‘कामायनी’ का महाकाव्यत्व | Kamayani Ka Mahakavyatva

‘कामायनी’ (1935 ई.) जयशंकर प्रसाद Kamayani Jaishankar Prasad की महाकाव्यात्मक रचना है । ‘कामायनी’ में कुल पंद्रह सर्ग (ग्रंथ का प्रकरण या अध्याय) हैं, जो क्रमानुसार इस प्रकार हैं : चिंता, आशा, श्रद्धा, काम, वासना, लज्जा, कर्म, ईर्ष्या, इड़ा, स्वप्न, संघर्ष, निर्वेद, दर्शन, रहस्य तथा आनंद।


‘कामायनी’ का महाकाव्यत्व | Kamayani Ka Mahakavyatva


  
  ‘कामायनी’ (1935 ई.) जयशंकर प्रसाद Kamayani Jaishankar Prasad की महाकाव्यात्मक रचना है । ‘कामायनी’
में कुल पंद्रह सर्ग (ग्रंथ का प्रकरण या अध्याय) हैं
, जो क्रमानुसार इस प्रकार हैं : चिंता, आशा,  श्रद्धा, काम, वासना, लज्जा, कर्म, ईर्ष्या, इड़ा, स्वप्न, संघर्ष, निर्वेद, दर्शन, रहस्य तथा आनंद।

        ‘कामायनी’ के मुख्य पात्र हैं – मनु, श्रद्धा, इड़ा
    और कुमार। जिनमें मनु
    मन’, श्रद्धा हृदय’, इड़ा बुद्धि तथा कुमार मानव का प्रतीक
    हैं ।


        ‘कामायनी’ Kamayani Jaishankar Prasad की कथावस्तु का आधार ऋग्वेद, छान्दोग्य उपनिषद, शतपथ ब्राह्मण तथा
    श्रीमद्भगवद है । कामायनी में वर्णित घटनाक्रम ‘शतपथ
    ब्राह्मण’
    से  लिया गया है ।


        ‘कामायनी’ में प्रसाद ने मूल मनोभावों का पात्रों में रूपांतरण कर,
    प्रथम पुरुष (मनु) एवं प्रथम स्त्री (श्रद्धा) की कथा के माध्यम से मनुष्य के
    सम्पूर्ण अस्तित्व की कथा प्रकारांतर (दूसरी तरह) से कह दी है ।


        ‘कामायनी’के Kamayani Jaishankar Prasad ‘स्वप्न’ और ‘संघर्ष’ सर्गों में सारस्वत प्रदेश का
    वर्णन हुआ है। इसमें पूंजीवादी सभ्यता और वर्ग-संघर्ष का संकेत मिलता है ।


        कमायानी में स्त्री-पुरुष की संरचना समझते हुए सृष्टि के विकास में
    उनका योगदान, ‘संघर्ष’, एवं ‘प्रेम’ के संयोग से उपजे ‘आनंद’ के आधार पर माना गया
    है ।


        इसमें प्रत्यभिज्ञा दर्शन, अरविन्द दर्शन, एवं गाँधीवाद का प्रभाव
    भी दिखाई देता है।


        ‘कामायनी’ में मुख्य रस के रूप में ‘शांत रस’ तथा मुख्य छंद के रूप
    में ‘ताटक छंद’ का प्रयोग किया गया है ।


        ‘कामायनी’ में बुद्धिवाद के विरोध में हृदयतत्त्व की प्रतिष्ठा करते
    हुए कवि ने शैव दर्शन के आनंदवाद को जीवन के पूर्ण उत्कर्ष का साधन स्वीकार किया है ।


    ‘कामायनी’ का महाकाव्यत्व ‘Kamayani’ Ka Mahakavyatva

        
        
    ‘कामायनी’
    की रचना महाकाव्य के प्राचीन लक्षणों के आधार पर न होकर आधुनिक मान्यताओं के आधार
    पर हुई है। यह आधुनिक युग की परिवर्तित विचारधारा के आधार पर रचित महाकाव्य हैं
    , जिसमें भारतीय और पाश्चात्य समीक्षा
    शास्त्र में वर्णित महाकाव्य के अधिकांश लक्षण उपलब्ध हो जाते हैं। अब हम महाकाव्य
    के लिए अपेक्षित विशेषताओं अर्थात् कथानक
    , नायक, चरित्र-चित्रण, प्रकृति-चित्रण, युग-चित्रण, भाव एवं रस तथा कलागत विशेषताओं के आधार
    पर
    कामायनी’ के महाकाव्यत्व की परीक्षा करेंगे :

    कथानक 

         ‘कामायनी’ का कथानक इतिहास सम्मत है जो आदि मानव
    (मनु) की जीवन गाथा से सम्बन्धित होने के कारण श्रेष्ठ भी है। ऋग्वेद में उपलब्ध
    श्रद्धा और मनु की जीवन कथा अत्यन्त संक्षिप्त है । अतः ‘कामायनी’ के कथानक को भी
    भावों के वर्णन द्वारा और युगीन समस्याओं के चित्रण द्वारा विस्तृत कर दिया है।
    प्रसाद जी अन्तर्मुखी कवि थे
    , उन्हें कथा कहने में उतना रस नहीं
    मिलता जितना भावना व्यापार के विश्लेषण और जीवन की समस्याओं को सुलझाने में मिलता
    है। वस्तुतः ‘कामायनी’ की कथा में एक रूपक (प्रतीक) का निर्वाह किया गया है और इस
    प्रतीकात्मकता के कारण कथा का अधिक विस्तार सम्भव ही न था। ‘कामायनी’ में कथा का
    विस्तार कुछ अलौकिक घटनाओं यथा देव
    , सृष्टि, प्रलय, ताण्डव नृत्य, त्रिपुर
    वर्णन आदि के द्वारा किया गया है। संक्षेप में यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि ‘कामायनी’
    का कथानक लघु होते हुए भी महाकाव्य के अनुकूल है।

    कृपया इसे भी ज़रूर देखें : ‘कामायनी’ का महाकाव्यत्व | Kamayani Ka Mahakavyatva

    नायक 

        ‘कामायनी’ के कथानायक मनु हैं—– वे देवपुरुष हैं, अतः उच्च कुलोद्भव (कुलीन) माने जा
    सकते हैं। मनु अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हैं पर आदर्शवादी महाकाव्यों के नायकों
    की भांति वे धीरोदात्त नायक (भावनाओं पर पूर्ण नियंत्रण रखने वाला नायक) नहीं कहे
    जा सकते। वे धीर ललित नायक (धीर और लालित्य प्रधान नायक)  माने जा सकते हैं। उनके जीवन में दुर्बलता
    ,
    सबलता, निकृष्टता, उत्कृष्टता
    आदि का समावेश किया गया है। इसका मूल कारण यह है कि प्रसाद जी मनु को अतिमानव नहीं
    बनाना चाहते थे
    , वे उसे यथार्थ जीवन के अधिक निकट लाना चाहते
    हैं और फिर दूसरा कारण यह भी है कि मनु मन के प्रतीक हैं जिसमें गुण-दोष दोनों
    होते हैं। इस रूपकत्व (प्रतीक) का निर्वाह करने के लिए इन दुर्बलताओं को दिखाना
    आवश्यक है कि किस प्रकार एक व्यक्ति अपनी राजसी (राजा के योग्य) और तामसी (कुटिल) प्रवृत्तियों
    से ऊपर उठता हुआ सात्विक जीवन व्यतीत करता है। यह मनु के माध्यम से प्रसाद जी ने
    अंकित किया है।
         वस्तुतः ‘कामायनी’ Kamayani Jaishankar Prasad नायक
    प्रधान महाकाव्य न होकर नायिका प्रधान महाकाव्य है। क्योंकि महाकाव्य की कथा की
    नायिका में जो गुण अपेक्षित होने चाहिए
    , वे श्रद्धा में विद्यमान हैं। अतः
    नायक के दृष्टिकोण से भी ‘कामायनी’ को महाकाव्य कहा जा सकता है।

     चरित्र-चित्रण

          ‘कामायनी’ में प्रसाद जी ने मनुष्य की चित्तवृत्तियों
    (मन का भाव) की ओर ध्यान देते हुए पात्रों के चारित्रिक विकास को दिखाने का
    प्रयत्न किया है। इस काव्य में प्रमुख पात्रों का सार्थक चरित्र-चित्रण मिलता है। ‘कामायनी’
    में श्रद्धा
    , मनु और इड़ा ये तीन पात्र है, जो मानव की
    चित्तवृत्तियों (चित्त की अवस्था या मन का भाव) का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रसाद
    जी मे इन पात्रों के चरित्र-चित्रण के द्वारा ही मानव मन की चारित्रिक विशेषताओं
    ,
    बारीकियों के उत्थान-पतन में सहायक प्रवृत्तियों का सुन्दर विवेचन (परीक्षण
    और वर्णन) किया है। प्रसाद जी ने घटनाओं का अधिक जाल इस काव्य ग्रन्थ में नहीं रखा
    है केवल उन्हीं घटनाओं की योजना की गई है जो पात्रों के चरित्रांकन में सहायक रही
    हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि चरित्र-चित्रण की दृष्टि से यह एक सफल
    महाकाव्य है।


    प्रकृति-चित्रण

        ‘कामायनी’ में प्रकृति के आलम्बन (भाव का आधार), उद्दीपन (उत्तेजित करना), मानवीकरण, रहस्यात्मक, संवेदनात्मक,
    प्रतीकात्मक आदि सभी रूपों का वर्णन मिलता है। आलम्बन रूप में ‘कामायनी’
    में बिम्ब ग्रहण प्रणाली द्वारा प्रकृति के रमणीय एवं भयानक रूपों के संश्लिष्ट
    चित्र प्रस्तुत किए गए हैं।
    चिन्ता
    सर्ग का प्रलय वर्णन प्रकृति के भयंकर रूप का उत्कृष्ट
    उदाहरण है :

    हा-हाकार
    हुआ क्रन्दनमय
    ,

    कठिन
    कुलिश होते थे चूर।

     हुए दिगंत वघिर भीषण रव,

    बार-बार
    होता था क्रूर
    ||

     
        महाकाव्य में संध्या, रजनी, उषा आदि
    के चित्र भी अंकित किए जाने चाहिए। ‘कामायनी’ में उषाकाल का चित्रण करते हुए
    आशा सर्ग के अन्तर्गत प्रसाद जी ने लिखा है :

    उषा
    सुनहले तीर बरसाती
    ,

    जय
    लक्ष्मी सी उदित हुई।

    उधर
    पराजित काल-रात्रि भी
    ,

    जल
    में अन्तर्निहित हुई।।

     
        इसी प्रकार चांदनी का सुन्दर
    चित्रण निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत किया गया है:

    धवल मनोहर चन्द्र बिम्ब से,

    अंकित
    सुन्दर स्वच्छ निशीथ।”



        ‘कामायनी’ में प्रसाद जी ने उद्दीपन रूप में और प्रतीकात्मक रूप में
    भी प्रकृति-निरूपण किया है। निम्न पंक्तियों में प्रकृति के प्रतीकात्मक रूप की
    झांकी देखी जा सकती है :

    मधुमय
    बसंत जीवन वन के
    ,

    वह
    अन्तरिक्ष की लहरों में।

    कब
    आए थे तुम चुपके से
    ,

    रजनी
    के पिछले पहरों में।।


        महाकाव्य में प्रकृति-निरूपण लोक-शिक्षिका के रूप में भी किया जाता
    है। ‘कामायनी’ में भी प्रकृति के इस रूप को देखा जा सकता है।

         चिन्तासर्ग में जीवन की क्षणभंगुरता
    को चित्रित करने के लिए कवि ने प्रकृति का सहारा लिया है:

    जीवन
    तेरा क्षुद्र अंश है
    ,

    व्यक्त
    नील घनमाला में।

    सौदामिनी
    सन्धि सा सुन्दर
    ,

    क्षण
    भर रहा उजाला में।।


        सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रसाद जी ने प्रकृति के रम्य
    एवं भयानक रूपों की आकर्षक एवं भव्य झांकी ‘कामायनी’ में प्रस्तुत की है। उन्होंने
    प्रकृति के व्यापक रूप का चित्रण किया है जिससे हिन्दी कविता में प्रकृति चित्रण
    का मार्ग प्रशस्त हुआ है। महाकाव्य में वन
    , नदी, पर्वत,
    सन्ध्या, उषा, प्रभात
    आदि का जो वर्णन अपेक्षित होता है वह भी ‘कामायनी’ में उपलब्ध है।

     

    युग-चित्रण


        ‘कामायनी’ Kamayani Jaishankar Prasad आधुनिक युग का प्रतिनिधि महाकाव्य है अतः
    इसमें वर्तमान युग की स्थिति का पूरा चित्रण दिया गया है और अनेक युगीन समस्याओं
    को स्थान दिया गया है। आधुनिक युग में नारी मुक्ति आन्दोलन एवं नारी-शिक्षा को
    महत्व देते हुए प्रसाद जी ने नारी को पुरुष से श्रेष्ठ बतलाया है। नारी का हृदय
    अनेक सात्विक वृत्तियों से युक्त है और वह पुरुष की प्रेरणा शक्ति है। श्रद्धा के
    हृदय में जो भाव रूपी रत्न विद्यमान है वे वस्तुतः नारी हृदय की वास्तविकता की
    झांकी प्रस्तुत करते हैं:

    दया
    माया ममता लो आज
    ,

    मधुरिमा
    को अगाध विश्वास।

    हमारा
    हृदय रत्ननिधि स्वच्छ
    ,

    तुम्हारे
    लिए खुला है पास।।


        प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति को मानव के
    लिए अहितकर बतलाया है। सारस्वत नगर के उत्कर्ष-अपकर्ष द्वारा यह दिखाया गया है कि
    यान्त्रिक सभ्यता श्रेयस्कर नहीं है। इससे प्राकृतिक शक्ति का ह्रास हो रहा है और
    मानव जीवन में भौतिकता बढ़ती जा रही है तथा आध्यात्मिकता समाप्त होती जा रही है।
    भौतिकता के निरन्तर विकास से व्यक्ति भोग-विलास की ओर बढ़ जाता है। इस प्रकार वह
    अपने विनाश को स्वयं आमंत्रित करता है। विलासरत देवताओं का जल प्रलय से विनाश इस भौतिकता
    की ही देन है।

        प्रसाद जी ने तात्कालिक युग में व्याप्त गांधीवाद के सिद्धान्तों
    सत्य
    , अहिंसा,
    सेवा, सर्वोदय, ग्राम
    सुधार आदि का समावेश भी ‘कामायनी’ में किया है। श्रद्धा पशुयज्ञ का विरोध करती हुई
    अहिंसा का समर्थन करती है :

    और
    किसी की फिर बलि होगी
    ,

    किसी
    देव के नाते।

    कितना
    धोखा उससे तो हम
    ,

    अपना
    ही सुख पाते।।


        इस
    विवेचन से स्पष्ट है कि प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ में युग-चित्रण को भी पर्याप्त
    महत्व दिया है।

    भाव एवं रस 


        ‘कामायनी’ में भावों का अत्यन्त सजीव वर्णन मिलता है।
    कहीं-कहीं कवि वर्णन में इतना लीन हो गया है कि वह कथा की उपेक्षा कर बैठा है और
    भाव वर्णन में ही पूरा सर्ग (प्रकरण या अध्याय) लिख गया है। लज्जा मनोभाव के कारण
    वृत्तियों में जो संकोच उत्पन्न होता है
    , उसका वर्णन निम्न पंक्तियों में किया
    जा सकता है:

    छूने
    में हिचक देखने में
    ,

    पलकें
    आंखों पर झुकती हैं।

    कलरव
    परिहास भरी गूंजें
    ,

    अधरों
    तक सहसा रुकती हैं।


        ‘कामायनी’ में प्रमुख रूप से श्रृंगार और
    शान्त रस
    की प्रधानता रही है
    , पर गौण रूप से अन्य रसों की स्थिति
    भी ‘कामायनी’ में है। शृंगार के दोनों ही पक्षों-संयोग और
    वियोग
    का निरूपण ‘कामायनी’ में किया गया है। मनु और श्रद्धा के प्रथम मिलन
    पर श्रद्धा के सौन्दर्य को देखकर मनु आश्चर्य चकित हो गए। उस सम्मोहक सौन्दर्य का
    सुन्दर चित्रण निम्न पंक्तियों में है:

    और
    देखा वह सुन्दर दृश्य
    ,

    नयन
    का इन्द्रजाल अभिराम।

    कुसुम
    वैभव में लता समान
    ,

    चन्द्रिका
    से लिपटा घनश्याम
    ||

     
        विप्रलम्भ शृंगार (प्रेमी-प्रेमिका का वियोग) के वर्णन में भी कवि
    को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। मनु के चले जाने पर श्रद्धा के वियोग का सुन्दर चित्रण
    कवि ने किया है :

    श्रद्धा
    अपनी शयन गुहा में
    ,

    दुःखी
    लौटकर आई।

    एक
    विरक्त बोझ सी ढोती

    मन
    ही मन दिखलाई।।


         शान्त
    रस
    भी ‘कामायनी’ का प्रमुख रस है
    चिन्ता’, ‘दर्शन’,
    रहस्यऔर आनन्द
    सर्ग में इस रस का सम्यक वर्णन हुआ है :

    ज्ञान
    दूर कुछ क्रिया भिन्न है
    ,

    इच्छा
    क्यों पूरी हो मन की।

    एक
    दूसरे से न मिल सकें
    ,

    यह
    विडम्बना है जीवन की।।


     कलागत विशेषताएं

         ‘कामायनी’ Kamayani Jaishankar Prasad में महाकाव्योचित
    शैली
    का निर्वाह भी किया गया है। यह एक सर्गबद्ध महाकाव्य है। इसका नामकरण
    इसकी नायिका (कामायनी) श्रद्धा के नाम पर किया गया है। इसमें
    पन्द्रह सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग का नामकरण उसमें
    वर्णित प्रमुख मनोभाव या घटना के आधार पर किया गया है। सर्ग के अन्त में आगामी कथा
    का संकेत भी दिया गया है। अधिकांश सर्गों में कवि ने एक सर्ग में एक ही छन्द के
    नियम का पालन किया है । समस्त छन्द विधान शास्त्रानुकूल है।

        ‘कामायनी’ की भाषा शुद्ध खड़ी बोली
    है जिसका शब्द विधान उच्चकोटि का है। प्राचीन और नवीन अलंकारों
    का प्रयोग
    इस काव्य ग्रन्थ में किया गया है। इसकी रचना शैली में कलात्मकता
    की प्रधानता रही है। लाक्षणिकता (लक्षणा शब्दशक्ति पर आधारित)
    , उपचारवक्रता और विशेषण विपर्यय के
    कारण इसमें कहीं-कहीं दुरूहता अवश्य आ गई है
    , परन्तु अपने
    काव्य सौष्ठव और सरसता के कारण इसकी उत्कृष्टता में कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई है।

    निष्कर्ष

        निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि ‘कामायनी’ Kamayani Jaishankar Prasad आधुनिक युग का
    प्रतिनिधि महाकाव्य है उसमें रूढ़िवादिता का विरोध है क्योंकि वे (प्रसाद) समय की
    बदलती हुई प्रवृत्तियों के अनुरूप आदर्श लेकर चले हैं। इस महाकाव्य में विस्तार का
    अभाव होने पर भी मानवता के समग्र रूप का चित्रण उत्कृष्ट एवं भव्य शैली में किया
    गया है। अतः यह कहना समीचीन (उचित
    , ठीक) होगा कि ‘कामायनी’ में महाकाव्य
    के सभी गुण विद्यमान हैं और
    कामायनी
    एक महाकाव्य है ।

    *****

     


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