शेखर एक जीवनी ‘अज्ञेय’ agyey जी की बहुचर्चित औपन्यासिक कृति है जिसके दो भाग प्रकाशित हुए हैं। प्रथम भाग का प्रकाशन सन् 1941 ई. में और द्वितीय भाग का प्रकाशन सन् 1944 ई. में हुआ। यह अज्ञेय की ऐसी औपन्यासिक रचना है जिसे जीवनी प्रधान मनोवैज्ञानिक उपन्यास कहना अधिक उचित है। स्वयं अज्ञेय के अनुसार, “ ‘शेखर एक जीवनी’ एक अधूरी जीवनी है जो घनीभूत वेदना की केवल एक रात में देखे ‘विजन’ को शब्दबद्ध करने का प्रयास है।”
इस
उपन्यास का तीसरा भाग भी अज्ञेय जी agyey ने लिखा था, पर वे उसमें कुछ संशोधन करना चाहते थे, जो
न कर सके, परिणामतः
वह छप न सका। क्या शेखर एक जीवनी अज्ञेय की अपनी जीवनी है— इस विषय में अज्ञेय
कहते हैं— “फिर कहता हूँ कि आत्मघटित ही
आत्मानुभूत नहीं होता, परघटित भी आत्मानुभूत हो सकता है। तथापि मेरी अनुभूति और
मेरी वेदना शेखर को अभिसिंचित कर रही है।”
में ही अज्ञेय यह भी स्वीकार करते हैं-“शेखर
में मेरापन कुछ अधिक है। शेखर निःसन्देह एक व्यक्ति का अभिन्नतम निजी दस्तावेज है, ययपि वह
साथ ही उस व्यक्ति के युग संघर्ष का प्रतिबिम्ब भी है।”
‘शेखर’ इस उपन्यास का केन्द्रीय पात्र है। मृत्यु से पूर्व
अपने अन्तरंग क्षणों में पीछे छूटे हुए जीवन से साक्षात्कार करता हुआ शेखर
स्मृतियों में डूबता-उतराता अपनी लम्बी जीवन यात्रा का मानसिक साक्षात्कार इस उपन्यास
की घटनाओं के रूप में कर रहा है। वह अपने ही जीवन का द्रष्टा बन गया है और अब विगत
जीवन की सारी स्मृतियां उसके स्मृति पटल पर घूमती हैं और तब बनता है उपन्यास –‘शेखर
एक जीवनी’।
यह दो भागों में विभक्त है। इनमें से प्रथम भाग का
नामकरण किया गया है—उत्थान एवं
द्वितीय भाग का
नाम है— संघर्ष । प्रथम भाग के
चार खण्ड हैं- उषा और ईश्वर, बीज और
अंकुर, प्रकृति
और पुरुष तथा पुरुष और परिस्थिति। इसी
प्रकार द्वितीय भाग के
भी चार खण्ड हैं, जिनके नाम हैं—–पुरुष
और परिस्थिति, बन्धन और जिज्ञासा, शशि और शेखर तथा धागे, रस्सियां, गुंझर।
शेखर
एक क्रान्तिकारी युवक है जिसे फांसी की सजा सुनाई गई है। फांसी से पूर्व जीवन की
अन्तिम रात में वह अपने विगत जीवन को याद करता हुआ उन घटनाओं का कल्पना में
साक्षात्कार कर रहा है जो पहले घटित हो चुकी हैं। शेखर विद्रोही स्वभाव का युवक
रहा है। बचपन से ही उसे जिज्ञासा वृत्ति उद्वेलित करती रही है। अपनी माँ से वह यह
जानना चाहता है कि पेट से बच्चे किस प्रकार पैदा होते हैं। ऐसे प्रश्नों पर वह मार
खाता है और विद्रोही बन जाता है। माता-पिता एवं शिक्षक उसकी रुचि पर ध्यान नहीं
देते और अपने अनुकूल चलने के लिए बाध्य करते हैं।
शेखर का बचपन लखनऊ, कश्मीर
में बीता है। एक मद्रासी लड़की शारदा के सम्पर्क में आकर उसे काम भावना का अनुभव होता है।
नौकरानी अत्ती के
प्रति भी वह इसी भाव का अनुभव करता है। शेखर की सर्वाधिक अन्तरंगता, किशोरावस्था
में अपनी मौसेरी बहिन शशि से
होती है। शशि का विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध रामेश्वर से हो जाता है। रामेश्वर शशि के चरित्र पर सन्देह
करता है और उसे त्याग देता है तब वह शेखर के साथ रहने लगती है। शशि एवं शेखर के
आत्मीय एवं अंतरंग क्षणों का सुन्दर चित्रण ‘शेखर
एक जीवनी’ में
किया गया है।
शेखर
के पिता में अधिकार भाव तीव्रतम रूप में था । उसकी माँ अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी और
उदार भी नहीं थी । उसके माता-पिता की प्रकृति एकदम भिन्न थी तथा उनमें प्रायः
मनमुटाव रहता था। इसका प्रभाव भी उसके जीवन पर पड़ा।
किशोरावस्था
में उठने वाले अनेक प्रश्न शेखर को बेचैन कर रहे थे। पन्द्रह वर्ष की अवस्था में
वह मद्रास जैसे बड़े शहर में होस्टल में रहकर पढ़ रहा था जहाँ उसका सम्पर्क अपने सहपाठी कुमार से हुआ। वह
कुमार के प्रति अत्यन्त आकृष्ट था, उसकी आर्थिक सहायता भी करता था, किन्तु
जब पिता को यह पता चला तो उन्होंने उसे खर्च भेजना बन्द कर दिया। परिणामतः कुमार उससे दूर हटने लगा और उसका उपहास
भी करने लगा। इससे शेखर के मन को बहुत चोट पहुंची। यहीं उसका ध्यान अछूतों की
समस्या की ओर गया। वह उनके लिए
रात्रि-पाठशाला का आयोजन करता है।
शेखर
जब इण्टर में पढ़ रहा था तभी उसकी भेंट हाईस्कूल में पढ़ने वाली शारदा से
हुई। शारदा शेखर से प्यार तो करती है, पर माँ के अनुशासन से डरती है। एक दिन उसने शारदा की
आंखें दोनों हाथों से भींच लीं और उसके केशों में अपना मुख छिपा लिया था। शारदा के
प्रति प्रेमाभिभूत शेखर ने उसकी दोनों कलाइयां पकड़ लीं, किन्तु
शारदा ने कड़े स्वर में कहा- “मेरा
हाथ छोड़ दो” और फिर रोती हुई यह कहकर चली गई— “मुझे खेद है कि मैंने कभी तुमसे बात भी की।” शेखर ने बाद में रोज की तरह पार्क में उसकी प्रतीक्षा
की, किन्तु
वह नहीं आई और शेखर मद्रास से वापस चला गया।
‘शेखर एक
जीवनी’ भाग-2 का प्रारम्भ शेखर की रेल यात्रा से होता है। मद्रास
छोड़कर वह लाहौर जा रहा है जहाँ उसे एक कॉलेज में बी.ए. में प्रवेश लेना है। वहाँ मौसी विद्यावती है, उनकी
बेटी शशि है। कॉलेज में वह अनेक अच्छे-बुरे
लोगों के सम्पर्क में आया और उसे अनेक अनुभव भी प्राप्त हुए। अपने अनुभवों को
लिपिबद्ध करना भी उसने यहीं सीखा। वह गद्य, पद्य, कथा, निबन्ध सब कुछ लिख रहा था। लिखकर उसे सन्तोष मिलता था।
एक पूरी अलमारी उसके लेखन से भर गई।
शशि
के पिता की मौत पर वह उनके घर जाकर सांत्वना देता रहा। उसका मन कॉलेज जाने का न था
तब शशि ने ही उसे कर्तव्य बोध कराते हुए कॉलेज भेजा। उन्हीं दिनों लाहौर में
राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें उसने स्वयंसेवक की तरह भाग लिया। वहाँ
एक सी.आई.डी. वाले
से कुछ विवाद हो गया और उसने उसे जेल में डलवा दिया। जेल में शशि
उसके बड़े भाई के साथ मिलने आई और वह उसकी ओर आकृष्ट होता गया।
जेल
में उसका परिचय क्रान्तिकारी बाबा मदन सिंह से हुआ, जिनके क्रान्तिकारी विचारों से वह प्रभावित हुआ। जेल
में ही उसे शशि के पत्र द्वारा यह सूचना मिली कि उसकी अनिच्छा के बावजूद उसका
विवाह हो रहा है पर वह कुछ नहीं कर सकती। शेखर के विरुद्ध गवाह नहीं मिले, अतः
वह मुक्त कर दिया गया। जेल से छूटने पर उसका मन तो शशि के घर जाने को कर रहा था पर
पैर नहीं पड़ रहे थे। भटकता हुआ वह शशि के
घर जा पहुँचा जहाँ उसके
पति रामेश्वर ने उसका ठण्डा स्वागत किया। उसे शशि
एवं शेखर के सम्बन्ध पर सन्देह था।
शेखर
वहाँ से चला आया। वह ग्वालमण्डी में कमरा लेकर रहने लगा। शशि उसे लेखन के लिए
प्रेरित करती रही। शेखर की आर्थिक स्थिति खराब थी, कोई
भी प्रकाशक उसकी पुस्तक छापने को तैयार न था। शेखर की माँ का देहान्त हो गया, किन्तु
वह पैसों के अभाव में घर न जा सका। पिता ही उससे मिलने आए। शेखर ने उन्हें बताया
कि वह साहित्य से जीवन-यापन करना चाहता है पर पिता इससे सहमत न थे। उसने पिता को
यह भी बताया कि वह क्रान्तिकारी बनना चाहता है पर उन्हें यह भी अच्छा न लगा।
प्रकाशक ने उसकी पुस्तक लौटा दी थी।
हताश होकर वह शशि के पास गया, और
उसे शशि से सच्चा स्नेह एवं सांत्वना मिली। शशि उस रात शेखर के घर रुक गई थी, क्योंकि
रात हो गई थी और वर्षा हो रही थी। उसके पति ने उसे कलंकिनी कहते हुए घर से निकाल
दिया। शेखर शशि के पति रामेश्वर को वास्तविकता बताने उसके घर गया, किन्तु
उसने उसका अपमान करते हुए
थप्पड़ मार दिया। शशि भी वहाँ आ गई थी, उसने
शेखर को हुए वहाँ से जाने के लिए कह दिया, किन्तु रामेश्वर और उसके घर वालों ने शशि को भीतर नहीं
घुसने दिया अतः वह लड़खड़ाते कदमों से शेखर के पीछे-पीछे चली आई।
विद्यावती
ने शशि को ऊंच-नीच समझाया, किन्तु
शशि ने उनसे कहा कि जैसे मेरी ससुराल वालों ने मुझे मरा समझ लिया, वैसे
ही वह भी उसे मरा मान लें और लौट जाएं। शशि के पेट में जो लात रामेश्वर ने मारी थी
उससे पेट में अन्दरूनी चोट लगी थी तथा उसका गुर्दा फट गया था।
शशि
के आग्रह पर शेखर पुनः लेखन कार्य में जुट गया। शेखर के साथ शशि का रहना पड़ोसियों
को अखर रहा था। प्रकाशकों ने शेखर को बुरी तरह ठगा। उसकी
किताब ‘हमारा समाज’ साठ
रुपए में उन्होंने इस शर्त पर खरीद ली कि इस पर नाम किसी और का पड़ेगा।
तभी विद्याभूषण से उसकी भेंट हुई जिन्होंने यह सुझाव दिया कि यदि वह
क्रान्तिकारी साहित्य लिखे तो आर्थिक सहायता दी जाएगी। उसने यह प्रस्ताव स्वीकार
कर लिया और शशि को साथ लेकर क्रान्तिकारी मित्र के यहाँ दो कमरों के मकान में रहने
लगा। यहीं उसने एक क्रान्तिकारी उपन्यास लिखा जिसके छपने पर उसका गिरफ्तार होना तय
था। अतः वह ढाई सौ रुपए लेकर दिल्ली चला
आया और शशि के साथ यमुना किनारे कमरा लेकर रहने लगा।
शशि
का स्वास्थ्य गिरने लगा था। उसके जीवन के कुछ ही दिन बचे थे। शशि ने कागज पर लिखा
था– “इस पत्र में
अपने प्यार की बात नहीं करूंगी। जो चला गया है, उसका प्यार केवल वेदना है और वेदना को चुप रहना चाहिए। केवल
तुम्हारे प्यार की बात करूंगी।” मेरी
कामना है कि तुम जीवन में एक बहुत बड़े लेखक बनो। शशि की मृत्यु हो गई और शेखर
दिल्ली को अन्तिम प्रणाम कर शशि की स्मृतियां साथ लिए हुए अपने क्रान्तिकारी
साथियों के पास लाहौर लौट गया।
अज्ञेय
ने इस उपन्यास में अपने समय की राजनीतिक हलचलों और सामाजिक सच्चाइयों को पृष्ठभूमि
में रखते हुए स्वतन्त्रता एवं क्रान्ति की अवधारणाओं पर भी विचार किया है। यही
नहीं अपितु नर-नारी से जुड़ी काम वर्जनाओं का संकेत भी उपन्यास में विद्यमान है। स्वाधीनता
पूर्व की परिस्थितियों का भी यत्किंचित परिचय कराने में भी लेखक सफल रहा है।
‘शेखर एक
जीवनी’ एक मनोविश्लेषणवादी उपन्यास है।
जिसमें फ्रायड, एडलर, युंग
जैसे मनोवैज्ञानिकों की विचारधारा को प्रश्रय मिला है। यद्यपि इस उपन्यास का कथानक
व्यवस्थित नहीं है, क्योंकि पूर्व
दीप्ति (फ्लैश बैक) पद्धति से बीते हुए जीवन को स्मरण
करता हुआ शेखर चेतना प्रवाह में बहता हुआ अपने जीवन के अनेक प्रसंगों, क्षणों, अनुभूतियों
को व्यक्त करता है।
यह
उपन्यास दो भागों ‘उत्थान’ और ‘उत्कर्ष’ में विभक्त है तथा प्रत्येक भाग को पुनः
चार खण्डों में बांटा गया है। प्रथम
भाग के खण्ड हैं- ‘उषा और
ईश्वर’, ‘बीज और
अंकुर’, ‘’प्रकृति
और पुरुष’ तथा ‘पुरुष
और परिस्थिति’ दूसरे भाग के
चार खण्डों के नाम हैं— ‘पुरुष और परिस्थिति’, ‘बन्धन
और जिज्ञासा’, ‘शशि और
शेखर’ और ‘धागे, रस्सियां, गुंझर’ ये नामकरण मनोवैज्ञानिक हैं। उपन्यास का प्रारम्भ ‘ईश्वर’ को लेकर प्रश्नाकुलता से हुआ है तथा दूसरे भाग का
समापन उलझन और द्वन्द्व में हुआ है।
उपन्यास
का प्रारम्भ फांसी से हुआ है। शेखर को फांसी दी जा रही है और उस समय वह शशि को याद
करता है तत्पश्चात् उसके बचपन का दृश्य उभरता है। और इसी प्रकार स्मृतियों का
अव्यवस्थित क्रम चल निकलता है। बचपन से लेकर किशोरावस्था तक के प्रसंग एक-एक कर
उसे स्मरण आते हैं।
अज्ञेय
का शिल्प बेजोड़ है, विशेष रूप से उनके प्रतीक और बिम्ब। उपन्यास का अन्त
भी प्रतीकात्मक भाषा में हुआ है। “प्रणाम
यमुना, प्रणाम
पूर्वदिशा, प्रणाम वैशाख के फूले हुए पलाश और बबूल…….. सोचता था कि
यदि ऐसा न होकर वैसा होता और वैसा होता तो…..पर आज सोचता हूँ कि नहीं लगभग माँग
रहा हूँ कि यदि फिर कुछ हो तो ऐसा ही हो।”
अज्ञेय agyey भाषा के धनी हैं। उनके पास सक्षम भाषा है जो बिम्बों एवं प्रतीकों से युक्त होकर
कहीं-कहीं तो काव्य आनन्द देने लगती है। इसके कारण उनके उपन्यास का शिल्प जैसा पर्याप्त
प्रभावशाली एवं व्यंजक हो गया है। इसी प्रकार के कुछ वाक्य द्रष्टव्य हैं:
(i)
दुख और
लांछना की खाद में यह जो दुहरे वात्सल्य का अंकुर……..
(ii)
पहले
निरश्रु पर पिंजर को हिला देने वाले रोदन के साथ….
अज्ञेय
की चरित्र चित्रण शैली भी उल्लेखनीय है। पात्रों के चरित्रांकन में वे कल्पना का
नहीं तथ्यों का सहारा लेते हुए उनकी चारित्रिक विशेषताओं को उजागर करते हैं।
अज्ञेय ने मृत्य, अहिंसा, आजादी, प्रेम पर गम्भीर विचार इस उपन्यास में व्यक्त किए हैं।
पूरे उपन्यास में शेखर के व्यक्तित्व की गुत्थियों को सुलझाया गया है। अहंभाव, भय एवं सेक्स को
उपन्यास की वस्तु में इस प्रकार पिरो दिया गया है कि वे अलग से जोड़े हुए नहीं
लगते। परम्परागत यौन वर्जनाओं को
अज्ञेय यहाँ चुनौती देते प्रतीत होते हैं।
‘शेखर
एक जीवनी’ में
अज्ञेय जी agyey ने शेखर को ईमानदार, जिज्ञासु व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है। उसमें ‘अहं’ भाव प्रबलता
से है तथा उसका व्यक्तित्व ‘काम’ भावना से
परिचालित है। ‘शेखर एक जीवनी’ का
कथानक ‘स्मृति चित्रों’ की एलबम है। फांसी की सजा पाया हुआ नायक शेखर अपने
विगत जीवन पर विहंगम दृष्टि डालकर उसकी घटनाओं को एक-एक करके स्मृति के माध्यम से
प्रस्तुत करता है। इस प्रकार इसमें पूर्व
दीप्ति (फ्लैश बैक) पद्धति को अपनाया गया है। अज्ञेय के
उपन्यासों में कथानक में वर्णनात्मक, प्रत्यावलोकन, चेतना प्रवाह एवं पत्र शैलियों को अपनाया गया है।
पात्रों
के चरित्रांकन के लिए अज्ञेय जी ने प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों शैलियों का आश्रय
लिया है। उनके संवाद पात्रानुकूल, नाटकीय, चरित्राभिव्यंजक एवं संक्षिप्त हैं। अज्ञेय जी के
उपन्यासों में कहीं-कहीं लालित्यपूर्ण काव्यमयी भाषा भी प्रयुक्त हुई है। उसमें
अलंकारों, प्रतीकों
का भी प्रयोग हुआ है। सामान्यतः वे सीधी-सादी सरल भाषा का प्रयोग करते हैं जिसमें
संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी
के चलते हुए शब्द दिखाई पड़ जाते हैं। उसमें कहावतों एवं मुहावरों का भी प्रयोग
यदा-कदा मिल जाता है।
अज्ञेय
की कृतियों में व्यक्तिवादी जीवन दर्शन का समावेश हुआ है। उनके उपन्यास मनोवैज्ञानिक
कोटि के हिन्दी उपन्यासों में अग्रगण्य हैं। शेखर के बारे
में अज्ञेय स्वयं कहते हैं- “शेखर
कोई बड़ा आदमी नहीं है। वह अच्छा आदमी भी नहीं है, लेकिन वह मानवता की संचित अनुभूतियों के प्रकाश में
ईमानदारी से अपने को पहचानने की कोशिश कर रहा है। वह जागरूक, स्वतन्त्र
और ईमानदार है।”
उपन्यासकार agyey ने मनोविश्लेषणात्मक पद्धति से शेखर के व्यक्तित्व को देखा-परखा है। प्रतीकात्मक
भाषा के प्रयोग ने भी इस उपन्यास के शिल्प को विशिष्टता प्रदान की है, यह
निःसंकोच कहा जा सकता है।
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