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आज जो तथ्य, विषय अज्ञात है, उसे जानना ही अनुसंधान है। अनुसंधान कार्य करने से पहले सर्वप्रथम विषय का चुनाव करना होता है।
अनुसंधान-प्रक्रिया का दूसरा सोपान निर्देशक का चुनाव है । उनके बिना अनुसंधान-कार्य की कल्पना करना असंभव है । अनुसंधान-प्रक्रिया में विषय का चुनाव कर लेने के बाद अगले पड़ाव अथवा लक्ष्य के रूप में ‘रूपरेखा’ तैयार करने का कार्य करना होता है । इसे अँग्रेजी में ‘सिनोप्सिस’ कहते हैं, जिसे तैयार करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य होता है । अनुसंधान की सफलता का पहला चरण है, रूपरेखा तैयार करना ।
‘रूपरेखा’ या ‘प्रारूप’ शोधकार्य का बीज
है, जिसका सम्पूर्ण विकास शोध-प्रबंध के विस्तृत वटवृक्ष के
रूप में होता है । यह प्रबंध को मूर्त रूप देता है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा
सकता है कि शोध-विषय का क्रमिक अर्थात् अध्यायों, शीर्षकों, उप-शीर्षकों में व्यवस्थित विभाजन ही रूपरेखा है । ‘सिनोप्सिस’ किसी भी शोध की जननी है । इसमें
शोध-कार्य का सार, संक्षेप में प्रस्तुत करना होता है।
‘सिनोप्सिस’ तैयार करना synopsis taiyar karna
रूपरेखा तैयार करने से पूर्व शोध-छात्र को कुछ तथ्य स्पष्ट करने
होते हैं। उदाहरण के लिए शोध का क्या लक्षण होगा ? शोध की कौन सी प्रविधि होगी ? शोध-लेखन किस शैली में
होगा ? शोध-प्रबंध में कितने अध्याय होंगे ? शोध के लिए सहायक सामग्री तथा अंगीय कार्य (field work) आदि का किस प्रकार प्रयोग किया जाएगा आदि ।
अध्याय का विभाजन
सर्वप्रथम
अनुसंधानकर्ता को अध्यायों का विभाजन करना होता है अर्थात् उसे यह निर्धारित करना
होता है कि वह अपने शोध-कार्य को कितने अध्यायों में प्रस्तुत करेगा । साथ ही साथ
उसे यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि अध्यायों की संख्या न तो बहुत अधिक हो और न
बहुत कम । प्रायः यह माना जाता है कि शोध में सात से ग्यारह अध्याय तक होना आदर्श
होता है । अध्याय विभाजन विषय की गहराई,
लंबाई और चौड़ाई के अनुरूप ही होना आवश्यक है ।
शोध-विषय का क्रमिक तथा व्यवस्थित विभाजन
शोध-विषय का क्रमिक तथा व्यवस्थित विभाजन ही ‘रूपरेखा’ है । यह शोध-कार्य का कच्चा लेखा-जोखा है ।
शोध-कार्य में रूपरेखा प्रारंभिक तथा अस्थाई होती है, स्थायी
तथा स्थिर नहीं । वस्तुतः रूपरेखा शोध-संरचना के विभिन्न संरेचक बिन्दु हैं।इसका निर्माण मानसिक संकल्पना पर आधारित रहता
है । सामग्री-संग्रह, वर्गीकरण-विश्लेषण, विभाजन-संयोजन तथा विवेचन की प्रक्रिया से यह मानसिक संकल्पना संशोधित
होकर प्रामाणिक तथा वैज्ञानिक बनती है। रूपरेखा निर्माण के समय ग्रंथ-सूची, तथ्य-प्राप्ति-स्त्रोत, तथ्य प्राप्ति स्थान तथा
शोध-कार्य में सहायता पहुँचाने वाले विद्वानों की सारणी प्रस्तुत करना आदर्श
पद्धति है ।
रूपरेखा निर्माण में शोधार्थी को निर्देशक का
सहयोग
रूपरेखा निर्माण synopsis taiyar karna का कार्य शोधार्थी
तथा निर्देशक दोनों का है । दोनों के सहयोग से ही रूपरेखा बनती है । शोधार्थी को
चाहिए कि वह निर्देशक पर ज़्यादा निर्भर न रहकर एक जैसी रूपरेखा देखकर स्वयं
रूपरेखा तैयार करे । शोध-निर्देशक को उसमें अपेक्षित तथा आवश्यक संशोधन कर देना
चाहिए । आदर्श-रूपरेखा निर्माण के लिए शोधार्थी तथा निर्देशक को उस विषय से
मिलती-जुलती एकाधिक रूपरेखाओं को अवश्य देख लेना चाहिए । इससे रूपरेखा निर्माण
करने में सुगमता होगी । रूपरेखा निर्माण करते समय उसमें नवीन तथा मौलिक अध्ययन
बिन्दुओं का समावेश होना चाहिए । उदाहरण के लिए ‘कामायनी में आधुनिकता : परंपरा और प्रयोग’ विषय की
रूपरेखा बनानी है तो इसके लिए एकाधिक विश्वविद्यालयों की अन्य विषयों की समानधर्मी
रूपरेखाओं को देख लेना चाहिए; जैसे- ‘रामचरित मानस में
आधुनिकता : परंपरा और प्रयोग’ ।
एक सुवस्थित रूपरेखा के प्रमुख चरण
(क) प्रस्तावित
अनुसंधान का शीर्षक ।
(ख) उपाधि
तथा संस्था का नाम जहाँ प्रस्तुत करना है ।
(ग) (1)
निर्देशक का नाम
(2) शोधार्थी का नाम
(घ) विषय की समस्या के अंतर्गत
समस्या की उत्पत्ति का संक्षिप्त विवरण देते हुए उसे प्रस्तुत करना ।
(ङ) इस विषय में अब तक हो चुके
कार्य का संक्षिप्त विवरण और सीमाएं तथा
प्रस्तुत अध्ययन-शोध की आवश्यकता,
महत्व और उपयोगिता पर प्रकाश डालना ।
(च) इस विषय में और क्या किया
जा सकता है, जिससे नवीन तथ्य अनावृत्त
हों।
(छ) इस शोध के लिए कौन-कौन से
संदर्भ-ग्रन्थों की आवश्यकता होगी। इस विषय की संभावित सूची तैयार की जाएगी ।
रूपरेखा का आकार
जिस
प्रकार प्रत्येक शोध का विषय एक जैसा नहीं होता उसी प्रकार प्रत्येक शोध-विषय की
रूपरेखा भी एक जैसी नहीं हो सकती। साहित्य की रूपरेखा तथा भाषा-शोध की रूपरेखा
एक-दूसरे से भिन्न होगी । शिष्ट-साहित्य तथा लोक-साहित्य संबंधी विषयों की
रूपरेखाएँ भी एक-दूसरे से भिन्न होंगी ।
महाकाव्य तथा खंडकाव्य की रूपरेखाएँ पर्याप्त
मात्रा में समान होंगी । ‘कामायनी में नारी
चित्रण’ तथा ‘साकेत में नारी चित्रण’ शोध-विषयों की रूपरेखाएँ कुछ समान होंगी ।
रूपरेखा निर्माण शोधार्थी की योग्यता तथा शोध-निर्देशक
की विशेषज्ञता का मापक होता है । इससे शोध-परीक्षक को मूल्यांकन का आधार प्राप्त
होता है । विषय की रूपरेखा,
शोध-प्रक्रिया, शोध-प्रविधि तथा शोध-व्यवस्था को भी
निर्धारित करती है।
साधारणतः
रूपरेखा दो प्रकार की होती है –
(क) संक्षिप्त
रूपरेखा या सीमित रूपरेखा
(ख) विस्तृत
रूपरेखा
संक्षिप्त रूपरेखा या सीमित रूपरेखा
जहाँ
शोध-अध्ययन खंडों में तथा अध्यायों में विभक्त रहता है, उसे संक्षिप्त रूपरेखा कहा जाता है; जैसे-‘भ्रमरगीत का भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन’ शोध-विषय को
लिया जा सकता है । इसकी रूपरेखा निम्न होगी :
जैसे –
- प्रथम
अध्याय – ध्वनि वैज्ञानिक अध्ययन - द्वितीय अध्याय – शब्द वैज्ञानिक अध्ययन
- तृतीय अध्याय – पद वैज्ञानिक अध्ययन
- चतुर्थ अध्याय – वाक्य वैज्ञानिक अध्ययन
- पंचम अध्याय – अर्थ वैज्ञानिक अध्ययन
- षष्ठम अध्याय – शोध-निष्कर्ष
यह रूपरेखा संक्षिप्त रूपरेखा कहलाएगी ।
विस्तृत रूपरेखा
जहाँ शोध-अध्ययन अध्यायों, शीर्षकों, उप-शीर्षकों में विभाजित किया जाता है, उसे विस्तृत रूपरेखा कहा जाता है जो इस प्रकार होती है :
- शोध विषय – ‘छायावादी कवियों के काव्य में व्यक्त प्रकृति’
- सर्वप्रथम भूमिका
- पूर्व शोध-कार्य का परिचय
- प्रस्तुत शोध-कार्य की आवश्यकता
- प्रथम अध्याय – छायावादी शब्द की व्युत्पत्ति, स्वरूप
- द्वितीय अध्याय – छायावादी कवियों का परिचय
- तृतीय अध्याय – छायावादी कवियों के काव्य का
परिचय - चतुर्थ अध्याय – महादेवी वर्मा के काव्य में
व्यक्त प्रकृति - पंचम अध्याय – पंत के काव्य में व्यक्त
प्रकृति - षष्ठम अध्याय – निराला के काव्य में व्यक्त
प्रकृति - सप्तम अध्याय – प्रसाद के काव्य में व्यक्त
प्रकृति - अष्टम अध्याय – प्रकृति के विभिन्न रूप जैसे आलंबन रूप में व्यक्त प्रकृति, उद्दीपन रूप में व्यक्त प्रकृति, मानवीकरण रूप में व्यक्त प्रकृति, अलंकरण रूप में व्यक्त प्रकृति ।
- नवम अध्याय – काव्य की भाषा
- दशम अध्याय – शोध निष्कर्ष
शोध कार्य में विस्तृत रूपरेखा synopsis अधिक
उपयोगी रहती है । रूपरेखा देखने मात्र से ही शोध-ग्रंथ का आकार तथा महत्व ज्ञात हो
जाता है । रूपरेखा न अतिसंक्षिप्त हो और न अतिविस्तृत । रूपरेखा के विस्तार को
विषय-क्षेत्र में विस्तार तक सीमित रखना होगा । कोई भी महत्वपूर्ण अध्ययन बिन्दु छूट
न जाए इस बात को ध्यान देना आवश्यक है । एक आदर्श रूपरेखा वह है जिससे शोध-कार्य
में सरलता प्रतीत हो, यथाशीघ्र शोध-कार्य
सम्पन्न हो ।
निष्कर्ष
शोध-कार्य में रूपरेखा प्रस्तुति अत्यंत आवश्यक
आयाम है । जिस प्रकार शरीर में आत्मा का महत्व है, वैसे ही शोध-कार्य में रूपरेखा synopsis प्रस्तुति का । किसी भी शोध-कार्य की
रूपरेखा अंतिम नहीं होती । शोध-कार्य करते समय इसकी सीमाओं में परिवर्तन होता चलता
है । कभी-कभी तो सामग्री-संकलन, वर्गीकरण तथा विश्लेषण से
प्राप्त निष्कर्ष सम्पूर्ण रूपरेखा को ही बदल देते हैं।
अतः आवश्यक है कि शोध-विषय की रूपरेखा synopsis न अति
संक्षिप्त हो और न अति विस्तृत । इतना आवश्यक है कि शोधार्थी अपने प्रबंध के
माध्यम से लिए गए विषय को स्पष्ट कर सके । शोधार्थी का कर्तव्य है कि रूप-रेखा में
संशोधन की सूचना समय-समय पर संबंधित विश्वविद्यालय को देता रहे । सम्पूर्ण शोध-
प्रबंध पूर्ण हो जाने के बाद लेखन के समय जिस रूपरेखा synopsis को आधार बनाया जाता है वही
अंतिम रूपरेखा होती है ।

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