काव्य-प्रयोजन : भारतीय काव्यशास्त्र | Kavya Prayojan : Bhartiya Kavyashastra

संसार की प्रत्येक रचना उद्देश्यपूर्ण है। यहाँ कुछ भी प्रयोजन रहित नहीं होता। काव्य रचना का जीवन और जगत से घनिष्ठ संबंध है। अतः उसके भी कुछ प्रयोजन है। काव्य-रचना में कवि के उद्देश्य ही प्रयोजन के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा काव्य प्रयोजनों पर गंभीरता से विचार किया गया है। आदि आचार्य भरत से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तथा उनके बाद भी काव्य-प्रयोजन पर विचार-विमर्श होता रहा है। आचार्यों ने कवि और पाठक की दृष्टि से काव्य-प्रयोजन पर विचार किया है। काव्य-प्रयोजनों की परिधि बहुत व्यापक है। इसके अंतर्गत मानव जीवन की बाह्य आवश्यकताएँ और अंतरंग भावनाएँ समाहित हैं। आइये अब kavya prayojan के संबंध में विभिन्न विद्वानों के द्वारा व्यक्त किए गए विचारों और उनके दृष्टिकोणों को समझने का प्रयास करते हैं । 

क) काव्य प्रयोजन (kavya prayojan) के संबंध में संस्कृत आचार्यों के मत 

भरतमुनि :   पंचम वेद के रूप में मान्य अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्रमें भरतमुनि ने नाटक के संदर्भ में जिन प्रयोजनों की चर्चा की है, वे काव्य के लिए भी लागू होते हैं, क्योंकि उस समय तक काव्य और नाटक में भेद नहीं किया जाता था। दोनों को ही काव्य माना जाता था। तभी तो काव्येषु नाटकं रम्यंकहा जाता था।

 आचार्य भरत के  द्वारा निर्दिष्ट काव्य प्रयोजन इस प्रकार हैं:  नाटक धर्म, यश, आयु, बुद्धि बढ़ाने वाला, हितसाधक तथा लोक उपदेशक होता है।

2. भामह :

भामह प्रथम आचार्य है जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप में काव्य-प्रयोजनों पर विचार किया है। यद्यपि उनके काव्य-प्रयोजन संबंधी चिंतन में आचार्य भरत का सीधा प्रभाव दृष्टिगत होता है तथापि उसमें कुछ नवीन तथ्यों का भी समावेश है-

“धर्मार्थकाम मोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।

प्रीतिं करोति कीर्तिम् च साधुकाव्य निबंधनम्।।”
(काव्यालंकार
, 1/2)


अर्थात् धर्म, अर्थकाम, मोक्ष (चारों पुरुषार्थ), कलानिपुणता, कीर्ति और प्रीति (आनंद) की प्राप्ति को भामह ने काव्य-प्रयोजन के रूप में निर्दिष्ट किया है। काव्य- प्रयोजन संबंधी चिंतन में भामह ने प्रीति (आनंद की प्राप्ति) को मुख्य प्रयोजन माना है जिससे परवर्ती  आचार्यों को विशेष प्ररेणा मिली।

3. वामन:  आचार्य वामन ने दृष्ट और  अदृष्ट के रूप में काव्य के दो प्रयोजन स्वीकार किए। इनमें दृष्ट का संबंध आनंद तथा अदृष्ट का संबंध कीर्तिसे है। वे काव्य-सृजन को यश (प्रसिद्धि) का सहज साधन मानते हैं। वामन के काव्य-प्रयोजन में सर्जक (कवि) और भावक (सहृदय) दोनों को महत्व दिया है। आचार्य वामन के अनुसार :

  “अदृश्य प्रयोजनं  कीर्ति हेतु त्वात्” (काव्यलंकार मूलवृत्ति 1/1/5) अर्थात् सत्काव्य कवि और सहृदय (श्रोता-पाठक) दोनों को आनंद प्रदान है, यह दृश्य प्रयोजन है तथा कवि को जीवन काल एवं जीवनोत्तर काल में भी कीर्ति प्रदान करता है – यह अदृश्य प्रयोजन है ।    


4. कुंतक (दसवीं सदी का अंत):

काव्य प्रयोजनों के विवेचन  में आचार्य कुंतक में नवीनता और मौलिकता मिलती है। उन्होंने लोकोत्तर चमत्कार के आनंद को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से बढ़कर माना है। उनकी दृष्टि में यह चारों पुरुषार्थों से बढ़कर है।

“चतुर्वर्गफलस्वादमपि अतिक्रम्य तदविदाम।

काव्यामृत रसेन अंतश्चमत्कारो वितन्यते॥ (वक्रोक्ति
जीवित
, 1/5)

5. भोजराज (ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध) :
आचार्य भोजराज ने अपने ग्रंथ सरस्वती कंठाभरणमें कीर्ति और प्रीति (आनंद) को काव्य प्रयोजन निरूपित किया है। इनके काव्य प्रयोजन वामन-निर्दिष्ट काव्य-प्रयोजनों से साम्य रखते हैं।

6. आचार्य मम्मट :   आचार्य मम्मट ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ काव्य प्रकाशमें काव्य-प्रयोजनों का स्पष्ट विवेचन किया है। उनके काव्य-प्रयोजनों में पूर्व आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट प्रयोजनों का समाहार भी लक्षित होता है। उन्होंने निम्नलिखित छः प्रयोजनों का निर्देश किया है :

(i) यशे : यश की प्राप्ति काव्य-रचना का प्रमुख प्रयोजन है। कवि में अपनी रचना द्वारा यश प्राप्ति की प्रबल कामना होती है क्योंकि यश ही उसे अमरत्व प्रदान करता है। मृत्यु के पश्चात भी वह यशरूपी शरीर से इस जगत में विद्यमान रहता है। वस्तुतः यश शरीर जरा-मरण से रहित है। आदि कवि वाल्मीकि, कालिदास, कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा, रहीम, रसखान, प्रसाद, निराला, पंत आदि अपनी काव्यकृतियों के कारण ही अमर हैं। यह प्रयोजन वैश्विक है। यश की प्राप्ति विश्व के अनेक कवियों का प्रमुख उद्देश्य प्रतीत होता है।

इससे इस प्रयोजन की व्यापकता और महत्व स्वतः सिद्ध है। कदाचित् मम्मट ने इसीलिए काव्य प्रयोजनों में यश को प्रथम स्थान दिया  हो।

(ii) अर्थकृते : अर्थ प्राप्ति भी काव्य का उपयोगी एवं व्यावहारिक प्रयोजन है। अनेक कवियों ने अर्थ-प्राप्ति और आजीविका के लिए काव्य रचनाएँ की हैं। संस्कृत में वाणभट्ट जैसे कवियों ने महाराज हर्ष से अपनी रचनाओं पर अत्यधिक धनराशि एवं सम्मान प्राप्त किया। राजाश्रय प्राप्त करना भी  अर्थकृते ही है। हिंदी का चारण काव्य और अधिकांश रीतिकालीन काव्य, इस प्रयोजन से जुड़ा हुआ है। पुरस्कार और पारिश्रमिक के रूप में आज भी यह प्रयोजन अस्तित्व में है।

(iii) व्यवहारविदे:  व्यवहार ज्ञान भी काव्य का महत्वपूर्ण प्रयोजन है। काव्य से  रचनाकार और पाठक-श्रोता को लोक व्यवहार की शिक्षा मिलती है।  काव्य के अध्ययन-अनुशीलन से उस युग के लोगों के मनोभावों, विचारों, आचरण और व्यवहार को भी जाना जा सकता है। काव्य से प्राप्त ज्ञान  द्वारा व्यवहार या आचरण में पर्याप्त बदलाव भी देखा जाता है। z

(iv) शिवतरक्षते: शिवेतर की क्षति अर्थात्  अशिव (अमंगल) का नाश तथा अनिष्ट निवारण काव्य का प्रयोजन है। अनेक कवि इस प्रयोजन से काव्य-रचना करते हैं। काव्य में लोक मंगल की व्यवस्था शिवेतर क्षति ही है। इसका स्वरूप भी वैश्विक है। संसार के अनेक देशों में मानव हित के लिए की गई क्रांतियों में कवि और उनकी रचनाओं की प्रेरणा रही है। इसी प्रकार श्रेष्ठ काव्य की रचना का प्रमुख प्रयोजन ही अनिष्ट निवारण है। इसके माध्यम से अनेक लोग अपनी तथा समाज के  लोगों की पीड़ा तथा अमंगल का निवारण करते हैं। उदाहरणस्वरूप, हम देख सकते हैं कि हनुमान बाहुककी रचना तुलसीदास ने अपनी बाहु पीड़ा से  मुक्ति पाने के लिए की थी और आज भी बहुत-से लोग पीड़ा तथा अन्य कष्टों के निवारण  के लिए उसका नियमित पाठ-पारायण करते हैं।
 

(v) सद्यः परमिवृत्तये:  उत्कृष्ट आनंद की शीघ्र प्राप्ति काव्य का  उदात्त प्रयोजन है। आचार्यों ने इस प्रयोजन को काव्य का मूल प्रयोजन स्वीकार किया  है क्योंकि काव्य से जो आनंद प्राप्त होता है, वह भाव योग और ब्रह्मानंदसहोदर  है। यह भी माना गया है कि काव्य की रचना और उसके अनुशीलन से जो आनंद प्राप्त होता
है वह अनिर्वचनीय है।

(vi) कांता सम्मिततयो : कांता सम्मित उपदेश केवल  काव्य से ही मिलता है। इसमें रस और माधुर्य की प्रधानता होती है तथा शब्द और अर्थ  गौण हो जाते हैं। काव्य के उपदेश की मधुरता, प्रियता और ग्राहयता का  प्रमुख कारण यह है कि यह कर्कश नहीं होता अपितु इसका प्रकारांतर से हृदय और मन-मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है। मूलतः यह व्यक्ति के चिंतन को प्रभावित करता है।

यह उपदेश काव्य  से संबंधित है। इसमें शब्द और अर्थ दोनों का महत्व है। यह उपदेश रस प्रधान होता  है। कारण यह है कि काव्य की विषयवस्तु या वर्ण्यवस्तु व्यवस्थित होती है और उसे पढ़कर  या सुनकर पाठक प्रभावित होता है तथा उसे कर्तव्यबोध भी होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आचार्य मम्मट का काव्य प्रयोजन व्यापक और व्यावहारिक है।

7. हेमचंद्र (बारहवीं शताब्दी ) :   आचार्य हेमचंद्र द्वारा दिए गए काव्य हेतुओं अर्थात् – आनंद, यशप्राप्ति और कांतासम्मित उपदेश में आनन्द प्रमुख है क्योंकि इसका संबंध रचनाकार और सहृदय (पाठक या श्रोता) दोनों से है, जबकि यश का संबंध केवल कवि या सर्जक से तथा कांतासम्मित उपदेश का संबंध सहृदय से होता है।

8. विश्वनाथ (चौदहवीं शताब्दी):   साहित्य दर्पणआचार्य  विश्वनाथ का सुप्रसिद्ध लक्षण ग्रंथ है। उन्होंने अपने काव्य-प्रयोजनों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को महत्व दिया है। इनकी प्राप्ति काव्य के माध्यम से आनंदपूर्वक हो जाती है। वेद और शास्त्रों का प्रयोजन भी चतुर्वर्ग की प्राप्ति कराना है परंतु इनका अध्ययन और अनुशीलन कष्ट साध्य होता है तथा ये सर्वजन सुर्लभ और बोधगम्य भी नहीं होते हैं।

9. पण्डितराज जगन्नाथ:   

पंडितराज जगन्नाथ ने काव्य प्रयोजनों के अंतर्गत कीर्ति, परम आह्लाद, देवताओं की कृपा प्राप्ति आदि का उल्लेख किया है। उन्होंने परम आह्लाद को ब्रह्मानंद स्वरूप स्वीकार किया है। रसानुभूति को वे श्रेष्ठ काव्य प्रयोजन मानते हैं।  संस्कृत  काव्यशास्त्र में निरूपित काव्य-प्रयोजनों के समग्र अवलोकन से ज्ञात होता है कि
आनंद की प्राप्ति तथा विचारों का परिष्करण ही काव्य के प्रमुख प्रयोजन हैं।

() काव्य प्रयोजन Kavya Prayojan के संबंध में पाश्चात्य चिंतकों के मत :

काव्य के उद्देश्य या प्रयोजन के संबंध में पाश्चात्य कवियों और समीक्षकों ने गंभीर चिंतन  किया है। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रतिपादित काव्य-सिद्धांतों में काव्य-प्रयोजनों की चर्चा मिलती है। इनके द्वारा धर्म, नीतिसौंदर्य, कला आनंद आदि के परिप्रेक्ष्य में  काव्य प्रयोजनों पर विचार किया गया है।

1. प्लेटो:  प्लेटो की धारणा कवि और  काव्य के प्रति उदात्त नहीं है। उनके विचारों में एकांगीपन अधिक लक्षित होता है।  वे मानते हैं कि काव्य से मिथ्या (कल्पनाप्रसूत) अभिव्यक्ति तथा भावों का उत्तेजन  होता है जिससे आदर्श राज्य की व्यवस्था बिगड़ सकती है। प्लेटो उस काव्य को महत्व  देते हैं जिसमें नैतिक उपदेश हो और जो राज्य तथा मानव जीवन के लिए उपयोगी हो। अर्थात् प्लेटो लोकमंगल को काव्य का चरम लक्ष्य मानते हैं ।

2. अरस्तू:   अरस्तू के काव्य-प्रयोजन संबंधी विचार प्लेटो  से भिन्न है। वे प्लेटो के विचारों से सहमत नहीं है। उन्होंने काव्य से मनोवेगों  के उत्तेजन संबंधी प्लेटो के आरोप का अपने विरेचन सिद्धांत में समाधान भी प्रस्तुत किया है। अरस्तू  की दृष्टि में काव्य का उद्देश्य विरेचन के माध्यम से मनोवेगों या मनोविकारों का शमन एवं परिष्कार करना है। इस प्रकार अरस्तू मुख्य रूप से आनंद को काव्य-प्रयोजन मानते हैं।

3. लोंजाइनस:    उदात्त तत्व को महत्व प्रदान करने वाले लोंजाइनस की दृष्टि में भव्यता और उदात्तता की अभिव्यक्ति काव्य  का मुख्य प्रयोजन है।

4. दांते:  इटली के सुप्रसिद्ध कवि एवं समीक्षक दांते काव्य का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए स्वीकार करते हैं कि काव्य का उद्देश्य अंततः और पूर्णतः व्यक्तियों को दुःख की अवस्था से हटाकर सुख की स्थिति की ओर ले जाना है।

5. सर फिलिप सिडनी:    सर फिलिप सिडनी के अनुसार, मानवीय सद्गुणों की प्रेरणा काव्य का प्रयोजन है।

6. ड्राइडन:   ड्राइडन आह्लादमयी शिक्षा को काव्य प्रयोजन मानते हैं। आह्लाद पर उन्होंने विशेष बल दिया है। उनके अनुसार स्वान्त: सुखाय और परजन हिताय काव्य के प्रयोजन हैं ।

7. एस.टी.कॉलिरिज :   स्वच्छंदतावादी समीक्षक एस.टी.कॉलिरिज सौंदर्यके माध्यम से आनंद सिद्धि को काव्य का प्रयोजन मानते हैं।

8. मैथ्यू आर्नाल्ड :  मैथ्यू आर्नाल्ड ने मनुष्य के आत्मिक विकास और सामाजिक मूल्यों को अधिक महत्व दिया है। इनेक अनुसार जीवन की व्याख्या करना ही साहित्य का प्रयोजन है ।

8. लियो टालस्टाय :   लियो टालस्टाय सुप्रसिद्ध  रूसी साहित्यकार और विचारक हैं। उन्होंने काव्य के प्रयोजन के रूप में नैतिकता प्रेमभाव और लोकहित को मान्यता दी है।

() काव्य-प्रयोजन Kavya Prayojan के  संबंध में हिंदी-साहित्यकारों के मत

1. तुलसीदास :

हिंदी के मध्यकालीन सुप्रसिद्ध कवि तुलसीदास  ने स्वान्तः सुखाय अर्थात् आत्म  आनन्दोपलब्धितथा “कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरी सम सब कहँ हित होई॥” अर्थात लोकमंगल को काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया है।

हिंदी के रीतिकालीन आचार्यों और आधुनिक आलोचकों ने काव्य-प्रयोजन के संबंध में चिंतन किया है। रीतिकालीन कवियों के काव्य-प्रयोजन के निरूपण में संस्कृत आचार्यों के ग्रंथों का विशेष प्रभाव लक्षित होता है।

2. आचार्य सोमनाथ आचार्य सोमनाथ का लक्षण ग्रंथ रस पीयूष निधिहै जिसमें उन्होंने कीर्ति, धन, मनोरंजन, मंगल और सदुपदेश को काव्य प्रयोजन स्वीकार किया।

 कीरति वित विनोद अरू अति मंगल को रेति ।

करौ भलौ उपदेश नित बहु कवित्त चित-चेति ।

कीर्ति, धन, मंगल और उपदेश के साथ मनोरंजन को सम्मिलित करना सोमनाथ की मौलिकता है। अतः सोमनाथ का काव्य-प्रयोजन संस्कृत के आचार्यों से प्रभावित होते हुए भी मौलिकता पूर्ण है।

3. भिखारीदास:   आचार्य भिखारीदास का प्रसिद्ध लक्षण ग्रंथ काव्य निर्णयहै। इस ग्रंथ में उन्होंने तपः सिद्धि, संपत्ति प्राप्ति, यशः प्राप्ति, आनंद की उपलब्धि, सहज रूप में शिक्षा की प्राप्ति को काव्य प्रयोजन स्वीकार किया है। उनके प्रयोजन निरूपण पर आचार्य मम्मट का प्रभाव है।

4. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी:    आधुनिककाल में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर चिंतन किया है। वे लोक हित, आनंद तथा नीति एवं सात्विक भावों के उन्नयन को काव्य का प्रयोजन मानते हैं।

5. आचार्य रामचंद्र शुक्ल:  आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार आनंद एवं मंगल की सिद्धि काव्य का मूल एवं व्यापक प्रयोजन है, जिसके दो रूप हैं
(
i) साधनावस्था, और (ii) सिद्धावस्था

वे सौंदर्य के माध्यम से आनंद और लोकमंगल के विधान को प्रयोजन निरूपित करते हैं। शुक्लजी ने काव्य-प्रयोजनों का निरूपण प्रायः सामाजिक दृष्टि से किया है।
चिंतामणि- भाग एकके निबंध कविता क्या है?’ में काव्य के प्रयोजन को व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है- “कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक सामान्य भाव भूमि पर ले जाती है। कविता ही मनुष्य को प्रकृतदशा में लाती है और जगत के बीच उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई मनुष्यता की उच्चभूमि पर ले जाती है।”

6. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी:   आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है। द्विवेदी जी की काव्य-प्रयोजन संबंधी धारणा मुख्यतः
मानवतावादी है। उन्होंने एक निबंध भी लिखा है जिसका शीर्षक है-  “मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है।” इस निबंध में वे लिखते हैं
, मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी वस्तुतः काव्य या कला का प्रयोजन जीवन के लिए मानते हैं। उनका  दृष्टिकोण मानवतावादी है। इस संदर्भ में उनका कथन द्रष्टव्य है- “साहित्य के उत्कर्ष या अपकर्ष के निकष की एकमात्र कसौटी यही हो सकती है कि वह मनुष्य का हित साधन करता है या नहीं। जिस बात के कहने से मनुष्य पशु-सामान्य धरातल के ऊपर नहीं उठता, वह त्याज्य है।”

7. आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी :  आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी के काव्य-प्रयोजन संबंधी चिंतन में भारतीय एवं पाश्चात्य विचारों का समन्वय है। उनके अनुसार साहित्य का उद्देश्य है जीवन के किसी मार्मिक स्वरूप या स्थिति का ज्ञान कराना। उनकी मान्यता है कि हास्य या मनोरंजन के लिए रचित साहित्य में युग का प्रतिनिधित्व नहीं होता। उनकी दृष्टि में साहित्य राष्ट्रीय जीवन के लिए उपयोगी है। निष्कर्षतः वाजपेयी जी की दृष्टि में आत्मानुभूति काव्य का प्रयोजन है। 

8. डॉ. नगेन्द्र :  डॉ. नगेन्द्र के काव्य-प्रयोजन संबंधी विचार मनोवैज्ञानिक तथ्यों से युक्त हैं। वे आत्माभिव्यक्ति को साहित्य का मूलतत्व मानते हैं। आत्माभिव्यक्ति से कवि या लेखक को सृजन-सुख की प्राप्ति होती है। डॉ. नगेंद्र का कथन द्रष्टव्य है, आप इसे दोष मानिए या गुण, मेरी अंतर्मुखी प्रकृति आनंद से बढ़कर आत्म कल्याण अथवा लोक कल्याण की कल्पना करने में असमर्थ रही है।” (विचार और विवेचन, पृ.52 ) वस्तुत: डॉ. नगेंद्र व्यक्तित्व के संस्कार को काव्य का उद्देश्य मानते हैं। 


9. डॉ. भगीरथ मिश्र : 
डॉ. भगीरथ मिश्र के काव्य-प्रयोजन संबंधी विचारों में भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य शास्त्रीय चिंतन का समन्वय हैं। उन्होंने काव्य-प्रयोजनों को सात रूपों में विवेचित किया है-

(i) कला कला के लिए 

(ii) कला जीवन के लिए 

(iii) जीवन के पलायन के अर्थ 

(iv) मनोरंजन अथवा आनंद के लिए 

(v) सेवा के अर्थ 

(vi) आत्मसाक्षात्कार के अर्थ

(vii) एक सृजनात्मकआवश्यकता की पूर्ति।
डॉ. मिश्र की  मूल मान्यता है कि काव्य एक सृजनात्मक आवश्यकता है।

(घ) काव्य-प्रयोजन Kavya Prayojan के संबंध में मनोवैज्ञानिकों के मत

फ्रायड, एडलर, जुंग इत्यादि मन:शास्त्रियों ने भी साहित्य के प्रयोजन पर विचार किया है, जिन्हें इस प्रकार देखा जा
सकता है –

1. फ्रायड :   मानव की सभी क्रियाओं के मूल में कामवासना रहती है । साहित्य, कला-सृजन की मूल प्रेरणा सर्जक की दमित कमवासना है।

 2. एडलर :  इनके अनुसार हीनता की क्षतिपूर्ति साहित्य-सृजन की मूल प्रेरणा है।  जीवन में किसी-न-किसी अभाव के कारण मानव-मन में हीनता की ग्रंथि (Inferiority Complex) पड़ जाती है। अतः वह अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदलने के लिए साहित्य, कल-सृजन में प्रवृत्त होता है ।

3. जुंग :   जुंग ने कामवासना के साथ-साथ प्रभुत्व-कामना को काव्य की प्रेरक शक्ति बताते हुए कहा कि आत्मरति और प्रभुत्व-कामना दो ऐसी सशक्त प्रवृत्तियाँ हैं, जो मानव के सभी क्रिया-कलापों की प्रेरक शक्ति होती है ।

निष्कर्ष

काव्य या साहित्य के संदर्भ में प्रयोजन अर्थात Kavya Prayojan का उल्लेखनीय महत्व आदि आचार्य भरत से पंडितराज जगन्नाथ तथा बाद के आचार्यों द्वारा निरूपित किया गया है। भरत, भामह आदि आरंभिक आचार्यों के प्रयोजन निरूपण में चारों पुरुषार्थों-  धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का महत्व स्वीकार किया गया किंतु परवर्ती आचार्यों ने यश, धन प्राप्ति और आनन्द को विशेष महत्व दिया। आचार्य कुंतक ने लोकोत्तर चमत्कार-आनन्द की अनुभूति को काव्य का प्रयोजन सिद्ध किया है। आचार्य मम्मट ने काव्य के छः प्रयोजन माने – यश प्राप्ति, अर्थ लाभ, व्यवहार ज्ञान, अशिव (अमंगल) का नाश, शीघ्र उत्कृष्ट आनंद की प्राप्ति तथा कांता सम्मित उपदेश। मम्मट के प्रयोजनों के अंतर्गत लौकिक-अलौलिक, वैयक्तिक-सामाजिक, आंतरिक और बाह्य सभी का सामंजस्य है। 

हिंदी के रीतिकालीन कवियों द्वारा बताया गया काव्य-प्रयोजन संस्कृत के आचार्यों द्वारा निरूपित काव्य-प्रयोजनों पर आधारित है। आचार्य सोमनाथ, भिखारीदास, कुलपति आदि ने काव्य-प्रयोजन पर विचार किया है।

आधुनिक काल में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी. भगीरथ मिश्र आदि ने काव्य-प्रयोजनों पर चिंतन किया है। पाश्चात्य विचारकों ने भी अपने प्रतिपादित सिद्धांतों के अंतर्गत काव्य-प्रयोजनों पर विचार किया है। इसी प्रकार पाश्चात्य मनोविश्लेषणशास्त्रियों ने भी काव्य-प्रयोजन के संबंध में अपने-अपने विचार व्यक्त किए हैं ।

 

1 thought on “काव्य-प्रयोजन : भारतीय काव्यशास्त्र | Kavya Prayojan : Bhartiya Kavyashastra”

  1. सभी पाठकों से अनुरोध है कि कृपया मेरे लेखों के संबंध में अपने विचारों से मुझे अवश्य अवगत कराएं।

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