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ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के आरम्भ तक भारतीय काव्य-शास्त्र के क्षेत्र में पाँच प्रमुख सम्प्रदाय रस, अलंकार, रीति, ध्वनि और वक्रोक्ति प्रतिष्ठित हो चुके थे, किन्तु फिर भी काव्य के आधारभूत तत्व के सम्बन्ध में कोई एक सर्वमान्य निर्णय नहीं हो सका। इतना ही नहीं, अनेक सम्प्रदायों की स्थापना के कारण ‘काव्य की आत्मा’ सम्बन्धी। विवाद सुलझाने के स्थान पर और अधिक उलझ गया था- रस, अलंकार, रीति आदि प्रत्येक सम्प्रदाय अपने-अपने मत को प्रमुखता देते थे तथा दूसरे के मत को नीचा दिखाने का प्रयत्न करते थे। ऐसी स्थिति में काव्य के सामान्य अध्येता (अध्ययन करने वाला,पाठक) के सामने यह समस्या थी कि वह किस मत को माने और किसको नहीं।
ठीक इसी समय आचार्य क्षेमेन्द्र ने औचित्य की स्थापना करके इस विवाद को सुलझाने में गहरा योग दिया। उन्होंने कहा कि काव्य में रस, गुण, अलंकार आदि सभी का महत्व है, किन्तु उसी अवस्था में जबकि ये सब औचित्य से समन्वित हों। औचित्य के अभाव में ये सभी तत्व व्यर्थ हैं। इस प्रकार औचित्य सम्प्रदाय इन सबके लिए उचित समन्वय का सन्देश लेकर उपस्थित हुआ।
औचित्य की पूर्व-परम्परा
यद्यपि ‘औचित्य’ की एक पृथक् सम्प्रदाय के रूप में स्थापना करने का श्रेय आचार्य क्षेमेन्द्र को ही है, किन्तु उनसे पूर्व भी अनेक आचार्य इसकी चर्चा सामान्य रूप से कर चुके थे।
आचार्य भरतमुनि ने ‘नाट्य-शास्त्र’ में औचित्य का आधार लोक की रुचि, प्रवृत्ति एवं उसके रूप को मानते हुए लिखा- ‘जो लोक-सिद्ध है वह सब अर्थों में सिद्ध है और नाट्य का जन्म लोक-स्वभाव से हुआ है, अतः नाट्य प्रयोग में लोक ही प्रमाण है।’ आगे चलकर उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया कि जैसा पात्र हो, उसी के अनुरूप उसकी भाषा, वेश, चरित्र आदि होने चाहिए-
वयोऽनरूपः प्रथमवस्तु वेषः
वेषानुरूपश्च गति-प्रचारः ।
गति-प्रचारानुगतं च पाठ्यं
पाठ्यानुरूपोऽभिनयश्य कार्यः।
अर्थात् ‘वय (उम्र या अवस्था) के अनुरूप वेष होना चाहिए, वेष के अनुरूप गति (भाव-भंगिमा), गति के अनुरूप पाठ्य तथा पाठ्य के अनुरूप अभिनय होना चाहिए।’ इस प्रकार आचार्य भरत ने स्वाभाविकता के रूप में औचित्य का प्रतिपादन किया है- इतना अवश्य है कि उन्होंने ‘औचित्य’ शब्द का प्रयोग नहीं किया।
आगे चलकर आचार्य दंडी ने भी यह संकेत किया कि काव्य में औचित्य का स्थान है। उपमा के प्रसंग में उन्होंने बताया कि यदि सहृदयों को उद्वेग न हो, तो उपमान और उपमेय के लिंग-वचन आदि में परस्पर भेद होना भी कोई दोष नहीं है।
वस्तुतः भामह, दंडी, वामन, रुदट आदि का दोष-विवेचन एक प्रकार से औचित्य के अभाव या अनौचित्य की ही व्याख्या है। किन्तु औचित्य की स्पष्ट रूप से व्याख्या करने वाले आचार्यों में सर्वप्रथम आनन्दवर्धन आते हैं। उन्होंने ‘औचित्य’ शब्द का प्रयोग करते हुए उसके छः प्रकार निश्चित किये (1) रसौचित्य, (2) अलंकारौचित्य, (3) गुणौचित्य, (4) संघटनौचित्य, (5) प्रबन्धौचित्य, (६) रीति-औचित्य। इनमें से प्रत्येक का संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जाता है।
रसौचित्य
इसका सम्बन्ध रस से है। काव्य में रस का उचित रूप से प्रतिपादन तब ही सम्भव है जबकि उसमें रसौचित्य हो। रसौचित्य के लिए आनन्दवर्धन ने मुख्यतः दस नियम निर्धारित किये हैं- (क) शब्द और उसके अर्थ का नियोजन औचित्यपूर्ण हो (ख) व्याकरण की दृष्टि से प्रयोग शुद्ध हो (ग) प्रबन्धकाव्य में संधि, घटना आदि का प्रयोग रसनानुकूल हो (ध) विरोधी रस के अंगों का वर्णन न हो (ङ) गौण वस्तु, घटना, पात्र तथा वातावरण का इतना विस्तार न हो कि उससे मुख्य रस ही दब जाय (च) अंगरस और अंगीरस का सम्बन्ध आपस में ठीक अनुपात में हो (छ) अन्य रसों की नियोजना में पारस्परिक अनुकूलता हो (ज) प्रबन्ध-काव्य या नाटक में रस का प्रयोग उचित अवसर पर हो (झ) विभाव, अनुभाव, संचारी आदि के वर्णन में औचित्य की रक्षा की जाय। हमारे विचार से इनमें से कुछ भेद तो अनावश्यक हैं। चौथे भेद (घ) में जो बात कही गई है, लगभग उसी को अगले तीन भेदों (ङ, च, छ) में दोहराया गया है।
इसी प्रकार के अन्य भेदों में से भी अनेक को निकाला जा सकता है। रसौचित्य के सम्बन्ध में संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि काव्य में रस के विभिन्न अवयवों तथा विरोधी रसों का समन्वय उचित रूप से होना चाहिए, तब ही उससे रस-निष्पत्ति हो सकेगी।
अलंकारौचित्य
इसके भी पाँच भेद बताये गये हैं- (क) अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप में हो (ख) अलंकार लाने के लिये कवि को प्रयत्न नहीं करना चाहिए (ग) अलंकार भावों की पुष्टि में योग देने वाले होने चाहिए (घ) उनका स्थान काव्य में गौण होना चाहिए, मुख्य नहीं (ङ) यमक, श्लेष आदि शब्दालंकार कोरे चमत्कार के लिए प्रयुक्त न हों।
गुणौचित्य
काव्य में विभिन्न गुणों का समन्वय रस के अनुकूल होना चाहिए। जैसे-ओज का वीर रस में, माधुर्य का श्रृंगार और करुण में।
संघटनौचित्य
संघटना या रचना का उद्देश्य रस है, अतः उसमें विभिन्न तत्वों का नियोजन रस के अनुकूल होना चाहिए। इसमें भी विचार नियामक हैं –
(क) संघटना रसानुकूल हो।
(ख) पात्र की प्रकृति, स्थिति तथा मानसिक दशा के अनुसार इसकी योजना हो।
(ग) प्रतिपाद्य (अच्छी तरह से समझाना) विषय के अनुकूल हो।
(घ) काव्य की प्रकृति के अनुकूल हो।
प्रबन्धौचित्य
प्रबन्धगत औचित्य के लिए आनन्दवर्धन ने निम्नांकित नियम निर्धारित किये हैं- (क) प्रसिद्ध तथा कल्पित वृत्तों (इतिहास, वृतांत, घटना) में समानुपात रहना चाहिए। (ख) वर्ण्य वस्तु का प्रयोग (प्रकृत सहज, साधारण) रस के विपरीत नहीं होना चाहिए। (ग) जो घटनाएँ काव्य के मुख्य ध्येय में बाधक सिद्ध होती हों उन्हें परिवर्तित कर देना चाहिए। (घ) प्रासंगिक घटनाओं का विस्तार अंगीरस (प्रधान रस) की दृष्टि से करना चाहिए। (ङ) वर्णन विषय से दूर न जाना चाहिए। (च) अंग-घटना का विस्तार इतना न किया जाय कि वह अंगी (प्रधान रस) बन जाय। (छ) प्रकृत (सहज, साधारण) रस के अनुकूल ही घटनाओं का चयन होना चाहिए। (ज) पात्रों की प्रकृति परिवर्तित न करनी चाहिए।
रीति-औचित्य
रीति का प्रयोग भी उचित रूप से यानी वक्ता, रस, अलंकार तथा काव्य के स्वरूप के अनुकूल करना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आनन्दवर्धन ने औचित्य का प्रतिपादन पर्याप्त विस्तार से किया था।
उनके अनन्तर कुन्तक एवं महिम भट्ट ने भी इसका उल्लेख अत्यन्त संक्षेप में अपने ग्रंथों में किया।
कुन्तक ने इसकी परिभाषा करते हुए लिखा- “जिसके द्वारा स्वभाव का महत्व पुष्ट होता हो अथवा जहाँ वक्ता या श्रोता के अति स्वाभाविक सौन्दर्य के कारण वाच्य वस्तु आच्छादित हो जाती हो वह औचित्य है।”
दूसरे शब्दों में किसी वस्तु के स्वाभाविक सौन्दर्य का वर्णन ही औचित्य है।
महिम भट्ट ने अपने ‘व्यक्ति-विवेक’ में औचित्य के दो भेद माने हैं- शब्दौचित्य और अर्थोचित्य ।
इस प्रकार औचित्य की परम्परा चली आ रही थी कि क्षेमेन्द्र ने ‘औचित्य विचार’ लिखकर उसे काव्य का प्राण घोषित किया और साथ ही उसे अत्यन्त व्यापक रूप प्रदान किया।
औचित्य का लक्षण
आचार्य क्षेमेन्द्र ने औचित्य का लक्षण निर्धारित करते हुए कहा “जो उसके योग्य है आचार्य लोग उसे उचित कहते हैं उसका भाव औचित्य है।”
इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए डॉ० मनोहर गौड़ ने लिखा है- “यह सापेक्ष वस्तु है। नीम का चारा गौ के लिए असदृश्य और ऊँट के लिये सदृश है। अधिक भूषणों का उपयोग ग्रामीण स्त्री के लिए उचित एवं नागरिक के लिए अनुचित है। इस प्रकार औचित्य एक विधेयात्मक (प्राप्त करने योग्य या देने योग्य) तत्व सिद्ध होता है। यही समस्त सौन्दर्य का मूल है।”
हमारे विचार से औचित्य को आधुनिक शब्दावली में ‘स्वाभाविकता’ कहना अधिक उचित होगा। काव्य में घटनाओं और पात्रों के आयोजन में स्वाभाविकता होने पर ही वह प्रेषणीय हो पाता है। अस्तु, स्वाभाविकता ही औचित्य है।
औचित्य के अंग
आचार्य क्षेमेन्द्र ने काव्य के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवयव से लेकर उसके विशालतम रूप को ध्यान में रखते हुए औचित्य के 28 अंग या (भेद) निर्धारित किये है, जो इस प्रकार हैं :
(1) पद, (2) वाक्य, (3) प्रबन्धार्थ, (4) गुण (5) अलंकार, (6) रस, (7) क्रिया, (8) कारक, (9) लिंग, (10) वचन; (11) विशेषण, (12) उपसर्ग, (13) निपात, (14) काल, (15) देश, (16) कुल, (17) व्रत, (18) तत्व, (19) सत्व, (20) अभिप्राय, (21) स्वभाव, (22) सार-संग्रह, (23) प्रतिभा, (24) अवस्था, (25) विचार, (26) नाम, (27) आशीर्वाद और (28) काव्य के अन्य विविध अंग।
इन 28 तत्त्वों को सुगमता की दृष्टि से निम्नांकित चार विभागों में विभक्त किया जा सकता है-
(क) शब्द – पद, वाक्य, क्रिया, कारक, लिंग, वचन, विशेषण, उपसर्ग, निपात।
(ख) काव्यशास्त्रीय तत्व – प्रबन्धार्थ, गुण, अलंकार, रस, सार-संग्रह, तत्व, आशीर्वाद, काव्य के अन्य अंग।
(ग) चरित्र संबंधी – व्रत, सत्व, अभिप्राय, स्वभाव, प्रतिभा, विचार, नाम।
(घ) परिस्थिति संबंधी – काल, देश, कुल, अवस्था ।
उपर्युक्त अंगों के पर्यालोचन (सम्यक विवेचन) से पता चलता है कि आचार्य क्षेमेन्द्र ने काव्य की विषय-वस्तु और उसकी शैली दोनों में ही औचित्य का विधान किया है।
औचित्य-अनौचित्य के कुछ उदाहरण
आचार्य क्षेमेन्द्र के दृष्टिकोण को सम्यक रूप से समझने के लिए हम यहाँ उनके द्वारा विवेचित औचित्य के कुछ उदाहरणों का अवलोकन कर सकते हैं।
पद-औचित्य की विवेचना करते हुए वे लिखते हैं “सूक्ति में किसी विशेष पद का उचित प्रयोग इस प्रकार शोभाकारक होता जैसे चन्द्रमुखी युवती के मस्तक पर कस्तूरी तथा श्यामा के है, मस्तक पर चन्दन का तिलक। जैसे- ‘हे देव! युद्ध के समय तुम्हारी इस खड़गधारा में शत्रुओं के कुल डूब गये।’ इस प्रकार की प्रशंसा बहुशः बन्दियों से सुनकर भोली गुर्जर- नरेश की पत्नी जंगल में चकित होकर जल की आशा से पति के कृपाण की ओर देखती है। यहाँ ‘भोली’ शब्द से अर्थ के औचित्य का चमत्कार उत्पन्न होता है।”
इसके विपरीत किसी अनुचित शब्द के प्रयोग से जिस प्रकार काव्य-सौन्दर्य को ठेस पहुँचती है, इसका स्प्पटीकरण करते हुए एक उदाहरण दिया गया है। ‘सौंदर्य रूपी धन के व्यय का कुछ सोच नहीं किया; महान् क्लेश उठाया, स्वच्छन्द और सुख से रहने वाले लोगों को चिन्ता के ज्वर से पीड़ित किया। यह बेचारी भी योग्य पति के अभाव में दुखी है। विधाता ने इस तन्वी को जन्म देने में क्या प्रयोजन सोचा था। इसकी विवेचना करते हुए आचार्य क्षेमेन्द्र लिखते हैं कि यहाँ ‘तन्वी’ शब्द केवल अनुप्रास लोभ से प्रयुक्त हुआ है, वह किसी प्रकार के अर्थोचित्य के चमत्कार को प्रकट नहीं करता। उसके विचार से यहाँ ‘सुन्दरी’ शब्द का प्रयोग उचित था।
अलंकार-औचित्य के सम्बन्ध में आचार्यवर ने स्पष्ट किया है कि प्रतिपाद्य अर्थ के अनुरूप ही अलंकार का प्रयोग होना चाहिए। उदाहरण के लिए “अपना उत्सव देखने के लिए उत्सुक होकर वत्सराज कामदेव की भाँति इधर ही आ रहे हैं लड़ाई की चर्चा समाप्त हो चुकी है। अतः वे प्रेमी प्रत्येक मनुष्य के हृदय में निर्वासित साक्षात् कामदेव के समान लगते हैं।” यहाँ वत्सराज की कामदेव से उपमा श्रृंगार रस के प्रसंग में बड़ी चारुता उत्पन्न करती है। अतः यह औचित्य चमत्कार का कारण बनता है।
इसी प्रकार रसौचित्य की व्याख्या करते हुए अनेक महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं- “औचित्य के द्वारा रस और अधिक आस्वादनीय बनकर सब हृदयों में व्याप्त हो जाता है। मधुमास जैसे अशोक को अंकुरित कर देता है, उसी प्रकार यह भी भावुक हृदयों को अंकुरित कर देता है। मधुर, तिक्त, आदि रसों को चतुराई से मिलाने पर जिस प्रकार एक विचित्र आस्वाद उत्पन्न होता है, उसी प्रकार शृंगार आदि रसों को परस्पर समन्वित करने पर एक विलक्षण रसानुभूति होती है।”
अस्तु, आचार्य क्षेमेन्द्र ने औचित्य का प्रतिपादन सर्वत्र काव्य-सौन्दर्य की अभिवृद्धि के लक्ष्य से ही किया है- अलंकार, गुण, रस आदि का ऐसा आयोजन जो काव्यत्व के विरुद्ध पड़ता है, उनके द्वारा निषिद्ध घोषित किया गया है।
क्षेमेन्द्र-परवर्ती आचार्य
क्षेमेन्द्र-परवर्ती आचार्यों में से कुछ ने ‘औचित्य’ की चर्चा तो की है किन्तु उन्होंने उसे काव्य का प्राण तत्व स्वीकार नहीं किया। आचार्य मम्मट ने कहा है कि औचित्य के कारण गुण भी दोष या गुण बन सकता है – अतः उसके आधार पर गुण दोषों की ही परीक्षा की जा सकती है। इससे अधिक उसका महत्व नहीं है।
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने ‘काव्यानुशासन’ में औचित्य चर्चा गौण रूप से की है। उन्होंने यह बताया है कि पूर्व कवियों का अनुकरण कहाँ तक उचित है और कहाँ तक अनुचित।
आगे चलकर ‘साहित्यदर्पणकार’ आचार्य विश्वनाथ एवं पंडितराज जगन्नाथ ने भी इसे गुण दोषों तक ही सीमित रखा।
हाँ, आधुनिक युग के कतिपय आचार्यों ने अवश्य ही इसकी प्रशंसा की है। साहित्याचार्य बलदेव उपाध्याय ने इसके सम्बन्ध में लिखा है- “सच्ची बात तो यह है कि औचित्य भारतीय अलंकारियों की संसार के आलोचना-शास्त्र को महती देन है। जितना प्राचीन तथा सांगोपांग विवेचन इसका भारत में हुआ है, उतना अन्यत्र नहीं। यह हमारे साहित्य के महत्व का पर्याप्त परिपोषक है।’
पाश्चात्य काव्य-शास्त्र और औचित्य
पाश्चात्य काव्य-शास्त्र के क्षेत्र में भी औचित्य पर पर्याप्त विचार हुआ है। प्रसिद्ध यवनाचार्य अरस्तू ने अपने ‘पोइटिक्स’ में चार प्रकार के औचित्य की मीमांसा की है- (1) घटनौचित्य; (2) रूपकौचित्य, (3) विशेषणौचित्य, (4) विषयौचित्य ।
घटनौचित्य के सम्बन्ध में उनका विचार है कि साहित्य में वर्णित घटना जगत् से सम्बद्ध और स्वाभाविक होनी चाहिए। दूसरे, प्रासंगिक घटना मुख्य घटना से उचित रूप में सम्बन्धित होनी चाहिए।
रूपकोचित्य के सम्बन्ध में उनका मत है कि गद्य को प्रभावशाली एवं सुन्दर बनाने के लिए ही उनका प्रयोग करना चाहिए। रूपक में इस बात की भी सावधानी रखनी चाहिए कि वस्तु का उत्कर्ष दिखाने के लिए उत्कृष्ट गुणों से युक्त विशेषण प्रयुक्त करने चाहिए तथा अपकर्ष दिखाने के लिए हीन गुणों वाले विशेषण। साथ ही उपमान और उपमेय के जाति, गुण, धर्म आदि का भी साम्य अपेक्षित है।
विशेषणौचित्य में विशेषण का लक्ष्य वर्ण्य विषय के भावार्थ को पुष्ट करना होता है। विषयौचित्य के लिए भावानुकूल भाषा का प्रयोग करना चाहिए। भाव यदि उदात्त है तो भाषा क्षुद्र या अशक्त नहीं होनी चाहिए।
अरस्तू ने अपने दूसरे ग्रन्थ ‘रेटारिक्स’ में भी औचित्य (Propriety) की विशद रूप में विवेचना की है। इसमें शैली सम्बन्धी विभिन्न गुणों एवं तत्त्वों के औचित्य पर प्रकाश डाला गया है।
लौंजाइनस (213-276 ई) ने अपने उदात्त-तत्व सम्बन्धी ग्रंथ (On the sublime)
में दो प्रकार के औचित्य- अलंकारौचित्य एवं शब्दौचित्य की विवेचना की है। उन्होंने यह स्पष्ट रूप में स्वीकार किया है कि अलंकारों और शब्दों के उचित प्रयोग से ही काव्य के प्राण-तत्व-उदात्त तत्व की सिद्धि होती है।
आगे चलकर एक अन्य पाश्चात्य आचार्य होरेस ने अपने ‘काव्य-कला’ संबंधी प्रबन्ध में कवियों के लिए तीन उपदेश दिये हैं, जिनमें एक ‘काव्य में औचित्य का सदा ध्यान रखना है।’
इसका अधिक स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने बताया है कि यदि ऐतिहासिक कथा को लेकर काव्य-रचना की जाय तो उसके पात्रों का स्वभाव परम्परा के अनुसार ही दिखाना उचित है। इसके अतिरिक्त अभिनय आदि में भावानुरूपता एवं स्वाभाविकता का ध्यान रखा जाना चाहिए। छन्दों के औचित्य के संबंध में उनकी सम्मति है कि जिस प्रकार का विषय हो, उसी के अनुकूल छन्द का चुनाव करना चाहिए।
आगे चलकर यूरोप के क्लासीकल युग में औचित्य की पूरी-पूरी मान्यता रही। इसी मार्ग के अनुयायी कवि तथा आलोचकों की दृष्टि में कला के क्षेत्र में अनुशासन की मान्यता वर्तमान थी; शास्त्र तथा लोक – दोनों का ही अनुशासन कला में उन्होंने माना था। लोक का अनुशासन औचित्य ही है।
क्षेमेन्द्र ने काव्य के प्रेरणा तत्व जिस प्रकार जीवन से लिये थे, उसी प्रकार क्लासीकल समीक्षकों ने भी काव्य लोचन का आदर्श लोक को माना है। लोक के उदात्त, शिष्ट रूप को आदर्श बताया है। यही औचित्य की मूल भावना है।” (डॉ० मनोहरलाल गौड़)
वस्तुतः औचित्य को भारतीय एवं पाश्चात्य आचार्यों ने समान रूप से महत्व प्रदान किया है।
निष्कर्ष
अन्त में औचित्य सम्प्रदाय के महत्व के सम्बन्ध में हम निजी दृष्टिकोण से विचार कर सकते हैं। जहाँ तक उसकी उपलब्धियों का सम्बन्ध है, यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि काव्य-शास्त्र में औचित्य की प्रतिष्ठा से एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति हुई।
एक ओर तो इससे अलंकारवादियों, रीतिवादियों एवं वक्रोक्तिवादियों की अति चमत्कारवादी प्रवृत्तियों के नियंत्रण में योग मिला, दूसरी ओर काव्य में स्वाभाविकता को अत्यधिक सम्मान प्राप्त होने लगा।
क्षेमेन्द्र ने यह स्पष्ट कर दिया कि केवल अलंकार और रीति का प्रयोग काव्य को सौन्दर्य के बढ़ाने में सहायता तो देता ही नहीं, अपितु उसे ठेस भी पहुँचा सकता है। यदि हम छठी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक की संस्कृत रचनाओं को देखें तो पता चलेगा कि इस युग का साहित्य किस प्रकार कृत्रिम अलंकारयोजना से आच्छादित होकर सौन्दर्यविहीन; शुष्क एवं जटिल हो गया था। औचित्यवाद ने इसका घोर बहिष्कार करके परवर्ती युग की काव्य-रचनाओं को भले ही ये संस्कृत भाषा की न होकर अन्य भाषा की हों- नया दृष्टिकोण प्रदान किया।
क्षेमेन्द्र का औचित्य या स्वाभाविकता सम्बन्धी दृष्टिकोण आधुनिक युग की धारणाओं के भी अनुकूल है। इतना अवश्य है कि जहाँ आधुनिक युग का साहित्यकार साहित्य को नियमों से सर्वधा मुक्त कर देने में उसकी स्वाभाविकता मानता है, वहाँ क्षेमेन्द्र आवश्यक नियमों का पालन करते हुए यथार्थ चित्रण में स्वाभाविकता मानते हैं। किन्तु यह अन्तर भी युग के दृष्टिकोण के अनुकूल ही है। उस युग का पाठक सामाजिक प्राचीन नियमों को श्रद्धा की दृष्टि से देखता था, अतः उसका पालन उस युग के साहित्यकार के लिए अपेक्षित था, जबकि आज का दृष्टिकोण बदल गया है।
यहाँ एक बात विचारणीय है कि क्या औचित्य को काव्य का जीवन या प्राण, माना जा सकता है? क्या औचित्य अपने-आपमें इतना समर्थ है कि वह काव्य में सौन्दर्यतत्व की प्रतिष्ठा कर सके ? इन प्रश्नों का उत्तर हमें निषेधात्मक ही देना पड़ेगा।
इसमें सन्देह नहीं कि औचित्य से काव्य में मूल सौन्दर्य की रक्षा होती है, उसके अभाव में सौन्दर्य नहीं रहता- कुरूपता में परिणत हो सकता है, किन्तु यह भी स्पष्ट है कि वह मूल सौन्दर्य का स्थानापन्न नहीं बन सकता। औचित्य में अपने-आपमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह काव्य- सौन्दर्य की सृष्टि कर सके।
उदाहरण के लिए विज्ञान, दर्शन एवं इतिहास की पुस्तकें भी औचित्य से युक्त होती हैं- भाषा, शैली एवं विचार आदि में से किसी का भी औचित्य वहाँ स्वीकार नहीं होता, किन्तु फिर भी उनमें वह सौन्दर्य नहीं आ पाता जो कि काव्य में उपलब्ध होता है। यह ठीक है कई बार औचित्य या स्वाभाविकता के कारण ही कोई उक्ति सुन्दर बन जाती है; किन्तु यदि हम सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो वहाँ भी उसके सौन्दर्य के मूल में औचित्य के साथ-साथ कोई अन्य तत्व भी मिश्रित होगा।
उदाहरण के लिए सूरदास के बाल-वर्णन की प्रशंसा में कई बार उसकी स्वाभाविकता की चर्चा की जाती है। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि केवल स्वाभाविक या उचित होने के कारण ही वह सुन्दर है । वस्तुतः सूर के बाल-वर्णन में भावात्मकता का पुट ही सौन्दर्य का मूल कारण है, स्वाभाविकता तो उस मूल कारण की एक विशेषता मात्र है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि अस्वाभाविक रूप में प्रस्तुत भावव्यंजना काव्य-सौन्दर्य की सृष्टि में सहायक नहीं होगी; किन्तु साथ ही यह भी असंदिग्ध है कि भावनाशून्य होने पर एक स्वाभाविक वर्णन भी दंडी द्वारा कथित ‘वार्ता’ मात्र रह जायेगा, काव्य की संज्ञा उसे नहीं दी जा सकेगी। अस्तु, कहना चाहिए कि औचित्य वह तत्व है जो कविता-कामिनी के मुखचंद्र को निखारकर निष्कलंक, अम्लान एवं स्वच्छ तो बनाता है, किन्तु उसे ज्योत्स्ना का नया वैभव प्रदान करना उसके वश की बात नहीं है।

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