मैथ्यू आर्नल्ड (1822-1888) की आलोचना दृष्टि | Matthew Arnold Ki Alochana Drishti

 

 

मैथ्यू आर्नल्ड (1822-1888) की आलोचना दृष्टि   | Matthew Arnold Ki Alochana Drishti


    आलोचना का स्वरूप
    और प्रकार्य

         मैथ्यू
    आर्नल्ड 
    Matthew Arnold डॉ. टॉमस आर्नल्ड के पुत्र थे। इनकी शिक्षा आक्सफोर्ड में हुई थी। 1849 में इनका पहला काव्य संग्रह
    प्रकाशित हुआ । इनके आलोचनात्मक निबंधों का संग्रह “एसेज इन क्रिटिसिज्म” (
    Essays
    in criticism) 1865 में प्रकाशित हुआ। सन् 1857 में ये आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में प्रोफेसर ऑफ पोइट्री के पद पर चुने गए। |
    ये बड़े शिष्ट, सुसंस्कृत व्यवहार वाले
    मृदुभाषी विद्वान थे। अपने प्रारंभिक जीवन में ये काव्य-रचना में प्रवृत्त रहे और
    बाद में आलोचना में संलग्न  रहे। ये पद्य
    और गद्य दोनो ही रचनाओं में जीवन के आलोचक रहे।

          आधुनिक अंग्रेजी समीक्षा के क्षेत्र में
    आर्नल्ड का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्हें
    19 वीं शताब्दी का सबसे बड़ा समीक्षक घोषित करते हुए स्काट जेम्स ने लिखा
    है— “इस देश में आर्नल्ड की स्थिति वैसी ही रही जैसी कि किसी समय यूनान के चिन्तक
    अरस्तू की थी।” इसी प्रकार डेविड डेशेज ने भी उनको आधुनिक युग के महान् आलोचक के
    विशेषण से विभूषित किया है।


     युगीन
    परिस्थितियाँ 


         अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में यह युग
    स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन का युग था जिसका नेतृत्व
    , कालरिज, वर्ड्सवर्थ, शेली आदि
    कर रहे थे। वर्ड्सवर्थ के अनुसार “कविता भावनाओं का सहज उच्छलन है।” एक
    स्वच्छन्दतावादी कवि की दृष्टि से नैतिकता या लोकहित की शिक्षा देना व्यर्थ है। वे
    किसी भी आलोचक की बात सुनने के लिए तैयार नहीं थे
    , जो
    नैतिकता की बात करता हो । यह विज्ञान का भी युग था । चारों ओर यह प्रचार किया गया
    कि काव्य का युग समाप्त हो गया
    , अब तो विज्ञान का युग है।
    इसके लिए शेली को
    दि डिफेंस आफ पोइट्रीनामक निबंध लिखना पड़ा। विज्ञान का आक्रमण केवल काव्य पर ही नहीं हुआ, धर्म और संस्कृति पर भी हुआ। ठीक ऐसे समय में आर्नल्ड का अवतरण अंग्रेजी
    समीक्षा के क्षेत्र में हुआ।



          आर्नल्ड ने स्वच्छन्दतावादी कवियों को रोगी
    और विक्षिप्त घोषित किया। निर्ममतापूर्वक स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्तियों पर तीव्र
    प्रहार किया। उन्होंने जोरदार शब्दों में कहा कि काव्य धर्म का ही नहीं विज्ञान का
    भी स्थान लेगा
    , क्योंकि
    काव्य का प्रयोजन केवल आनंद ही नहीं “जीवन की आलोचना या व्याख्या भी है।” (
    religion
    and philosophy will be replaced by poetry)। उनका कहना था कि काव्य
    और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी नहीं
    , बल्कि पूरक हैं।
    विज्ञान और धर्म मनुष्य की कोमल भावनाओं को सहलाने में असमर्थ है। काव्य का प्रभाव
    हृदय पर ही नहीं बुद्धि पर भी पड़ता है जिससे मनुष्य का कल्याण होता है और उसे एक
    उचित दिशा मिलती है। काव्य संस्कृति का अन्यतम साधन है। मानव जीवन के कल्याण के
    लिए संस्कृति अनिवार्य है।


     उन्होंने आलोचकों
    को तीन सिद्धान्तों से अवगत कराया


     1. काव्य
    जीवन की आलोचना है। अतः कवि का कर्तव्य है कि वह काव्य में नैतिक सिद्धान्तों की
    अवतारणा करे।

     2. आज
    नैतिक सिद्धान्तों के प्रति उदासीनता आ गयी है
    , लोग उमरखैयाम
    के उस आदर्श को अपनाने लगे हैं जिसमें कहा गया है कि “हम जिस समय का अपव्यय मन्दिर
    में कर चुके हैं उसका सदुपयोग चलकर मदिरालय में करें।

     3. इस
    भ्रम के निराकरण के लिए यह आवश्यक है कि हम काव्य और आलोचना में जीवन की व्याख्या
    करें। नैतिकता का विद्रोही जीवन का विद्रोही है तथा वह काव्य जो नैतिकता के प्रति
    उदासीन है
    , जीवन के प्रति भी उदासीन है।

          हिंदी आलोचना में जो व्यक्तित्व आचार्य शुक्ल
    का है
    , पाश्चात्य समीक्षा में वही व्यक्तित्व
    आर्नल्ड का है। दोनों मानव जीवन को लेकर साहित्यिक आलोचना का मानदण्ड निर्धारित
    करते हैं। आचार्य शुक्ल जी ने लिखा है—“कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है
    ,
    पर उसके उपरांत कुछ और भी होता है और वही सब कुछ है।” (चिंतामणि भाग,
    1, कविता क्या है? पृ. 162)


     आर्नल्ड की आलोचना
    का उद्देश्य


         आर्नल्ड काव्य को सांस्कृतिक उन्नति और
    परिष्कार का साधन मानते हैं। क्योंकि उनके लिए काव्य केवल आनंद का ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक
    उत्थान का साधन भी है। आर्नल्ड ने अपने समय के समाज की तीखी आलोचना की है। उनके
    अनुसार उच्च वर्ग बर्बर है
    , मध्यम
    वर्ग भोग में लीन है और निम्न वर्ग का अभी उत्थान नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में यदि
    काव्य को और संस्कृति को बचना है तो मध्यम वर्ग को ही सुधारने की जरूरत है
    ,
    इसी की रुचि को परिमार्जित करना है। इसलिए आर्नल्ड की आलोचना का
    प्रमुख उद्देश्य मध्यम वर्ग की रुचि परिष्कार है जिसे उन्होंने बार-बार दुहराया है।

          आर्नल्ड की दृष्टि से संस्कृति और आलोचना
    अभिन्न हैं। दोनों का लक्ष्य पूर्णता की प्राप्ति है। दोनों का साध्य जिज्ञासा है।
    अतः व्यापक अर्थ में आर्नल्ड की आलोचना का उद्देश्य संस्कृति का उत्थान है। फलतः
    आलोचक का कार्य है कि वह काव्य में सांस्कृतिक उत्थान पर ध्यान दे।


     आदर्श आलोचक की
    अवधारणा 


          आर्नल्ड Matthew Arnold की राय में काव्य जीवन की आलोचना है। अतः आलोचक का कर्त्तव्य है कि वह इस जीवन की
    आलोचना को बाहर समाज में लाए और उसका सम्बन्ध संपूर्ण संस्कृति से स्थापित करे।
    आर्नल्ड के अनुसार आलोचक का कर्त्तव्य है कि वह संसार के सर्वोच्च ज्ञान और
    सर्वोत्तम विचारों को जाने और फिर उनका सर्वत्र प्रसार करे
    , ताकि सच्ची और नई भावनाओं की धारा
    प्रवाहित हो सके। ऐसा करके ही वह साहित्य का सम्बन्ध संस्कृति से जोड़ सकता है।
    उसके अनुसार एक आलोचक में तीन गुण होने चाहिए—

     1. आलोचक
    का कर्त्तव्य है कि वह विषय को जाने-समझे
    , खूब पढ़े (See
    Things as They really are)!

     2. आलोचक
    का दूसरा कार्य है उसने जो कुछ जाना-समझा है उसे दूसरों तक पहुँचाए जिससे अच्छे
    विचारों का प्रसार हो । उसका यह कार्य धर्मप्रचारक की भाँति उत्साहपूर्ण और
    कर्मठता से युक्त होना चाहिए।

     3. ऐसा
    करके आलोचक सर्जनात्मक प्रतिभा के लिए अनुकूल वातावरण और उर्वर भूमि तैयार करे।

         सारांश यह है कि आलोचक का कार्य है कि वह
    रचनात्मक प्रतिभा के लिए उपयुक्त उपजाऊ भूमि तैयार करे ताकि अवसर और अनुकूल समय
    मिलते ही साहित्यकार उसमें सृजनात्मक साहित्य की लहलहाती फसल पैदा कर सके और उससे समाज
    का कल्याण कर सके। ऐसा करके वह समाज को पूर्णता की ओर ले जाएगा और उसे सीखा सकेगा
    कि जीना कैसे चाहिए और संस्कृति के विकास में योग दे सकेगा।

          आर्नल्ड के उपर्युक्त विचारों से ऐसा ज्ञात
    होता है कि वे आलोचना के प्रचारक अधिक हैं आलोचक कम। उनके अनुसार आदर्श आलोचक
    साहित्य
    , समाज और संस्कृति इन तीनों का अधिकारी
    विद्वान् होना चाहिए। उसकी काव्य चेतना

    अत्यन्त प्रबुद्ध, व्यापक और गंभीर होनी चाहिए। उसे
    जिज्ञासु होना चाहिए। विश्वभर में जो कुछ उत्कृष्टतम ज्ञान या विचार है उसे जान
    लेना प्रत्येक आलोचक के लिए आवश्यक है। जीवन में जो कुछ उदात्त और स्थायी है उसका
    बोध उसे होना चाहिए। इसके लिए आलोचक में विराट सामाजिक चेतना
    , विवेक और उदार धार्मिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। तभी वह आलोचना के महान्
    उत्तरदायित्व की पूर्ति कर सकेगा और अपने युग के साहित्य और समाज को स्वस्थ
    ,
    संतुलित और सुचिंतित दिशा की ओर अग्रसर कर सकेगा।


     आलोचक के लिए
    निष्पक्ष होना आवश्यक है


          आर्नल्ड Matthew Arnold का स्पष्ट मत है कि आलोचक को आलोचना
    करते समय निष्पक्ष रहना चाहिए। यहाँ निष्पक्ष से तात्पर्य है कि आलोचक उन बातों से
    मुक्त हो जो नैतिकता के मार्ग में बाधक हैं। उसे सामान्य लोगों की अंधी भावुकता से
    भी बचना चाहिए। ऐसे ही संतोषी मध्यम वर्ग के झूठे विचारों से भी बचना चाहिए
    , क्योंकि इस वर्ग के लोग धर्मान्धता,
    धनार्जन तथा भोग विलास में लिप्त रहने के अतिरिक्त कुछ नहीं करते।
    निष्पक्षता से तात्पर्य यह भी है कि उनसे दूर रहे जो आध्यात्मिक मूल्यों की
    अवहेलना करते हैं। इस प्रकार आर्नल्ड की दृष्टि से निष्पक्ष आलोचक वह है जो
    सांस्कृतिक पूर्णता का ध्यान रखता है और जीवन की भद्दी तथा सामान्य रुचियों से
    प्रभावित नहीं होता । अतः आर्नल्ड ने यहाँ निष्पक्ष शब्द का प्रयोग उस अर्थ में नहीं
    किया है
    , जिसमें आलोचक निरपेक्ष दृष्टि, पूर्वाग्रहविहीन और तटस्थ होकर रचना का विवेचन करता है। उसने अपने मत के
    अनुकूल इसका अर्थ किया है। क्योंकि वह जानता है कि नैतिक और सांस्कृतिक पूर्णता
    तथा जीवन की आलोचना की बात कहकर वह आलोचक पर प्रतिबन्ध लगा चुका है। ऐसी स्थिति
    में कोई भी आलोचक स्वतंत्र और निरपेक्ष दृष्टि से या कलाकार के दृष्टिकोण को समझकर
    किसी कृति की व्याख्या कैसे कर सकता है। यहाँ स्वयं आर्नल्ड भी बहक गए हैं और उनकी
    आलोचना दोषपूर्ण और पूर्वाग्रहयुक्त हो उठी है। इसका प्रमाण कीट्स की उनकी आलोचना
    है।

          दूसरी बात यह है कि आर्नल्ड ने आलोचक को
    आवश्यकता से अधिक श्रेय दिया है। यह ठीक है कि महान् आलोचक जीवन की व्याख्या करता
    है
    , ज्ञान का अर्जन ज्ञान के लिए करता है,
    सृजनात्मक साहित्य के लिए उपजाऊ भूमि तैयार करता है, सर्वश्रेष्ठ विचारों का प्रचारक है, अपने विचारों और
    ज्ञान को संसार तक पहुँचाता है
    , फिर भी आलोचक को इतना
    महत्त्व नहीं देना चाहिए जितना आर्नल्ड ने दिया है।


     आलोचक के लिए
    निकष-पद्धति (
    Touch stone
    method)


          आर्नल्ड MatthewArnold के अनुसार अभिजात साहित्य के तीन भेद
    हैं
    (1) संदिग्ध
    अभिजात साहित्य
    – जो अभी अभिजात
    की श्रेणी में नहीं आया है।
    (2) मिथ्या अभिजात साहित्य – जिसमें बाहरी चमक-दमक तो है किन्तु आंतरिक गंभीरता
    नहीं है।

    (3) वास्तविक अभिजात साहित्य – यही सच्चा साहित्य है, जिससे आनन्द और सांत्वना दोनों की प्राप्ति होती है।

          प्रश्न उठता है कि ऐसे साहित्य की परख कैसे
    की जाए
    ? इसके लिए आर्नल्ड ने एक पद्धति सुझायी
    है जिसे उन्होंने
    निकष-पद्धति
    (
    Touch stone method) कहा है। जैसे किसी वस्तु को तौलने के लिए बाट काम में
    लाए जाते हैं
    , वैसे ही काव्य के महत्त्व और सौन्दर्य
    को परखने के लिए आलोचको को निकष-पद्धति का सहारा लेना चाहिए। इसके लिए उसे किसी
    कवि की रचनाओं से सुन्दरतम और उत्कृष्टतम पंक्तियाँ लेकर काव्य की महत्ता की
    परीक्षा के लिए उन्हें ही निकष बनाना चाहिए। यदि वे पंक्तियाँ भावपक्ष और कलापक्ष
    की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं उसका उत्कर्ष स्वीकार किया जाना चाहिए।

          अपनी पुस्तक दि स्टडी आफ पोइट्री में आर्नल्ड ने होमर, दांते, शेक्सपियर और मिल्टन से कुछ पंक्तियाँ लेकर “निकष-पद्धति” का
    प्रयोग किया था। किन्तु आलोचको की दृष्टि में यह पद्धति व्यावहारिकता के निकष पर
    खरी नहीं उतरती।
    | अन्ततः
    यह पद्धति आत्मनिष्ठ और प्रभाववादी बन जाती है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के
    भिन्न-भिन्न अंश उत्कृष्टतम प्रतीत हो सकते हैं। इसमें मुख्यतः दो असंगतियाँ और
    हैं—

     1. आर्नल्ड
    ने अपनी कविता संग्रह की भूमिका में लिखा है कि काव्य का वास्तविक उत्कर्ष उसके
    समग्र रूप में ही ढूँढ़ना चाहिए। इस विचार का निकष-पद्धति से स्पष्ट विरोध है। एक
    ओर दो चार पंक्तियों में उत्कर्ष ढूँढ़ना और दूसरी ओर समग्र रचना को निकष बनाना
    परस्पर विरोधी मान्यताएँ है।

     2. आर्नल्ड
    लिखता है कि महान कवि के समान महान आलोचक की दृष्टि विराट होनी चाहिए। भला कुछ पंक्तियों
    के आधार यह कैसे संभव है।

     3. दो-चार
    पंक्तियाँ तो किसी साधारण कवि की भी उत्कृष्ट हो सकती हैं फिर भी वह महान कवि कहला
    सकता है।

         कहने का तात्पर्य यह है कि आर्नल्ड द्वारा
    कल्पित यह निकष-सिद्धान्त परस्पर विरोधी होने के कारण निकष याने कसौटी पर खरी नहीं
    उतरती।


     तुलनात्मक आलोचना पद्धति


          आर्नल्ड ने ही तुलनात्मक आलोचना पद्धति की
    नींव डाली थी। इस आधार पर आर्नल्ड ने आलोचना की एक पद्धति यह बताई कि कवियों के
    काव्याशों की परस्पर तुलना की जाए
    , पर यह पद्धति इसलिए अपूर्ण है कि इसमें सम्पूर्ण रचना का मूल्याँकन नहीं
    किया जाता
    , कुछ काव्य के अंशों की सुन्दरता और उत्तमता के
    आधार पर ही निर्णय दे दिया जाता है। तुलनात्मक आलोचना पद्धति निश्चय ही उपयोगी
    होती है
    , पर इसमें सम्पूर्ण रचना की तुलना के आधार पर निर्णय
    दिया जाता है न कि कुछ अंशों के आधार पर।


     आलोचना के प्रकार


          मैथ्यू आर्नल्ड Matthew Arnold  ने लिखा है कि आलोचना के तीन
    प्रकार हैं— (
    1) ऐतिहासिक
    आलोचना
    , (2) वैयक्तिक आलोचना और (3) वास्तविक
    आलोचना ।

     1. ऐतिहासिक
    आलोचना
    – इस प्रकार की
    आलोचना में किसी कवि की रचना का मूल्याँकन करते समय उसके युग का अध्ययन आवश्यक है
    । युग के अध्ययन का अर्थ है – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में काव्य का अध्ययन करना ।
    किन्तु आर्नल्ड ने ऐतिहासिक आलोचना को कोई महत्त्व नहीं दिया। क्योंकि इसमें बाहरी
    परिस्थितियों एवं प्रभाव के तत्त्वों के आधार पर किसी कृति की आलोचना की जाती है।
    ऐतिहासिक परिस्थितियाँ सदैव परिवर्तनशील होती हैं। अतः उनके आधार पर किया गया
    मूल्याँकन भी स्थायी और स्थिर नहीं हो सकता।

          उदाहरण के लिए नवजागरण काल की लिखी गयी
    राष्ट्रीय कविताएँ
    , सन्
    1962 में चीन के आक्रमण के समय की लिखी गयी कविताएँ युगीन
    परिस्थितियों के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती हैं किन्तु सन्दर्भ बदल जाने
    के बाद वे गौण हो जाती हैं। कभी-कभी आलोचक ऐतिहासिक महत्त्व की स्थापना के धुन में
    यह भूल जाता है कि रचना का काव्योचित मूल्य क्या है
    ? अतः इस
    आलोचना का दृष्टिकोण सीमित है।

     2. वैयक्तिक
    आलोचना
    – आर्नल्ड ने
    वैयक्तिक आलोचना को भी ही हेय माना है क्योंकि उसमें व्यक्तिविशेष की रुचि अरुचि
    , राग-द्वेष का होना अनिवार्य हो जाता
    है। किसी आलोचक को कोई रचना इसलिए उच्चकोटि की या निम्नकोटि की लग सकती है कि कवि
    के साथ उसका सम्बन्ध अच्छा या बुरा है । व्यक्तिगत रुचि और अरुचि से किसी रचना का
    सही मूल्याँकन नहीं हो सकता। जीवित कवियों के प्रति आलोचक का राग-द्वेष होना संभव
    है
    , इसलिए वह अपने राग-द्वेष से प्रभावित सकता है। साहित्य
    के वास्तविक आलोचक को इससे ऊपर उठना चाहिए। (आजकल हिंदी में ऐसी रागद्वेष पर
    आधारित आलोचना
     का बोल-बाला है।)

     3. वास्तविक
    आलोचना
    – आर्नल्ड के
    अनुसार ऐतिहासिक आलोचना और वैयक्तिक आलोचना दोनों ही सीमित दृष्टिकोण पर आधारित
    हैं। एक काल विशेष की सीमाओं पर तो दूसरी व्यक्ति की सीमाओं पर । ऐसी स्थिति में
    ये दोनों ही किसी रचना के व्यापक सत्य का मूल्याँकन नहीं कर सकती।  इसलिए आर्नल्ड ने इन दोनों प्रकार की आलोचनाओं
    का बहिष्कार करते हुए वास्तविक आलोचना या यूनिवर्सल आलोचना का सुझाव दिया था। इस
    आलोचना में आलोचक को एक तो यह देखना चाहिए कि काव्य में जीवन का चित्रण है या नहीं
    , दूसरे उसमें नैतिकता है या नहीं।

         आर्नल्ड काव्य में नैतिकता के प्रबल आग्रही
    हैं। उनका यहाँ तक कहना है कि “नैतिक विचारों का विद्रोही काव्य
    , जीवन का विद्रोही है और नैतिक विचारों
    से उदासीन काव्य
    , जीवन से उदसीन काव्य है।” काव्य और जीवन
    में नैतिकता की इतनी जोरदार वकालत शायद ही किसी ने की हो।

          आर्नल्ड का यह भी कहना है कि किसी काव्य का
    मूल्याँकन करते समय आलोचक को महान् समर्थ कवियों की कुछ उदात्त पंक्तियाँ या
    उक्तियाँ अपने मस्तिष्क में रखते हुए यह देखना चाहिए कि उस कोटि की उत्कृष्टता या
    आनंद इस कृति में है या नहीं। जैसे साकेत का मूल्याँकन करते समय तुलसीदास की उत्कृष्ट
    पंक्तियों एवं उक्तियों को ध्यान में रखना चाहिए।


     आलोचना का महत्त्व


          आर्नल्ड Matthew Arnold की आलोचना बहुत ही उदार और व्यापक
    है। उसने सर्वप्रथम आलोचना के महत्त्व का प्रतिपादन करना उचित समझा। उसने एक लेख “आधुनिक
    युग में समीक्षक का कार्य” में रचना की शक्ति या कारयित्री शक्ति (
    Creative power) और आलोचनात्मक शक्ति (Critical
    power) की विवेचना करते हुए आलोचनात्मक शक्ति की निवार्यता और उपादेयता
    पर प्रकाश डाला है। उसने लिखा है—

     1. आलोचना
    का कार्य सर्जनात्मक शक्ति का कार्य है।

     2. आलोचना
    के बिना सर्जनात्मक शक्ति उत्कृष्ट रचना का निर्माण नहीं कर सकती है। जिस युग के
    साहित्य में उत्कृष्ट कोटि की आलोचना का अभाव होता है उसमें मूल्यवान रचनाओं का भी
    सर्वथा अभाव होता है। उत्कृष्ट साहित्य के निर्माण के लिए उत्कृष्ट समीक्षा का
    होना अनिवार्य है। आलोचना ही साहित्यकार को विषय प्रदान करती है।

     3. साहित्य
    की उत्कृष्ट सृष्टि के लिए दो शक्तियों का होना आवश्यक है-  प्रथम कारयित्री शक्ति और दूसरी युग की शक्ति ।
    युग की शक्ति के बिना कवि को शक्ति (कारयित्री प्रतिभा) अपर्याप्त रहती है।

          तात्पर्य यह है कि साहित्य सृष्टि के लिए
    साहित्यकार में दो शक्तियाँ होनी चाहिए एक तो सर्जन का कौशल और दूसरा दर्शन की
    शक्ति । इसमें दर्शन की शक्ति मुख्य और यही समीक्षा की शक्ति है। यदि यह समीक्षा
    शक्ति रचनाकार में भी है तो वह उत्कृष्ट रचना के सृजन में समर्थ होता है। हिंदी
    में भक्तिकाल के कवियों की रचनाओं में युगीन प्रभाव के कारण ही जीवन की समीक्षा है
    किन्तु रीतिकाल में इसका अभाव है। भारतेन्दुयुग
    , द्विवेदी युग, छायावादी युग, के
    काव्य में तो उत्कृष्टता है किन्तु बाद की रचनाओं का जनजीवन पर कोई स्थायी प्रभाव
    नहीं दिखाई पड़ता। इसका कारण यह हो सकता है कि उत्कृष्ट समीक्षक का मार्गदर्शन
    नहीं मिल रहा है।

          आर्नल्ड Matthew Arnold की दृष्टि में उत्कृष्ट साहित्य की
    सृष्टि के लिए जिस उदार दृष्टिकोण
    , उदात्तता, मनन और जिज्ञासा की आवश्यकता होती है वह
    सब न रह गयी । साहित्य
    , इसीलिए उत्कृष्ट न हो सका। आर्नल्ड
    के अनुसार “काव्य जीवन की समीक्षा है” यह समझना ही जीवन-समीक्षक का कर्तव्य है ।
    जीवन की पूर्णता का बोध प्राप्त करना ही
    “जीवन की समीक्षा है” (Criticism
    of life)
    इसके लिए आलोचक
    में विराट सामाजिक चेतना
    , विवेक
    और उदार धार्मिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।


     काव्य जीवन की आलोचना है 


     आर्नल्ड के अनुसार
    “काव्य जीवन की आलोचना है।” भरत के रससूत्र के समान इस उक्ति की भिन्न-भिन्न
    व्याख्याएँ की गई हैं। एक विद्वान के अनुसार अरस्तू के
    अनुकरणकी तरह
    आर्नल्ड की
    जीवन
    की आलोचना है
    का अर्थ है जीवन का चित्रण। स्वयं आर्नल्ड की अनुसार जीवन का आलोचना का अर्थ है
    जीवन में उदात्त और गंभीर विचारों का विनियोग । काव्य जीवन का वैसा चित्रण नहीं
    करता जैसा फोटो में पाया जाता है। उसमें आदर्श जीवन का निरुपण रहता है। वस्तुतः
    काव्य को जीवन की आलोचना कहने के पीछे आर्नल्ड का उद्देश्य था उन मतों का खण्डन
    करना जो काव्य में जीवन को महत्त्व नहीं देते।

          कलावादी जो “कला कला के लिए” कहकर जीवन की उपेक्षा करते हैं और स्वच्छन्दतावादी जो काव्य में कवि की
    निजी अनुभूतियों को महत्त्व
    देते
    हैं। इन मतवादों में
    जीवन की उपेक्षा थी, जो
    आर्नल्ड को स्वीकार्य नहीं था। अतः उन्होंने जोर देकर कहा कि जिस काव्य में जीवन
    की उपेक्षा की गई है वह काव्य काव्य ही नहीं है।


     काव्य का प्रयोजन


          आर्नल्ड MatthewArnold ने लिखा है कि “इतना ही आवश्यक नहीं
    है कि कवि पाठकों के ज्ञान में वृद्धि करे
    , वरन् यह भी आवश्यक है कि वह उसके आनंद की वृद्धि करे।” इससे स्पष्ट है कि
    आर्नल्ड काव्य का प्रयोजन शिक्षा देना या उपदेश देना नहीं मानता। उसके अनुसार
    काव्य वही है जो उत्कृष्टतम आनंद प्रदान करे। पाठकों को काव्य से आनंद मिलना
    चाहिए। शिलर ने कहा है कि वास्तविक कला वही है जो उत्कृष्टतम आनंद प्रदान करे (
    The
    right-art is that alone, which creates the highest enjoyment)
    आर्नल्ड ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि पाठकों के स्थायीभावों या अनुभूतियों
    को स्पर्श करना ही उन्हें आनंद प्रदान करना है। यही आनंद प्रदान करना काव्य का
    मुख्य प्रयोजन है
    , शिक्षा या उपदेश गौण रहता है। भारतीय रस
    सिद्धान्त में भी पाठकों के स्थायी भावों को स्पर्श करना ही काव्य का प्रयोजन है।
    नाट्यशास्त्र में भी
    विनोद जननम्’, ‘विश्राम
    जननम्
    और लोकोपदेश जननम्को नाटक और काव्य का प्रयोजन माना गया है।


     काव्य और नैतिकता


         यहाँ
    एक प्रश्न खड़ा होता है कि क्या पाठकों के रति
    , हास, घृणा, क्रोध आदि स्थायी
    भावों को स्पर्श करना आर्नल्ड के अनुसार काव्य का प्रयोजन है
    ? आर्नल्ड उत्तेजना प्रदान करने वाले साहित्य को उत्कृष्ट नहीं मानता। उसने
    काव्य को जीवन की आलोचना कहा है जिसका तात्पर्य है कि जीवन कैसे जिया जाए इसे जान
    लेना जीवन की आलोचना है और कैसे जिया जाए
    , यह प्रश्न अपने आप
    में नैतिक प्रश्न है।

     आर्नल्ड Matthew Arnold काव्य में नैतिकता का प्रबल आग्रही है। उसके
    अनुसार जिस काव्य में नैतिकता नहीं है
    , वह काव्य नहीं है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समाज
    में रहता है इसलिए वह नैतिक है। मानव जीवन स्वयं नैतिक है तो काव्य में नैतिकता
    होगी ही। उसने काव्य की तुलना मार्ग में स्थित सराय से की है।  जैसे घर तक की यात्रा में कहीं सराय मिलने पर हम
    वहाँ कुछ पल के लिए रम जाते हैं किन्तु रुकते नहीं
    , क्योंकि
    हमारी मंजिल घर है। घर पहुँचकर ही हमें आनंद  और संतुष्टि मिलती है। इसी प्रकार काव्य हमें घर
    और समाज में अर्थात् जीवन में पहुँचा देता है। जो तुच्छ है हम उसका परित्याग कर
    देते हैं।


     काव्य का विषय

         

     आर्नल्ड Matthew Arnold का मत है कि काव्य की विषयवस्तु
    महत्त्वपूर्ण होनी चाहिए
    , जिसमे
    गहन और तीव्र भावों को अभिव्यक्त करने की संभावनाएँ हों। कवि को उत्कृष्ट विषय का
    चुनाव करना आवश्यक है । काव्य का विषय ऐसा हो जो स्वयं में आकर्षक हो। उसके द्वारा
    सहज ही पाठकों को रसानुभूति उत्पन्न हो सके। वह विषय ऐसा होना चाहिए जो पाठकों के
    भावों को स्पर्श कर सके। कवि का ध्यान विषय के सहज और समग्र विकास पर हो। उसके मन
    में काव्य का पूरा खाका निर्मित हो जाए और उसे ही वह भाषा में सँवारकर प्रस्तुत
    करे।

          तुलसीदास ने भी इसी आशय को व्यक्त किया है— भाषाबद्ध करब मैं सोई। मोरे मन प्रबोध
    जेहि होई” । अरस्तू ने भी यही कहा था कि नाटककार त्रासदी की घटनाएँ चुनकर एक मानस
    रूप तैयार कर ले और अन्य तत्व भरकर उसे भाषाबद्ध कर दे।

          आर्नल्ड ने काव्यविषय के सन्दर्भ में यह
    प्रश्न भी उठाया है कवि काव्य की विषयवस्तु किस युग से ले
    ? आर्नल्ड की मान्यता है कि चूँकि
    पाठकों की अनुभूतियों को स्पर्श करना और आनंद प्रदान करना ही काव्य का प्रयोजन है
    तो कवि अपने काव्य के लिए कहीं से और किसी युग से सामग्री का चयन कर सकता हैं
    ,
    जो पाठकों के भावों को छू सके। कविता का सम्बन्ध हमारे स्थायी भावों
    से है। उसे युग और युग की समस्या से बाँध देना ठीक नहीं होगा।

          साराँश यह है कि आर्नल्ड Matthew Arnold के अनुसार कवि काव्य
    की सामग्री कहीं से भी ले सकता है उसके लिए यह बँधन नहीं है कि प्राचीनकाल से ले
    या आधुनिक काल से। किन्तु आर्नल्ड आधुनिक युग को नैतिक और धार्मिक दृष्टि से गिरा
    हुआ मानता है इसलिए उसे शंका है कि उत्कृष्ट काव्य-सामग्री आधुनिक युग से प्राप्त
    नहीं हो सकती। वस्तुतः आर्नल्ड का यह मत आदर्श या उत्कृष्टतम काव्य या साहित्य के
    लिए है।


     काव्य-हेतु


          आर्नल्ड MatthewArnold कवि की शक्ति या जन्मजात प्रतिभा को
    ही काव्य का मूल हेतु या कारण मानता है। उसका मत था कि उत्कृष्ट कोटि की कविता रची
    नहीं जाती है
    , वह स्वयं फूट पड़ती है। उत्कृष्ट कवि
    में नम्रता (
    modesty) का होना भी वह आवश्यक मानता है। महानता
    के लिए नम्रता आवश्यक है। आर्नल्ड ने लिखा है कि “ये महान कवि इसलिए नम्र होते हैं
    कि ये अन्य मनुष्यों से अपनी तुलना नहीं करते हैं वरन् ये उस पूर्णता से अपनी
    तुलना करते हैं
    , जिसकी कल्पना उनके मन में रहती है। कवि नम्र
    होगा तो उसका स्वर भी नम्र होगा
    , उसका स्वर प्रचारक का नहीं
    होगा। अतः वह उपदेशक भी नहीं होगा।”

          अध्ययन को भी आर्नल्ड काव्य रचना का हेतु
    स्वीकार करता है। किन्तु वह इसे गौण ही मानता है। काव्य का तीसरा आधार आर्नल्ड के
    अनुसार “उत्कृष्ट आदर्शों” का अनुकरण है। इसके लिए वह प्राचीन कवियों के काव्य का
    अध्ययन करे और उन कवियों की आत्मा को ग्रहण करने का प्रयास करे।


     कवि का व्यक्तित्व


             काव्य हेतु का सम्बन्ध कवि के व्यक्तित्व से
    भी है। आर्नल्ड के अनुसार कवि में ज्ञान
    , गहरी पैठ वाली बुद्धि, गंभीरता, अनुभूति और विनोदशीलता आदि गुणों का होना आवश्यक है। गंभीरता व्यक्तित्व
    की महानता के लिए आवश्यक है। इस गुण के कारण वह कम बोलता है। वह वही करता है
    ,
    कहता है जो आवश्यक है। गंभीरता हमारी कथनी और करनी दोनों पर
    नियंत्रण रखती है। कवि के लिए यह नियंत्रण आवश्यक है। भावानुभूति (
    sentiment)
    तो कवि का धन ही है। उसके बिना वह कैसे रह सकता है? उसमें चरित्रगत औदात्य भी होना चाहिए। कवि के व्यक्त जीवन की अपेक्षा उसका
    अव्यक्त जीवन अधिक प्रबल होना चाहिए।


     शैली


          आर्नल्ड Mathew Arnold गद्य और पद्य की शैली को एक ही मानता
    है। इन दोनों की शैलियाँ एवं शक्तियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं। उसने लिखा है कि
    prose cannot have the power of verse अर्थात्
    गद्य में पद्य की शक्ति नहीं आ सकती। उसका तर्क है काव्य की सृष्टि आत्मा से होती
    है जबकि गद्य मस्तिष्क से जन्म लेता है। अतः दोनों की भाषा और शैली में अन्तर होना
    स्वाभाविक है।


     मूल्याँकन और निष्कर्ष


    1. आर्नल्ड Matthew Arnold आधुनिक अंग्रेजी आलोचना के प्रर्वतक हैं। उनके पहले कॉलरिज का नाम उल्लेख्य है
    किन्तु कॉलरिज की दृष्टि सैद्धान्तिक थी
    , आर्नल्ड की
    व्यवहारिक।

    2. आर्नल्ड
    ने काव्य को आनंद
    , स्वास्थ्य एवं संतुष्टि का साधन घोषित
    किया।

    3. आर्नल्ड
    के प्रेरणास्रोत होमर और अरस्तू आदि थे।

    4. आर्नल्ड
    की आलोचना की सीमा का विस्तार काव्य
    , संस्कृति, धर्म और शिक्षा आदि तक है।

     5. आर्नल्ड
    का अध्ययन अत्यन्त व्यापक था।

     6. रचनाकार
    को समझने के लिए उन्होंने रचनाकार की जीवनी का ज्ञान आवश्यक

     माना।

     7. आर्नल्ड
    अभिज्यात्वाद (
    classical) के पक्षधर थे।

     8. आर्नल्ड Matthew Arnold का आदर्श आलोचक साहित्य, संस्कृति और समाज इन तीनों का
    अधिकारी विद्वान होना चाहिए।

     9. उन्होंने
    समकालीन साहित्य एवं आलोचना को एक नई दिशा एवं दृष्टि देने

     का प्रयास किया।

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