अपभ्रंश की व्याकरणिक विशेषताएँ | Apbhransh Ki Vyakaranik Visheshtaen

अपभ्रंश की व्याकरणिक संरचना का विवेचन संज्ञा, वचन, लिंग, विशेषण, काल, सर्वनाम तथा क्रिया आदि आधारों पर किया जा सकता है।

(1) संज्ञा तथा कारक व्यवस्थाः सरलीकरण की प्रक्रिया अपभ्रंश के संज्ञा-रूपों में कई प्रकार से चलती रही। इस संबंध में तीन तरह के नये प्रयोग इस काल में दिखते हैं –

(i) निर्विभक्तिक प्रयोगों की प्रवृत्ति बढ़ी। इनके अन्तर्गत शब्दों को केवल प्रातिपदिक (धातु शब्द, मूल और रूढ़ शब्द) के रूप में व्यक्त किया जाता था या एक ही विभक्ति से कई कारकों का काम लिया जाता था। उदाहरण के तौर पर अपभ्रंश में ‘हिं’ प्रत्यय से कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण कारकों का काम लिया जाता रहा।

(ii) जो प्रयोग सविभक्तिक थे उनमें भी सरलीकरण हुआ। सारे प्रातिपदिक (Antipodes – धातु शब्द, मूल और रूढ़ शब्द) स्वरांत (वह शब्द जिसके अंत में स्वर वर्ण हो) हो गये, जैसे-

जगत् > जग                  महान् > महा

प्रातिपदिक के अन्त में स्वर चाहे कोई भी हो, उसका रूपान्तरण ‘अकारान्त’ (वह वर्ण जिसके अंत में ‘अ’ ध्वनि हो) शब्दों की तरह होने लगा। इसके अतिरिक्त विभक्ति रूप जो संस्कृत में आठ थे, अपभ्रंश में तीन रह गये।

(iii) अपभ्रंश में ही पहली बार परसर्गों (शब्द के आगे जुड़ने वाला प्रत्यय, भाषा विज्ञान में ने, को, के, से, में आदि संज्ञा-विभक्‍तियाँ) का स्वतन्त्र विकास शुरू हुआ। जैसे कर्म कारक के लिए ‘हिं’, सम्प्रदान के लिए ‘तेहि’ और संबंध के लिए ‘का’ और ‘कर’।

(2) वचन व्यवस्थाः संस्कृत के तीन वचनों के स्थान पर अपभ्रंश में केवल दो ही वचन एकवचन और बहुवचन मिलते हैं। द्विवचन के सारे शब्द बहुवचन में शामिल हो गए।

 (3) लिंग व्यवस्थाः संस्कृत के पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसक लिंग की जगह अपभ्रंश में पहले दो ही लिंग पुल्लिंग और स्त्रीलिंग रह गए।

(4) विशेषणः संज्ञा के लिंग और वचन के अनुसार विशेषणों का परिवर्तित होना अपभ्रंश में भी संस्कृत की तरह स्वीकार किया गया है। इस काल में विशेष प्रवृत्ति संख्यावाचक विशेषणों के विकास की है। जैसे – एक्क, सोरह, इगारह इत्यादि ।

(5) काल संरचनाः काल रचना के संबंध में अपभ्रंश में वर्तमान काल संस्कृत-प्राकृत परंपरा में रहा है, भूतकाल (हिंदी की तरह) कृदन्त से बनता है, भविष्यत् काल परंपरागत भी है और कृदन्तीय भी ।

 कृदन्त : [तत्सम] [संज्ञा] [पुल्लिंग]

  • अर्थ : वह शब्द जो धातु (के अंत) में कृत् प्रत्यय लगाने से बने ।
  • वाक्य प्रयोग : कृदंत का प्रयोग विशेषण और क्रिया विशेषण दोनों के रूप में किया जा सकता है।
  • अंग्रेजी पर्याय : participle

(6) सर्वनाम व्यवस्थाः सर्वनामों के रूपों में अपभ्रंश काल में जटिलता बनी हुयी है किन्तु इनकी संख्या में काफी कमी दिखती है। सर्वनाम में कुछ विकास ऐसे हुए जो सीधे-सीधे वर्तमान हिंदी तथा हिंदी की कुछ बोलियों से मिलते-जुलते हैं जैसे- ‘तुम्हें’ सर्वनाम का विकास।

(7) क्रिया संरचनाः क्रिया में इस काल में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए। क्रियाएँ कई आधारों पर विकसित होने लगी थीं। कुछ नये धातु रूप विकसित हुए जैसे उठ तथा बोल्ल।

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