
संज्ञा तथा कारक व्यवस्था
संज्ञा के स्तर पर अपभ्रंश में चल रही सरलीकरण की प्रवृत्ति और अधिक विकसित हुई। अवहट्ट में इस दृष्टि से निम्नलिखित विशेषताएँ दिखाई देती हैं-
(i) सभी प्रातिपदिक (धातु शब्द, मूल और रूढ़ शब्द) स्वरांत हो गए, व्यंजनांतता की प्रवृत्ति पूर्णतः लुप्त हो गई।
(ii) अधिकाधिक प्रातिपदिक ‘अकारांत’ होने लगे। इससे रूप-रचना और सरल होने लगी।
(iii) निर्विभक्तिक या लुप्तविभक्तिक प्रयोगों की संख्या काफी बढ़ गई। इससे वाक्य में शब्दों का क्रम निश्चित होने लगा। ऐसे वाक्यों में न विभक्ति होती थी, न ही परसर्ग।
(iv) कुछ प्रयोग ऐसे दिखाई देते हैं जिनमें विभक्तियाँ और परसर्ग दोनों मिलते हैं, जैसे- “युवराजन्हि माँझ तान्हि केरो पुत्त”।
इस उदाहरण में ‘न्हि’ विभक्ति तथा ‘माँझ’ और ‘केरो’ परसर्गों का प्रयोग द्रष्टव्य है।
(v) कुछ प्रयोग ऐसे मिलते हैं जिनमें स्वतंत्र रूप से परसर्ग दिखाई देने लगे हैं। दरअसल, लुप्तविभक्तिक प्रयोगों से भाषा दुरुह होने लगती है, अतः परसर्गों का प्रयोग बढ़ना स्वाभाविक ही था। अवहट्ट में निम्नलिखित परसर्ग पाए जाते हैं-
कर्ता – ने, कर्म – केहि, केहिं, करण – सउँ, से, संप्रदान – केहि, लागि,
अपादान – से, सउँ, संबंध का, के, की, केर, केरा, अधिकरण – माँझ, महिं
(vi) ‘हि’ विभक्ति या परसर्ग का प्रयोग प्रायः सभी कारकों में होता रहा। कुछ भाषावैज्ञानिकों ने तो इसी को अवहट्ट की सबसे बड़ी विशेषता माना है। अपभ्रंश का ‘हिं’ यहाँ प्रायः ‘हि’ हो गया है, जैसे-
जलहिं > जलहि, मणहिं > मणहि
(vii) कर्ता की ‘ए’ विभक्ति को डॉ तगारे ने अवहट्ट की
सबसे प्रमुख विशेषता माना है।
लिंग संरचना
अपभ्रंश की भांति अवहट्ट में भी दो ही लिंग हैं- पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग। संस्कृत के नपुंसकलिंग को अपभ्रंश ने ही अस्वीकार करना आरंभ कर दिया था। अवहट्ट में भी यही प्रवृत्ति बनी रही। यह प्रक्रिया तेज़ गति से चलने के कारण एक समस्या पैदा हुई। नपुंसक लिंग के शब्दों के लिए नए लिंग का निर्धारण करना कठिन हो गया। जो नए-नए शब्द विदेशी संस्कृतियों से आ रहे थे, यह समस्या उन शब्दों के साथ भी थी। कुल मिलाकर, लिंग निर्धारण को लेकर इस भाषा में जटिलता बनी रही है।
वचन व्यवस्था
अपभ्रंश में संस्कृत के तीन वचनों के स्थान पर दो वचनों के प्रयोग की परंपरा का आरंभ हो गया था। इस परिवर्तन में द्विवचन का लोप हो गया था। अवहट्ट में सरलीकरण की यह परंपरा और आगे बढ़ी तथा बहुवचन के भी बहुत से शब्द एकवचन के रूप में प्रयुक्त होने लगे। इसके अतिरिक्त संज्ञा पदों के बहुवचन रूप के लिए ‘न्ह’ या ‘न्हि’ परसगों का प्रयोग होने लगा, जैसे हाथन्ह, पुहुपुन्हि।
सर्वनाम व्यवस्था
सर्वनामों के क्षेत्र में अवहट्ट में कई नए प्रयोग देखने को मिलते हैं। इनकी एक संक्षिप्त सूची इस प्रकार है-
(i) उत्तम पुरुष – ‘मैं’, ‘हौं’, ‘मेरा’
(ii) मध्यम पुरुष – ‘तुम’, ‘तुम्ह’, ‘तुम्हार’, ‘तोहार’
(iii) अन्य पुरुष – ‘वह’, ‘उन्ह’
इन सर्वनामों से अवहट्ट की आधुनिक हिंदी से निकटता आसानी से देखी जा सकती है।
विशेषण व्यवस्था
अवहट्ट में कृदंतीय विशेषणों का विकास तीव्र गति से होने लगा। इनकी विशेषता यह है कि ये विशेष्य के लिंग-वचन के अनुसार परिवर्तित होते हैं। संख्यावाचक तथा सार्वनामिक विशेषण आधुनिक हिंदी के काफी निकट दिखाई देते हैं।
संख्यावाचक विशेषण : सात, दस, बीस, अट्ठाइस
सार्वनामिक विशेषण : अइस, ऐसो, जइस, उत्ता, जित्ता, कित्ता
नोट : क्रिया या धातु के अंत में लगनेवाले प्रत्ययों को कृत् प्रत्यय कहते हैं और उनके मेल से बने शब्दों को कृदंत कहते हैं । ये प्रत्यय क्रिया या धातु को नये रूप देते हैं। इनसे संज्ञा, विशेषण, क्रिया और क्रियाविशेषण बनते हैं।
क्रिया संरचना
क्रिया की दृष्टि से भी अवहट्ट में तीव्र विकास दिखाई देता है। कृदंतों के सहारे क्रिया-निर्माण की परंपरा, जो अपभ्रंश में ही आरंभ हो गई थी, अवहट्ट में पूर्ण विस्तार के साथ दिखाई देती है। अवहट्ट के क्रिया रूप आधुनिक हिंदी की बोलियों से काफी मिलते हैं। क्रियाओं की सरलता द्रष्टव्य है –
धातु – चल, उठ, कह, खा
भूतकालिक कृदंत – भेल, कहल (पूर्वी)
पूर्वकालिक क्रिया – उठि, देखिअ, सुनिअ
वर्तमानकालिक कृदंत – लागत, करत, करन्ता
प्रेरणार्थक क्रिया – पैठाव, करावइ
सहायक क्रिया – है, है (पूर्वी), रहे
इनके अतिरिक्त संयुक्त क्रियाओं की संख्या अवहट्ट में बढ़ रही थी, जैसे- बोल जाअ, दुटि गेलि, भागए चाह।
काल संरचना
अवहट्ट में कालसंरचना के रूप हिंदी की बोलियों की तरह विकसित होने लगे थे। पूर्वी हिंदी और पश्चिमी हिंदी की पृष्ठभूमि के रूप में पूर्वी और पश्चिमी अवहट्ट के रूप विकसित होते हुए दिखते हैं –
(i) वर्तकालकालः पूर्वी अवहट्ट- जात, करत
पश्चिमी अवहट्ट – करन्ता, करन्ते
(ii) भूतकालः पूर्वी अवहट्ट – चलल, गइल (ल-रूप)
पश्चिमी अवहट्ट – थका, थके
(iii) भविष्यकालः पूर्वी अवहट्ट – खाइब, जाइब (ब-रूप)
पश्चिमी अवट्ट- करहि, करिहउँ (ह-रूप)
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