‘खड़ी बोली’ या ‘कौरवी’ का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। यह देहरादून के मैदानी भाग, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, दिल्ली, बिजनौर, रामपुर, मुरादाबाद, बुलंदशहर के अधिकांश हिस्सों में बोली जाती है ।
खड़ी बोली का प्रारम्भिक प्रयोग
खड़ी बोली की आरम्भिक प्रवृत्तियाँ सिद्ध एवं नाथ साहित्य में मिलती हैं। ‘ण’ के स्थान पर ‘न’ का प्रयोग, अकारान्त-एकारान्त एवं आनुनासिकता जैसे भाषिक प्रयोग सिद्धों एवं नाथों के साहित्य में दिखाई देते हैं।
खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में अपनाने का प्रथम श्रेय सूफी सन्त शेख फरीद शकरगंज को दिया जा सकता है।
अमीर खुसरो, जिनका वास्तविक नाम अबुल हसन था, खड़ी बोली के पहले प्रमुख कवि माने जाते हैं। यह बात आश्चर्यजनक लगती है कि 14 वीं शताब्दी के आरम्भ में वे ऐसी भाषा का प्रयोग कर रहे थे, जैसी खड़ी बोली आधुनिक काल में दिखती है।
इसके बावजूद 14वीं सदी में लिखित उनकी खड़ी बोली आज की बड़ी बोली के इतनी अधिक निकट है कि आश्चर्य में डाल देती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इस बात को रेखांकित किया है – “क्या उस समय भाषा घिसकर इतनी चिकनी हो गई थी, जितनी अमीर खुसरो की पहेलियों में मिलती है।” (हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल)
उनकी पहेलियों में खड़ी बोली अपने आधुनिक एवं शुद्ध रूप में नजर आती है-
एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।
इसके बाद सन्त साहित्य में भी खड़ी बोली के आधार पर साहित्यिक रचनाएँ दिखाई देती हैं। कबीर की भाषा को तो पंचमेल खिचड़ी कहा ही गया।
सत्रहवीं शताब्दी के सन्त मलूकदास के साहित्य में भी यह प्रवृत्ति दिखाई देती है-
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ।।
इसी प्रकार रीतिकालीन काव्य में दरिया साहब, पलटू साहब तथा यारी साहब जैसे सन्त कवि जिस भाषा में लिख वह खड़ी बोली के ही निकट थी।
उसकी अकबर के दरबारी कवि अब्दुर्रहीम ‘खानखाना’ की रचना ‘मदनाष्टक’ में बड़ी बोली का स्पष्ट प्रयोग दिखाई देता है । उसकी भाषा आज की खड़ी बोली जैसी ही है। रहीम का एक उदाहरण द्रष्टव्य है, जिसमें खड़ी बोली मिश्रित ब्रजभाषा देखी जा सकती है –
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे मोती मानुस चून ॥
अकबर के समय में गंग कवि ने ‘चंद छंद बरनन की महिमा’ नामक एक गद्य पुस्तक खड़ी बोली में लिखी थी।
दक्खिनी हिंदी में खड़ी बोली का आरम्भिक स्वरूप
तेरहवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में सुल्तान अलाउद्दीन के दक्षिण अभियान के कारण कई अधिकारी, कर्मचारी और व्यापारी बीजापुर तथा गोलकुण्डा आदि क्षेत्रों में गए तथा उनके साथ उनकी भाषा भी गई।
यह भाषा दिल्ली के आसपास की वही भाषा थी, जिसे कौरवी कहा जाता है और जिसका नाम आधुनिक काल में खड़ी बोली पड़ा।
चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में मुहम्मद तुगलक के आदेश के कारण बहुत बड़ी संख्या में दिल्ली के लोग देवगिरि या दौलताबाद में जाकर बसे जिससे भाषिक संक्रमण की प्रक्रिया और तीव्र हुई।
धीरे-धीरे इन लोगों की भाषा पर उस क्षेत्र की भाषाओं- मराठी, तेलुगु और कन्नड़ आदि का प्रभाव पड़ने लगा। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में एक ऐसी मिश्रित भाषा पैदा हुई, जो अपने व्याकरणिक ढाँचे में खड़ी बोली के समान थी, बाहरी कलेवर में फ़ारसी के समान थी तथा प्रकृति में सामासिक थी।
इस भाषा में सूफी फकीरों तथा अन्य अनेक साहित्यकारों ने चौदहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक साहित्यिक रचनाएँ कीं। इन्हीं रचनाओं के समग्र रूप को दक्खिनी साहित्य कहते हैं।
दक्खिनी हिंदी के रचनाकारों की रचनाओं में प्रायः किसी न किसी मात्रा में खड़ी बोली से निकटता दिखाई पड़ती है।
दक्खिनी हिंदी के प्रथम हिंदी गद्यकार ख्वाजा बन्दानवाज गेसूदराज माने जाते हैं।
दक्खिनी हिंदी के परवर्ती गद्य लेखकों में मीराँजी शम्सुल उश्शाक, शाह कलन्दर, बुरहानुद्दीन जानम, अमीनुद्दीन आला आदि उल्लेखनीय है।
दक्खिनी हिंदी गद्य का श्रेष्ठ साहित्य मुलना वजही की रचना ‘सबरस’ में दिखाई देता है।
अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक खड़ी बोली पर आधारित साहित्यिक भाषा को ‘हिंदी’ या ‘हिन्दवी’ संज्ञा प्राप्त भी।
खड़ी बोली की काव्यधारा में नज़ीर अकबराबादी का भी विशेष महत्व है। पर उनके साहित्य को हिंदी बड़ी बोली के विकास में स्थान नहीं दिया जाता
उन्नीसवीं सदी में खड़ी बोली हिंदी का विकास
उन्नीसवीं शताब्दी में खड़ी बोली का विकास बहुत तेजी से हुआ, उतनी ही तेजी से ब्रजभाषा का पतन भी हुआ।
अंग्रेज शासक सामान्य व्यवहार की भाषा खड़ी बोली से परिचित हुए। उन्होंने खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार पर ध्यान दिया। सन् 1800 में अंग्रेज सरकार ने फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। इस कॉलेज के प्रिंसिपल जॉन गिलक्रिस्ट ने खड़ी बोली को पूरे भारत की व्यावहारिक भाषा के रूप में मानते हुए उसकी कई शैलियों का विकास करवाया।
खड़ी बोली के विकास में ईसाई मिशनरियों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। धर्म-प्रचार के लिए उन्होंने ‘बाईबल’ के कुछ विशेष अंशों का सरल हिंदी में अनुवाद करवाकर छोटी-छोटी पुस्तकों के रूप में उनका निःशुल्क वितरण किया। इससे देवनागरी लिपि तथा खड़ी बोली का व्यापक प्रचार-प्रसार होने लगा।
इस प्रक्रिया में कई भारतीय बुद्धिजीवी अपने-अपने धर्म तथा समाज की सुरक्षा के लिए आगे आए। जिसमें स्वामी दयानन्द सरस्वती (आर्य समाज), राजा राममोहन रॉय (ब्रह्म समाज), श्रद्धाराम फिल्लौरी (हिन्दू धर्म सभा) का योगदान महत्त्वपूर्ण है।
इन लोगों ने भी अपनी प्रचार सामग्री को सरल-सहज खड़ी बोली हिंदी में प्रस्तुत किया।
इनके अलावा ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ के माध्यम से एनी बेसेंट ने हिंदी भाषा को बढ़ावा दिया।
प्रेस की स्थापना उन्नीसवीं शताब्दी में एक ऐसी घटना थी, जिसने भारतीय समाज को परिवर्तित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से सम्प्रेषण की सम्भावनाएँ कई गुना बढ़ गई। इस प्रकार प्रेस के आगमन ने खड़ी बोली के विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उन्नीसवीं सदी में खड़ी बोली का साहित्यिक स्वरूप
उन्नीसवीं सदी में खड़ी बोली के साहित्यिक स्वरूप का अध्ययन हम निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर कर सकते हैं:
(क) भारतेन्दु पूर्व युग
इस युग में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका फोर्ट विलियम कॉलेज की रही। इस कॉलेज के प्रिंसिपल जॉन गिलक्रिस्ट ने भारतीय भाषाओं का गहन अध्ययन किया; व्याकरण और शब्दकोष का निर्माण भी कराया। वे हिंदी भाषा को हिन्दुस्तानी कहते थे। उनकी ही देखरेख में लल्लूजीलाल, सदल मिश्र, सदासुखलाल नियाज, इंशाअल्ला खाँ ने प्रमुख रूप से इस भाषा में साहित्य रचना की।
सन् 1830 में जन्मे मुंशी सदासुखलाल नियाज ने हिंदी बड़ी बोली का प्रयोग अपनी रचनाओं में बखूबी किया।
मुंशी सदासुखलाल नियाज के अलावा इंशा अल्ला खां ने भी इस दौरान रचनाएँ की। इनके द्वारा लिखित ‘रानी केतकी की कहानी’ को हिंदी की पहली कहानी होने का गौरव प्राप्त है।
लल्लूजीलाल ने गिलक्रिस्ट के अनुरोध पर ‘प्रेमसागर’ नामक पुस्तक खड़ी बोली में लिखी, जिसमें कृष्णलीला का वर्णन है। सिंहासन बत्तीसी, बेताल पचीसी, शकुन्तला नाटक इनकी अन्य पुस्तकें हैं। इन पुस्तकों की भाषा है तो खड़ी बोली ही, पर उसमें ब्रज और उर्दू का भरपूर मिश्रण हुआ है।
इसी काल के एक और लेखक सदल मिश्र हैं। इनकी रचनाओं में ‘नासिकेतोपाख्यान’ प्रसिद्ध है। इस पुस्तक में सदल मिश्र ने अरबी और फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग नहीं के बराबर किया है। खड़ी बोली में लिखी गई इस पुस्तक में संस्कृत के शब्द अधिक हैं।
जिस तरह जैन मुनियों ने 8-9 वीं शती में अपने मतों के प्रचार-प्रसार के लिए जनभाषा को अपनाया था, ठीक उसी प्रकार 18-19 वीं शताब्दी में ईसाई पादरियों ने भी हिंदी का सहारा लिया।
चार्ल्स विल्किंस ने ‘बाइबल’ का हिंदी अनुवाद कर उसे छपवाया।
हिंदी के लिए 30 मई 1826 का दिन एक और मील का पत्थर बना, जब हिंदी का पहला समाचार पत्र ‘उद्दन्त मार्तण्ड’ कलकत्ता से निकला। हालाँकि यह साप्ताहिक समाचार पत्र एक साल छः महीने ही निकल सका और 11 दिसम्बर 1827 को बन्द हो गया।
यह भी एक संयोग है कि हिंदी का पहला समाचारपत्र अहिंदी भाषाभाषी क्षेत्र से निकला।
हिंदी प्रदेश में छपने वाला हिंदी का पहला समाचारपत्र ‘बनारस अखबार’ था। सन् 1885 में यह काशी से निकला। इसका प्रकाशन राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने शुरू किया था और पण्डित गोविन्द रघुपति धन्ते इसके सम्पादक बनाए गए थे। इसकी भाषा उर्दू मिश्रित हिंदी थी और लिपि देवनागरी।
हिंदी भाषी क्षेत्र से निकलने वाला पहला दैनिक समाचारपत्र ‘हिन्दोस्ता’ है जिसे प्रतापगढ़ कालाकाँकर के राजा रामपाल सिंह ने निकाला था और पण्डित मदनमोहन मालवीय उसके सम्पादक थे।
इस दौरान सन् 1877 में श्रद्धाराम फुल्लौरी का उपन्यास ‘भाग्यवती’ भी छपा। अनेक विद्वान इसे हिंदी का पहला उपन्यास मानते हैं।
हालाँकि हिंदी उपन्यास को जो लोकप्रियता बाबू देवकीनन्दन खत्री ने दिलाई, उसकी तुलना हाल ही में लोकप्रिय हुए उपन्यास हैरी पॉटर से की जा सकती है। वैसे तो उन्होंने कुल दस उपन्यास लिखे, पर ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ को जो और जैसी लोकप्रियता मिली, उसका कोई जवाब नहीं। कहते हैं कि उनका उपन्यास पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी।
(ख) भारतेन्दु युग
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिंदी नवजागरण की नींव रखी। ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’ मानने वाले हिंदी के इस पुरोधा ने अपने नाटकों, कविताओं, कहावतों और किस्सागोई के माध्यम से हिंदी भाषा के उत्थान के लिए खूब काम किया। उन्होंने अपने पत्र ‘कविवचनसुधा’ के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार भी किया।
फोर्ट विलियम कॉलेज के तहत कार्यरत चारों भाषा मुंशियों ने खड़ी बोली हिंदी को स्थापित करने का जो स्तुत्य कार्य किया था, भारतेन्दु ने उसे कविता के माध्यम से आगे बढ़ाया। उन्होंने हिंदी को ब्रज से मुक्त किया और जीवन के यथार्थ में हिंदी को गर्वबोध दिया।
हिंदी के इस नवजागरण काल में ही ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ का गठन हुआ। सन् 1893 में काशी में स्थापित इस संस्था ने हिंदी के काम और नाम को और आगे बढ़ाया।
इस बीच महेन्द्र भट्टाचार्य ने ‘पदार्थ विज्ञान’ नामक पुस्तक लिख कर सिद्ध कर दिया कि हिंदी सिर्फ साहित्य की भाषा ही नहीं, बल्कि विज्ञान की भाषा भी हो सकती है।
बीसवीं सदी में खड़ी बोली हिंदी का विकास
सन् 1900 (जनवरी) में ‘सरस्वती’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ और उसमें विशोरीलाल गोस्वामी की कहानी ‘इन्दुमती’ छपी। इसके साथ ही हिंदी कहानी के एक नए अध्याय का जन्म हुआ, जो पहले के आख्यानों और किस्सागोई से भिन्न थी। अनेक विद्वान तो ‘इन्दुमती’ को ही ‘हिंदी की पहली कहानी’ होने का गौरव देते हैं।
सन् 1918 में दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार सभा की स्थापना कर महात्मा गांधी ने उत्तर और दक्षिण भारत के बीच भाषा सेतु का निर्माण किया।
महात्मा गांधी ने हिंदी और उर्दू के झगड़े को समेटते हुए उन्होंने भाषा को एक और नाम दिया ‘हिन्दुस्तानी’। इस हिन्दुस्तानी भाषा में न तो संस्कृत की क्लिष्टता थी और न ही उर्दू की दुरूहता। यह ऐसी सहज-सरल बोलचाल की भाषा थी जो देश के व्यापक क्षेत्र में बोली और समझी जाती थी।
सन् 1900 से लेकर 1950 तक हिंदी के अनेक रचनाकारों ने इसके विकास में योगदान दिया। इनमें प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा आदि प्रमुख कहे जा सकते हैं। इस काल को हिंदी का दूसरा स्वर्णयुग कहा जा सकता है।
लगभग इसी समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखकर हिंदी में साहित्य के इतिहास लेखन की कमी को पूरा किया।
हालांकि यह भी सही है कि फ्रांसीसी विद्वान गार्सा द तासी इससे नौ दशक पहले हिंदी साहित्य का इतिहास कलमबद्ध कर चुके थे, फिर भी आचार्य शुक्ल ने इतिहास बोध की जो विलक्षण प्रतिभा दिखाई और शुद्ध वैज्ञानिक तरीका अपनाया, वह अप्रतिम है।
साहित्य साधना के बीच दो और ऐसी बातें हुईं, जिनका असर हिंदी के विकास पर पड़ा। ये थीं – सन् 1931 में हिंदी की पहली फीचर फिल्म ‘आलमआरा’ का निर्माण और उसी के आसपास हिंदी टाइप राइटर का आविष्कार।
निष्कर्ष
यद्यपि बड़ी बोली हिंदी के प्रयोग के कुछ उदाहरण हमें प्राचीन हिंदी साहित्य में मिल जाते हैं, पर यह निर्विवाद सच है कि खड़ी बोली ने आधुनिक काल में ही स्वस्थ स्वरूप ग्रहण किया है।
खड़ी बोली हिंदी को अपना वर्तमान साहित्यिक रूप ग्रहण करने में कई सौ साल का समय लगा है। हम जानते हैं कि खड़ी बोली की विकास परम्परा ब्रजभाषा और अवधी आदि साहित्यिक भाषाओं से तो जुड़ा ही है, अन्य भारतीय भाषाओं से भी जुड़ा है। इस सन्दर्भ में उर्दू और दक्खिनी का नाम खासतौर से लिया जा सकता है।
खड़ी बोली के स्वरूप ग्रहण में फोर्ट विलियम कॉलेज और भारतेन्दु मण्डल के रचनाकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
हिंदी साहित्य के इतिहास में छायावाद के प्रारम्भ तक खड़ी बोली गद्य और पद्य का पूर्ण विकास हो चुका था। आज खड़ी बोली हिंदी में पर्याप्त साहित्य सर्जन तो हो ही रहा है, यह मीडिया के लिए भी उत्कृष्ट भाषा बनी हुई है।
नमस्कार ! मेरा नाम भूपेन्द्र पाण्डेय है । मेरी यह वेबसाइट शिक्षा जगत के लिए समर्पित है । हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य और अनुवाद विज्ञान से संबंधित उच्च स्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाना मेरा मुख्य उद्देश्य है । मैं पिछले 20 वर्षों से इस क्षेत्र में काम कर रहा हूँ । मेरे लेक्चर्स हिंदी के छात्रों के द्वारा बहुत पसंद किए जाते हैं ।
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