अर्थपरिवर्तन की दिशाएँ | Arth Parivartan ki Dishaen

भाषा विज्ञान के अंतर्गत आज हम अर्थपरिवर्तन की दिशाएँ या अर्थविकास की दिशाएँ को समझने का प्रयास करेंगे ।

संसार की सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं। भाषा भी परिवर्तनशील है। जिस प्रकार ध्वनियों में परिवर्तन होता है, उसी प्रकार प्रत्येक भाषा के शब्दों के अर्थों में भी परिवर्तन होता रहता है।

इस अर्थ परिवर्तन को विकास-सिद्धान्त की दृष्टि से ‘अर्थविकास’ भी कहा जाता है।

अर्थ-परिवर्तन किन दिशाओं में होता है ? इस प्रश्न पर सर्वप्रथम फ्रांसीसी भाषाविज्ञानवेत्ता ब्रील (Breal) ने विचार किया था । उन्होंने अर्थ-परिवर्तन की तीन दिशाएँ मानीं – अर्थ-विकास, अर्थ-संकोच तथा अर्थादेश ।

अर्थ विज्ञान के भारतीय विशेषज्ञ यास्क, पतंजलि, भर्तृहरि एवं संस्कृत के अन्य काव्यशास्त्रकारों ने भी अर्थ-विकास की इन्हीं तीन दशाओं का उल्लेख किया है ।  

वर्तमान में अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से अर्थ-परिवर्तन की दिशाओं (या अर्थ विकास की दिशाओं) को निम्न 5 भागों में विभक्त कर उसका विश्लेषण किया जा सकता है:

1. अर्थ-विस्तार (Expansion of Meaning)

2. अर्थ-संकोच (Contraction of Meaning)

3. अर्थादेश (Transference of Meaning)

4. अर्थोत्कर्ष (Elevation of Meaning)

5. अर्थापकर्ष (Deterioration of Meaning)

अर्थ-विस्तार (Expansion of Meaning)

अर्थ-विस्तार का अर्थ है- अर्थ का सीमित क्षेत्र से निकलकर विस्तार पा लेना। ब्रजमोहन के शब्दों में “जब किसी शब्द के अर्थ का प्रयोग-क्षेत्र बढ़ जाता है, तब उसे अर्थ-विस्तार कहते हैं।

कुछ शब्द मूल रूप में किसी विशेष या संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होते थे । बाद में उनके अर्थ में विस्तार हो गया । इसे ही अर्थ-विस्तार कहा जाता है ।

उदाहरण

 ‘प्रवीण’ शब्द का प्रारम्भिक अर्थ-वीणा बजाने में दक्ष था परन्तु आज वह किसी काम में दक्षता, निपुणता का वाचक हो गया है। जैसे कार चलाने में प्रवीण, खाना बनाने में प्रवीण, सिलाई-कढ़ाई में प्रवीण इत्यादि। इस प्रकार, प्रवीण शब्द का अर्थविस्तार स्पष्ट है।

अर्थ-संकोच (Contraction of Meaning)

अर्थ-विस्तार के विपरीत सामान्य या विस्तृत अर्थ के सूचक शब्द का किसी विशिष्ट या संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होना ‘अर्थ-संकोच’ कहलाता है। अर्थ-संकोच का अर्थ ही है अर्थ का संकुचित हो जाना।

डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार “अर्थ-संकोच अर्थ-विस्तार का ठीक उल्टा है। इसमें अर्थ की परिधि पहले विस्तृत रहती है फिर संकुचित हो जाती है।

उदाहरण

‘मृग’ का मौलिक अर्थ जंगली पशु था किन्तु अब यह शब्द सिर्फ ‘हिरण’ के लिए विशिष्ट हो गया है।

अर्थादेश (Transference of Meaning)

शब्द के मूल अर्थ का लुप्त होना और उसके स्थान पर कोई नये अर्थ का आना ‘अर्थादेश’ कहलाता है।

अर्थादेश का अर्थ है, एक अर्थ के स्थान पर दूसरे अर्थ का आ जाना । आदेश का अर्थ है – एक को हटाकर दूसरे का आना । अर्थादेश में शब्द का प्राचीन अर्थ लुप्त हो जाता हा और नया अर्थ आ जाता है ।

 बाबूराम सक्सेना के अनुसार “अर्थादेश विकास की उस अवस्था का नाम है, जब शब्द का प्रयोग प्रचलित प्रसंगों में समाप्त हो चुका हो और नया प्रसंग चल पड़ा हो।

उदाहरण

 ‘असुर’ शब्द पहले ‘देवता’ का वाचक था, आज इस शब्द का इतना अर्थादेश हुआ है कि इसका अर्थ दैत्य, दानव के रूप में आज गृहीत होता है।

अर्थोत्कर्ष (Elevation of Meaning)

अर्थोत्कर्ष का अर्थ है निकृष्ट अर्थ में प्रयुक्त होने वाले शब्दों का उत्कृष्ट अर्थ में प्रयुक्त होना।

ब्रजमोहन के अनुसार “यदि कोई शब्द पहले बुरे अर्थ में प्रयुक्त हो और बाद में अच्छा अर्थ देने लगे तो उसे अर्थोत्कर्ष कहते हैं।”

वस्तुतः, शब्द के निकृष्ट अर्थ का लुप्त होना और शब्द के नवीन, उत्कृष्ट अर्थ का आना ‘अर्थोत्कर्ष’ है।

उदाहरण

‘साहस’ अर्थोत्कर्ष का श्रेष्ठ उदाहरण है। पहले ‘साहस’ का अर्थ था-चोरी, डकैती, लूट, हत्या, पर स्त्री-गमन इत्यादि बुरे कार्य। आज साहस का अर्थ-हिम्मत, हृदय की दृढ़ता इत्यादि से है।

अर्थापकर्ष (Deterioration of Meaning)

अर्थापकर्ष का अर्थ है ‘अर्थ का पतन होना’।

डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार-“अर्थ का उन्नत से अवनत हो जाना अर्थापकर्ष है।”

ब्रजमोहन का मत है कि-“अर्थापकर्ष अर्थोत्कर्ष का उल्टा है। इसमें शब्द का अर्थ अच्छे से बुरे में परिवर्तित हो जाता है।”

वस्तुतः, किसी शब्दार्थ का उत्कर्ष (अच्छा) से अपकर्ष (हीन) बन जाना ‘अर्थापकर्ष’ कहलाता है।

उदाहरण

 ‘सहवास’ अर्थापकर्ष का सुंदर उदाहरण है  । ‘सहवास’ का पहले उत्कृष्ट अर्थ था-गुरु आदि के निकट संपर्क में रहना। आज इसका अर्थ (वासना -sex) निकृष्ट हो गया है।

निष्कर्ष

भाषा की विभिन्न इकाइयों में सतत परिवर्तन के अनुसार विभिन्न शब्दों के अर्थों में परिवर्तन होता रहता है। शब्द के इस प्रकार अर्थ-परिवर्तन को विकास सिद्धान्त के आधार पर अर्थ-विकास की संज्ञा दी जाती है ।

भाषा में अर्थ-परिवर्तन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है । अर्थ का मन से सीधा संबंध है । मानव-मन पर विभिन्न परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता हा, जिसके कारण विभिन्न शब्दों के अर्थों में परिवर्तन होता है ।

अर्थ-परिवर्तन की प्रक्रिया व्यक्तिगत स्तर से प्रारम्भ होकर सामाजिक स्तर पर पहुँच जाती है ।

विभिन्न भाषाओं के शब्दों में होने वाले परिवर्तन के निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं – लाक्षणिक प्रयोग, परिवेश-परिवर्तन, व्यंग्य, सुश्रव्यता, व्यक्ति-आधार, अज्ञानता और भ्रांति, शब्दार्थ अस्पष्टता, सादृश्य, तद्भवता, भावात्मक बल, पुनरावृत्ति, प्रयोगाधिक्य, अन्य भाषाओं के गृहीत शब्द, अन्य भाषा-प्रभाव, अंधविश्वास ।

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