अनुसंधान के मूल तत्व | Anusandhan ke Mool Tatva


अनुसंधान के मूल तत्व का आधार उसकी प्रक्रिया में निहित वे सारे तत्व हैं जिनसे अनुसंधान आरंभ से अंत तक जुड़ा रहता है । शोध के लिए एक दृष्टिकोण के साथ ही वह प्रक्रिया भी जुड़ी रहती है जिससे गुजरना पड़ता है । अनुसंधान के लिए विश्वविद्यालयों में अनेक नियम निर्धारित किए गए हैं जो वस्तुतः शोध उपाधि के प्रयोजन से विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं ।

अनुसंधान के मूल तत्व | Anusandhan ke Mool Tatva



              अनुसंधान के मूल तत्वों में सर्वप्रथम विषय
    का चयन आवश्यक है । उसके उपरांत रूपरेखा निर्माण
    , सामग्री
    संकलन
    , शोध प्रबंध लेखन और व्यवस्थापन इन सभी तत्वों से
    मिलकर अनुसंधान की रचना होती है । जिसके लिए अन्वेषक और निर्देशक आवश्यक हैं । इन
    सभी तत्वों को विशेष रूप से विश्लेषित किया जाएगा
    , किन्तु
    अनुसंधान के तत्वों को संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है :

    1.
    विषय चयन 

             किसी भी शोध के लिए सर्वप्रथम विषय का चयन आवश्यक है
    । जिस विषय में भी शोध करना है उसका क्षेत्र अत्यंत व्यापक होता है । विषय-चयन में
    सावधानी बरतना आवश्यक है । किसी क्षेत्र से विषय का चयन हो जाने के बाद यह देखना
    आवश्यक है कि उस विषय पर पहले उसी रूप में कोई अनुसंधान न कर लिया गया हो । अनेक
    शोध पत्रिकाओं को भी देखकर विषय का चयन किया जाता है । इसके लिए निर्देशक से भी
    सलाह करना आवश्यक है ।

    कृपया इसे भी ज़रूर देखें :  अनुसंधान के मूल तत्व | Anusandhan ke Mool Tatva

                  विषय चयन में सर्वप्रथम सामग्री की सुलभता
    को ध्यान में रखा जाता है । शोध-छात्र  को
    यह भी तय करना आवश्यक है कि विषय उसकी अभिरुचि या मनोवृत्ति के अनुकूल हो तथा उस
    क्षेत्र में संबंधित विश्वविद्यालय में उपयुक्त निर्देशक और सामग्री सुलभ हो ।

        
              हिंदी में विषय-चयन के अनेक
    क्षेत्र है जो साहित्यकार के जीवन से लेकर उसके सामाजिक परिवेश और रचनात्मकता तक
    व्याप्त हैं । कोई भी अनुसंधान विषय चयन के 
    बिना
    आरंभ ही नहीं हो सकता । अतः शोधकर्ता और निर्देशक के सामने अनुसंधान का पहला मूल
    तत्व विषय-चयन ही होता है । इस चयन की अनेक प्रणालियाँ भी प्रचलित हैं जिनके
    अनुसार शोधकर्ता अपने मन के अनुरूप अथवा निर्देशक के परामर्श से विषय का चयन कर
    सकता है । 

    2.
    अनुसंधान की संरचना और रूपरेखा निर्माण 

            अनुसंधान
    का स्वरूप सामने रखने के लिए विषय-चयन के बाद रूपरेखा का निर्माण करना आवश्यक है ।
    किसी भी शोध-योजना में रूपरेखा आवश्यक होती है और उसके आधार पर ही विश्वविद्यालयों
    में शोध-कार्य का पंजीयन होता है । रूपरेखा के आरंभ में एक भूमिका आवश्यक होती है
    साथ ही अध्यायों के शीर्षकों के साथ ही उन्हें उप-शीर्षकों में विभाजित किया जाता
    है । 

            किसी भी रूपरेखा के निर्माण में उस विषय को महत्व प्रदान किया जाना चाहिए जिस
    विषय पर शोध-कार्य किया जा रहा है । हिंदी साहित्य में अनेक बार यह देखा गया है कि
    विषय से संबंधित सामग्री को विषय से अधिक महत्व दिया जाता है जो उपयुक्त नहीं है ।

             रूपरेखा पंजीयन के समय संक्षेप में प्रस्तुत की जा सकती है किन्तु शोध-कार्य का
    अधिकांश भाग हो जाने पर विस्तार से रूपरेखा बनाकर फिर से प्रस्तुत की जा सकती है ।
    रूपरेखा किसी भी अनुसंधान का मूल तत्व है
    , क्योंकि इसके बिना
    शोध-कार्य को कोई दिशा नहीं मिलती । रूपरेखा अत्यंत स्पष्ट हो यह भी आवश्यक है ।

    3.
    सामग्री संकलन 
            अनुसंधान को पूरा करने के लिए रूपरेखा के आधार
    पर सामग्री का संकलन भी आवश्यक है
    , जिसका ध्यान
    विषय-चयन के समय ही रखना आवश्यक होता है । वैसे तो रूपरेखा बनाते समय ही कुछ
    सामग्री संकलित करना आवश्यक होता है पर शोध-कार्य के लिए सामग्री का संकलन विस्तार
    से किया जाता है । 

            विषय से संबंधित सामग्री वह है जिसमें कि उस विषय से संबंधित
    सभी तथ्य उपलब्ध हो सके । इसके लिए मूल ग्रंथों को उपलब्ध करना आवश्यक होता है ।
    इसमें पुस्तकालयों का सहयोग लेने के साथ ही 
    आवश्यकतानुसार
    पाण्डुलिपियों का संकलन भी करना पड़ता है । सामग्री संकलन के बिना कोई भी
    शोध-प्रबंध लेखन संभव नहीं हो पाता । अतः आवश्यक है कि विषय के अनुरूप सामग्री
    संकलित की जाए तभी अनुसंधान की प्रामाणिकता और मौलिकता का निर्वाह किया जा सकता है


    4.
    शोध-प्रबंध 

             यह अनुसंधान का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है । विषय-चयन, रूपरेखा निर्माण और सामग्री संकलन किया ही इसलिए जाता है कि शोध-प्रबंध
    लिखा जा सके । इस शोध-प्रबंध को लिखने में शोध के नियमों का पालन करना पड़ता है
    जिसमें शीर्षक देने के साथ ही उद्धरण और टिप्पणियाँ देना भी आवश्यक है ।

             साथ ही, संदर्भ ग्रंथों की जानकारी भी देना आवश्यक होता है । इसी से शोध-प्रबंध लेखन में
    सहायता मिलती है । अनुसंधान अपने में ही एक प्रबंधात्मक व्यवस्था है जिसमें
    शोध-प्रबंध का लेखन करते हुए क्रमबद्ध संयोजन आवश्यक होता है ।
            
                  शोध-प्रबंध लेखन की प्रक्रिया में
    आधार-ग्रंथ
    , संदर्भ-ग्रंथ और सहायक-ग्रंथों की प्रमुख भूमिका
    होती है । शोध-प्रबंध लेखन के बाद उसका सार संक्षेप भी दिया जाता है ।  शोध-प्रबंध लेखन में मूल पुस्तक के संदर्भ देना
    ही पर्याप्त नहीं होता
    , बल्कि विभिन्न स्त्रोतों से भी
    सामग्री जुटाना आवश्यक है ।


                 यदि रचनाकार जीवित है तो उससे साक्षात्कार करना भी
    अत्यंत प्रासंगिक और आवश्यक होता है । इस साक्षात्कार को प्रश्नावली के माध्यम से
    प्रयोग में लाया जा सकता है और इसके लिए वैज्ञानिक प्रणाली का उपयोग कर संबंधित
    विषय पर प्रश्नों की रचना की जाती है । 

            साहित्य में भी सर्वेक्षण किया जा सकता है
    । संक्षेप में शोध-प्रबंध में इन सभी तत्वों के आधार पर अनुसंधान होता है और यह सब
    उसकी संरचना के अनिवार्य भाग हैं ।

    5.
    शोध व्यवस्थापन 

                 शोध-कार्य पूर्ण होने पर उसे क्रमबद्ध रूप से
    संयोजित करना आवश्यक है जो अनुसंधान का प्रमुख तत्व है । शोध- प्रबंध में व्याकरण
    और वर्तनी की गलतियाँ नही  हो
    नी
    चाहिए साथ ही उसमें विराम चिन्हों का भी सही जगह प्रयोग किया जाना आवश्यक है। 

            शोध-प्रबंध
    का व्यवस्थापन इसलिए आवश्यक है क्योंकि इसके बिना किसी भी शोध-प्रबंध को उपाधि के
    लिए प्रस्तुत करना संभव नहीं है । शोध व्यवस्थापन में आंतरिक के साथ ही बाह्य
    व्यवस्था भी होती है जिसके अनुसार मुख-पृष्ठ पर शोध-प्रबंध और शोधार्थी का नाम और
    उस संकाय का नाम अंकित करना आवश्यक है जहाँ शोध-प्रबंध प्रस्तुत किया जा रहा है।
    इस व्यवस्थापन में अनुक्रमणिका
    , संदर्भिका और परिशिष्ट को शामिल
    किया जाता है ।


                  शोध व्यवस्थापन में शीर्षक और उप-शीर्षक रखे
    जाते हैं । इसी प्रकार पाद-टिप्पणियों को पृष्ठ के नीचे अथवा अध्याय के बाद जहाँ
    सुविधा वहाँ रखा जा सकता है । शोध-प्रबंध में जो शामिल नहीं किया जा रहा है पर
    जिसे शामिल किया जाना आवश्यक है
    , उसे परिशिष्ट में रखा जाता है ।

             इसी प्रकार संदर्भ को सूचीबद्ध अकारादिक्रम से करना अधिक वैज्ञानिक है जिसमें
    पुस्तक के लेखक के नाम के साथ
    , पुस्तक का शीर्षक और प्रकाशन
    का विवरण होने पर उसकी प्रामाणिकता बढ़ जाती है ।

    निष्कर्ष

                  अनुसंधान के मूल तत्व अलग-अलग विषयों के
    अनुसार नहीं होते
    , तब उन्हें सामान्य मूल तत्व के
    अंतर्गत रखा जाता है और जब कुछ तत्व संबंधित विषय के अनुरूप होते हैं तब उन्हें
    विशिष्ट तत्व के रूप में रखा जा सकता है । जैसे सामाजिक विज्ञान में सर्वेक्षण और
    विज्ञान में प्रयोग आवश्यक होता है
    , जबकि साहित्य में यह
    आवश्यक नहीं है ।

             किन्तु साहित्य, सामाजिक विज्ञान और
    विज्ञान तीनों के तत्वों में अंतर्संबंध हो सकते हैं और आज के युग में यह आवश्यक
    भी है । इससे अनुसंधान की दृष्टि का विस्तार होता है
    , उसके
    विषयों का विकास होता है और उसकी प्रामाणिकता बढ़ती है ।

          किसी भी प्रयोजन के तत्वों का निर्धारण इस
    बात से होता है कि वे उसके गठन का आधार बनते हैं । आज हिंदी में शोध की गिरावट के
    संदर्भ में यह वक्तव्य आवश्यक है कि 
    अनुसंधान
    के मूल तत्वों का प्रामाणिक से निर्वाह न करके केवल तत्वों के आधार पर अनुसंधान
    करते रहना कोई बहुत सुखद या प्रामाणिक स्थिति नहीं है । केवल कागज पर नियम बनाने
    से शोध का स्तर नहीं सुधरता । 

                  अनुसंधान की प्रविधि और प्रक्रिया इन मूल
    तत्वों पर ही आधारित है । प्रविधि के अंतर्गत वे सभी प्रणालियाँ आती हैं जो
    शोध-प्रबंध लेखन में अनिवार्य रूप से प्रयोग में आती हैं और प्रक्रिया में वे सभी
    संरचनाएँ आती हैं
    , जिसके कारण शोध-योजना से
    शोध-व्यवस्थापन तक की यात्रा सम्पन्न होती है । इनको जोड़ने का कार्य ही अनुसंधान
    लेखन में आवश्यक होता है जिससे कि अनुसंधान के व्यवस्थित संगठन की योजना मौलिक और
    प्रामाणिक रूप से आकार लेती है ।


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