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पुरानी हिंदी/प्रारंभिक हिंदी
पुरानी हिंदी को अपभ्रंश और आधुनिक आर्य भाषाओं के बीच की कड़ी कहा जा सकता है। पुरानी हिंदी को प्रारंभिक हिंदी अथवा प्राचीन हिंदी के नाम से भी जाना जाता है । चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी के शब्दों में – “अपभ्रंश का परवर्ती रूप ही पुरानी हिंदी है ।” आइये अब हम purani hindi के विस्तार से अध्ययन करें ।
purani hindi का परिचय एवं उत्पत्ति
पुरानी हिंदी के स्वरूप को लेकर विद्वान एक मत नहीं है । तेरहवीं से लेकर चौदहवीं शताब्दी के समय में जब पहली बार अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, बिहारी आदि बोलियों के शब्दों का प्रयोग बढ़ रहा था उस भाषिक स्थिति को चंद्रधर शर्मा ने ‘पुरानी हिंदी’ नाम दिया।
डॉ० हरदेव बाहरी ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी भाषा’ में प्रारम्भिक हिंदी या पुरानी हिंदी के तेरह रूपों का विस्तार से उल्लेख किया है। पूरे विवेचन के उपरान्त वे कहते हैं कि- “पं० चंद्रधर शर्मा गुलेरी का मत सही जान पड़ता है कि 11वीं शताब्दी की परवर्ती अपभ्रंश (अर्थात अवहट्ट) से पुरानी हिंदी का उदय माना जा सकता है। परन्तु कठिनाई यह है कि उस संक्रांति-काल की सामग्री इतनी कम ही कि उससे किसी भाषा के ध्वनिगत और व्याकरणिक लक्षणों की पूरी-पूरी जानकारी नहीं मिल सकती है।”
पुरानी हिंदी का नामकरण
आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने purani hindi का नामकरण ‘उत्तरकालीन अपभ्रंश’ के रूप में, पंडित वासुदेव शरण अग्रवाल ने ‘उदीयमान हिंदी’ के रूप में और डॉ० शिवप्रसाद सिंह ने ‘परवर्ती संक्रांतिकालीन अपभ्रंश’ के रूप में किया है।
पुरानी हिंदी की भाषागत विशेषताएं
पुरानी हिंदी की प्रमुख भाषागत विशेषताएं इस प्रकार हैं-
1. स्वरों का ह्रस्वीकरण और दीर्घीकरण भी मिलता है ।
2. सभी शब्द स्वरांत होने लगे। संस्कृत की व्यंजनांत परंपरा पूरी तरह से समाप्त हो गयी ।
3. शब्दों में उकारान्ताता बढ़ गई । इसी कारण पुरानी हिंदी को उकारबहुला भाषा कहा गया है।
4. ऋ के स्थान पर रि, अ, उ, इ, ई जैसी अन्य कई ध्वनियाँ आ गई ।
जैसे-
ऋतू > रितु
नृत्य > नच्च
अमृत > अमिय
5. ‘श’ का प्रयोग बहुत कम मिलता है। ‘ष’ के स्थान पर ‘ख’ पढ़ा जाता है।
6. र और ल में एकालाप दिखाई देता है। कहीं ‘र’ का ‘ल’ तो कहीं ‘ल’ का ‘र’ मिलता है। जैसे-
हरिद्रा > हलदि
सरिता > सलिता
7. व और ब का भेद भी समाप्त हो गया ।
8. पुरानी हिंदी की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता क्षतिपूर्ति दीर्घिकरण भी है। अवहट्ट में संयुक्त व्यंजनों के द्वित्तिकरण की प्रवृत्ति दिखाई देती है। पुरानी हिंदी में द्वित्व में भी केवल एक व्यंजन में स्वर बढ़ गया और दूसरा लुप्त हो गया। जैसे-
कृपण > कृपान
पुत्र > पुत्त > पूत
9. शब्द के बीच में आने वाले संयुक्त व्यंजन द्वित्त्व हो गए। अवहट्ट में ऐसे उदाहरण बहुत मिलते हैं परन्तु प्रारम्भिक हिंदी में ऐसे बहुत उदाहरण हैं,
जैसे-
दुर्जन > दुज्जन
अक्षर > अक्खर
10. पुरानी हिंदी में नए-नए व्याकरणिक नियम विकसित हुए। पुल्लिंग बहुवचन के लिए ‘ए’ और ‘न’ प्रयुक्त हुए, जैसे-बेटे, बेटन । स्त्रीलिंग बहुवचन के लिए अन्, न्ह. एं, आँ, प्रयुक्त हुए, जैसे- सखियन, बीथिन्ह, अखियाँ ।
स्त्रीलिंग प्रायः इकारांत हैं-आँखि, आगि, दुलहिनी आदि ।
पुरानी हिंदी का साहित्य
purani hindi या आरंभिक हिंदी की प्रमाणिक रचनाओं या स्रोत के बारे में भी विद्वानों में मतमेद है। जहाँ एक और सरहपा, कण्हपा आदि सिद्धों की रचनाएं हैं वहीं दूसरी ओर पुष्पदंत, स्वयंभू आदि जैन कवियों की रचनाएं है।
रोडा कवि की ‘राउरवेल’ के साथ ही विद्यापति और अमीर खुसरो की भाषा में कुछ तत्व मिलते हैं।
‘सन्देश रासक’, ‘प्राकृत-पैंगलम’, ‘प्राकृत व्याकरण’, ‘पुरातन प्रबंध संग्रह’, ‘उक्तिव्यक्ति प्रकरण’, ‘वर्ण रत्नाकर’ और ‘कीर्तिलता’ – यही उस समय के प्रमुख ग्रन्थ हैं जिनकी भाषा अवहट्ट एवं पुरानी हिंदी कही गयी है।
निष्कर्ष
‘पुरानी हिंदी’ अपभ्रंश तथा आधुनिक आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी है । विभिन्न विद्वानों में इसके स्वरूप को लेकर मतभेद की स्थिति है । इस भाषा का काल लगभग तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी का है जब पहली बार हिंदी तथा उसकी बोलियाँ स्वतंत्र रूप से प्रकट होने लगीं थी। इस भाषिक स्थिति को चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने ‘पुरानी हिंदी’ नाम दिया और उन्हीं के द्वारा किया गया नामकरण आज तक प्रचलित है ।
ध्वनि व्यवस्था, व्याकरण रूप तथा शब्द-भंडार की दृष्टि से purani hindi अपभ्रंश, अवहट्ट एवं मध्यकालीन हिंदी के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी है ।

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