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जॉन ड्राइडन (1631-1700) बहुमुखी प्रतिभा के धनी एक ऐसे लेखक थे, जिन्होंने साहित्य की किसी भी शाखा को अछूता नहीं छोड़ा और प्रत्येक क्षेत्र में उत्कृष्ट योग्यता के कार्य किए। वे एक महान कवि और महान नाटककार थे। वे एक महान गद्य-लेखक भी थे और उन्हें आधुनिक गद्य शैली का संस्थापक माना जाता है। वे एक मौलिक और विवेकशील आलोचक भी थे। डॉ. जॉनसन ने उन्हें “अंग्रेजी आलोचना का जनक” कहा और उनके बाद के आलोचक भी इस कथन से पूरी तरह से सहमत हैं।
हालाँकि, आलोचना का एकमात्र औपचारिक ग्रंथ जो उन्होंने अपने पीछे छोड़ा है, वह है ‘ड्रामेटिक पोएसी पर उनका निबंध’ (Essay on Dramatic Poesy)। यह एक यह एक ऐसी कृति है जो उनके आलोचनात्मक दृष्टिकोण का अनौपचारिक घोषणापत्र है, और इंग्लैंड में साहित्यिक आलोचना के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।
जॉन ड्राइडन और उनका युग
17वीं शताब्दी के मध्य में इंग्लैण्ड में स्वतंत्र राष्ट्रीय भावना का उदय हुआ। बेकन, शेक्सपियर और मिल्टन की काव्य रचनाओं के परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड में एक राष्ट्रीय आत्मविश्वास जाग्रत हुआ। मध्ययुगीन अंग्रेजी कला-साहित्य चिन्तन का विकास हुआ। इन्हीं परिस्थितियों में इंग्लैण्ड में जॉन ड्राइडन का आगमन हुआ और उनके साथ स्वच्छन्दतावाद के स्थान पर नवशास्त्रवाद का श्री गणेश हुआ।
बुअलो नवशास्त्रवाद का प्रतिष्ठाता था। उसने साहित्य के लिए कुछ नियम निर्धारित किए, जिन्हें फ्रांस में एक शताब्दी तक स्वीकार किया गया और जिनका प्रभाव इंग्लैण्ड पर भी पड़ा। उसके नियमों की तुलना सैनिक अनुशासन से की गई है तथा स्वयं -बुअलो की तुलना मेजर से की गई है।
नव्यशास्त्रवादी सिद्धान्त का केन्द्रीय बिन्दु है- मानव प्रकृति का अनुकरण। मानव प्रकृति से उन्होंने अर्थ लिया मानव स्वभाव, जो सभी देशों ओर कालों में पाया जाता है। उन्होंने काव्य में देवताओं, राक्षसों, सन्तों और देवपुत्रों को न लाने का परामर्श दिया। कल्पना रूपी अश्व के लिए विवेक की वल्गा को अनिवार्य माना। प्राचीनग्रन्थों के अनुकरण पर जोर दिया। उन्होंने औचित्य पर बल दिया। कवियों को निर्देश दिया कि वे लोग, पर निन्दा, क्रूरता और गरीबी का चित्रण न करें।
इस समय कॉफी हाउस, और विश्वविद्यालयों के डाइनिंग हाल तथा कुछ क्लब साहित्य चर्चा के स्थान बन गए और इस प्रकार जॉन ड्राइडन के समय में एक व्यापक और उच्चकोटि की साहित्यिक अभिरुचि का विकास हुआ। जान जॉन ड्राइडन की इन स्थानों पर काफी प्रतिष्ठा थी।
जॉन ड्राइडन – जॉन ड्राइडन का जन्म सन् 1631 में हुआ था। उनकी काव्य रचना का प्रारंभ एक शोकगीत से हुआ। उस समय वे एक स्कूल में अध्ययन कर रहे थे। 1663 से इनकी रचनाओं में उत्कृष्टता की झलक मिलने लगी। उन्होंने नाटक लिखना प्रारंभ किया, पर विशेष सफलता नहीं मिली।
इनकी ख्याति 1667 में लिखे नाटक “दि इण्डियन एम्परर” से फैली। 1668 में जॉन ड्राइडन की “एसे आन ड्रमैटिक पोयजी” नामक कृति प्रकाशित हुई, जो संवाद रूप में है। इसमें प्राचीन, नवीन, फ्रेंच और एलिजाबेथयुगीन, नाटक साहित्य पर विचारव्यक्त किया गया है। नाटक की चर्चा में ही काव्य की सामान्य प्रकृति, प्रयोजन, मूल्य आदि पर महत्त्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए गए हैं।
विद्वान लोग जॉन ड्राइडन की मौलिकता के इतने कायल है कि वे उन्हें अंग्रेजी समीक्षा का जनक मानते हैं। एक समीक्षक का मत है कि “जॉन ड्राइडन अंग्रेजी साहित्य में प्रथम व्यावहारिक समीक्षक है।”
न ड्राइडन प्लेटो और अरस्तू से उतना प्रभावित नहीं हैं जितना लोंजाइनस से। उन्होंने लिखा है-यह कहना ही पर्याप्त नहीं है कि अरस्तू ने ऐसा कहा है, उसके सामने वे आदर्श ग्रन्थ नही थे, जो हमारे सामने है (it is not enough that Aristotle has said so….) वह “पुराणम् इति एव साधु सर्व” के अनुयायी नहीं थे, प्राचीन के प्रति निष्ठा रखते हुए भी नवीन के प्रति आकृष्ट थे। परंपरा उन्हें मान्य थी, पर युग का अनुरोध भी उनके लिए उपेक्षणीय न था।
उन्होंने अरस्तू, होरेस और बोयलो के साहित्यिक सिद्धान्त को भी अस्वीकार कर दिया। उनके अनुसार नियमों के पालन से उच्चकोटि की साहित्यिक रचना का निर्माण नहीं हो सकता। अपनी स्वच्छन्द मेधा और स्वतंत्र विचारणाशक्ति के कारण उन्होंने नव्यशस्त्रवादियों का भी अन्धानुकरण नहीं किया। फलतः इनके काव्य में नवशास्त्रवाद और स्वच्छन्दताबाद का संघर्ष दृष्टिगोचर होता है।
जॉन ड्राइडन नाटककार, कवि और लेखक-तीन रूपों में सामने आते हैं, उनका प्रसिद्ध नाटक ‘राइवल लेडीज’ है, जिसमें उन्होंने पद्य का उपयोग उचित माना है। सन् 1670 ई. में इन्हें ‘राष्ट्रकवि’के पद से सम्मानित किया गया। इस प्रकार संघर्ष और सम्मान का जीवन व्यतीत करते हुए जॉन ड्राइडन की मृत्यु सन् 1700 ई. में हुई।
जॉन ड्राइडन के काव्य सिद्धान्त
जॉन ड्राइडन स्वस्थ साहित्य चिन्तक थे । उनके मतों का मनन करना साहित्यजिज्ञासुओं के लिए अत्यन्त उपादेय है। नाटक के विषय में और उसी प्रसंग में कविता के सन्दर्भ में उन्होंने जो कुछ कहा था, उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं-
काव्य की परिभाषा
जॉन ड्राइडन के मतानुसार, काव्य की निम्नांकित परिभाषा होगी- “काव्य मानव-प्रकृति का यथार्थ और सप्राण मानसचित्र है। वह मानव जाति को आनन्द और शिक्षा प्रदान करने के निमित्त है। वह मानव प्रकृति (स्वभाव) के भावों, मानसिक स्थितियों और भाग्य परिवर्तनों को प्रस्तुत करता है।”
इस परिभाषा में पाँच बातें कही गई हैं:
- काव्य का सम्बन्ध मानव प्रकृति अर्थात् मनुष्य के स्वभाव से है।
- काव्य मानव स्वभाव का मानसिक चित्र या बिम्ब है।
- काव्य में मानसिक चित्र यथार्थ होना चाहिए।
- काव्य में मानसिक चित्र सप्राण होना चाहिए।
- काव्य का प्रयोजन आनन्द और शिक्षा देना है।
काव्य का सम्बन्ध मानव प्रकृति से है अर्थात् कवि इसी संसार से सामग्री का चयन करता है, वह मनुष्य के स्वभाव को अपने काव्य का विषय बनाता है। किन्तु वह मानव स्वभाव का वर्णन नहीं करता है, वरन् उसका चित्र या बिम्ब प्रस्तुत करता है।
काव्य में मनुष्य के जीवन का वही स्वरूप प्रस्तुत नहीं होता जो बाहर से दिखाई पड़ता है। कवि मानव स्वभाव को जैसा पाता है वैसा चित्रित करता है। अर्थात् कवि अपने मन के आदर्श संसार का चित्र प्रस्तुत करता है। वह चित्र यथार्थ और सप्राण होना चाहिए।
इस बात पर ध्यान देना महत्तवपूर्ण है कि जॉन ड्राइडन काव्य को वर्णन नहीं वरन् कवि का मानसिक चित्र मानता है। क्यों? वर्णन में स्थूल कथन होता है जबकि मानसिक चित्र या बिम्ब में केवल संकेत होता हैं। वर्णन में पाठक को काल्पनिक आनंद प्राप्त नहीं होता क्योंकि उसमें कल्पना के लिए आवकाश नहीं। काव्य अव्यक्त को व्यक्त करता है और अपूर्ण को पूर्ण करता है। गुप्त जी की यह उक्ति इसी आशय का प्रतिपादन करती है, कि “जो अपूर्ण कला उसी की पूर्ति है।” तात्पर्य यह है कि संसार और मानव प्रकृति को देखकर कवि की कल्पना में जो चित्र या जो रूप प्रस्तुत होता है है कवि उसी को भाषा में प्रस्तुत करता है। कवि अपनी मानसगत कल्पना या छाया का ही वर्णन करता है।
भारतीय आचायों में ध्वनि सम्प्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य आनंदवर्धन ने भी काव्य का आनंद ध्वनि या संकेत में माना है स्थूल कथन में नहीं।
संस्कृत के एक कवि ने काव्य का आशय किस प्रकार व्यक्त और अव्यक्त रहे, इसे हुआ लिखा है-नो गुर्जरीस्तन…… …..मरहट्टवधू कूचाभः । अर्थात् स्पष्ट करता हुआ वाणी का रमणीय अर्थ न तो गुर्जरी युवती के स्तन के समान अत्यन्त गूढ़ या छिपा हो, न वह आन्ध्रनारी के स्तन के समान एकदम व्यक्त हो। वह तो कुच की आभा के समान गूढ़ और स्पष्ट दोनों होता है। हिन्दी मराठी वधू के कुच में यह कथन प्रसिद्ध है “सब उघरै सोहैं नहीं, कवि आखर और सुतिय कुच।”
काव्य का विषय
जॉन ड्राइडन का स्पष्ट मानना है कि काव्य और नाटक की विषयवस्तु उपयुक्त होना चाहिए, क्योंकि जैसे उचित उपयोग न होने से सर्वोत्तम औषधि भी अपना गुण खो देती है, उसी प्रकार उपयुक्त विषय का चयन न करने से काव्य पाठकों को आकृष्ट नहीं कर सकता, वह निष्प्रभ हो जाता हैं।
काव्य की कथावस्तु के साथ पात्रों का चरित्र भी महान् तथा गौरवपूर्ण होना चाहिए। यदि काव्य, नाटक का विषय साधारण या निम्नस्तर का होगा तो कवि उत्कृष्ट रचना का निर्माण नहीं कर पाएगा। साथ ही कवि को विषय का चुनाव करते समय युग की रुचि ओर पाठकों के मानसिक स्तर का भी ध्यान रखना आवश्यक है, क्योंकि ऐसा न करने पर वह अपने युग की जनता को आनन्द प्रदान नहीं कर सकेगा, जो उसका प्रमुख कर्त्तव्य है।
काव्य का प्रयोजन
जॉन ड्राइडन के समय में काव्य के तीन प्रयोजन माने जाते थे- (1) शिक्षा देना, (2) आनन्द देना और (3) आत्मोल्लास।
जॉन ड्राइडन के अनुसार पाठकों को आनन्द देना और शिक्षा देना काव्य का प्रयोजन है। सिडनी ने आनंद के माध्यम से शिक्षा देना, काव्य का प्रयोजन माना था। काव्य से आनंद और शिक्षा कैसे मिलती है इसके उत्तर में जॉन ड्राइडन ने लिखा है कि चूँकि काव्य मानव स्वभाव का यथार्थ और जीवन्त चित्र प्रस्तुत करता है, इसलिए पाठकों, दर्शकों या श्रोताओं को काव्य से ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान से आनन्द की अनुभूति होती है।
सिडनी ने कहा था कि आनंद के माध्यम से शिक्षा मिलती है किन्तु जॉन ड्राइडन ने सिडनी की बात को उलटकर कहा कि काव्य आनन्द का माध्यम से शिक्षा नहीं देता है वरन् काव्य से जो ज्ञान या शिक्षा मिलती है वह आनंद की प्राप्ति में सहायक है।
तात्पर्य यह है कि जॉन ड्राइडन आनंद देने को यदि एकमात्र नहीं तो प्रमुख लक्ष्य स्वीकार करते हैं । काव्य पढ़ते समय आनंद का ही अनुभव होता है शिक्षा तो बाद में मिलती है।
आचार्य कुन्तक ने भी आनन्द को काव्य का ‘तत्कालभावित’ अर्थात् अध्ययन करते समय प्राप्त होने वाला आनन्द और शिक्षा या उपदेश को ‘कालान्तरभावित’ अर्थात् अध्ययन समाप्त होने पर प्राप्त होने वाला, प्रयोजन माना है। तात्पर्य यह है कि कुंतक के समान जॉन ड्राइडन ने भी यह माना है कि शिक्षा या उपदेश काव्यानन्द के संचरण में सहायक है। किन्तु काव्य का प्रमुख लक्ष्य आनन्द प्रदान करना ही है।
अनुकरण और कल्पना
प्लेटो, अरस्तू और सिडनी तीनों ने स्वीकार किया था कि कला “अनुकरण प्रधान है।” किन्तु तीनों ने ‘अनुकरण’ शब्द का अर्थ अलग-अलग किया। प्लेटो के अनुसार अनुकरण का अर्थ हू-ब-हू नकल, अरस्तू के अनुसार अनुकरण का अर्थ कल्पानात्मक निर्माण या पुनः प्रस्तुतिकरण है और सिडनी के मत में कवि दृश्यमान संसार का नहीं वरन् अपने मन के आदर्श संसार की भावना का अनुकरण करता है।
इस विरोधाभास के कारण जॉन ड्राइडन ने ‘अनुकरण’ के स्थान पर मानसचित्र (या बिम्ब) (Image) शब्द का प्रयोग किया है। जॉन ड्राइडन के अनुसार कवि मानव स्वभाव के कार्यों, भावों और भाग्य परिवर्तनों को प्रस्तुत करता है। उसके अनुसार कवि अपनी प्रतिभा और कल्पनाशक्ति के द्वारा मुख्य विषयवस्तु को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर उसमें कुछ जोड़ता है, कुछ घटाता है, कुछ ऐसा चमत्कार या सौन्दर्य ला देता है कि वह मौलिक प्रतीत होने लगती है। वह विषयवस्तु की कुरूपता को ढक देता है और उसके सौन्दर्य को बढ़ा देता है।
तात्पर्य यह है कि जॉन ड्राइडन के अनुसार कवि या कलाकार केवल अनुकरण करने वाला नहीं है, वह अनुकर्ता नहीं स्रष्टा है, उसका उद्देश्य मूल विषयवस्तु से भी अधिक सुन्दर, अधिक आनन्दप्रद रचना का निर्माण करना है।
इसलिए वह कवि की तुलना बन्दूक बनाने वाले और घड़ी बनाने वाले से करता है। जिस प्रकार बन्दूक या घड़ी बनाने में इस्पात और चाँदी महत्त्वपूर्ण होते हुए भी असली मूल्य के नहीं होते, असली महत्त्व तो बनाने की कला और चतुराई में निहित होता है, इसी प्रकार काव्य रचना में विषय की अपेक्षा कवि की कल्पनाशक्ति और विवेकशक्ति या प्रतिभा महत्त्वपूर्ण होती है। प्रतिभा और कल्पना में भी जॉन ड्राइडन कल्पना को अधिक महत्त्व देते हैं।
कल्पना सम्बन्धी विचार
जॉन ड्राइडन ने कल्पना के लिए ‘फैन्सी’ शब्द का प्रयोग किया है। फैन्सी का अर्थ है ललित कल्पना। जॉन ड्राइडन ने कल्पना (Imagination) तथा ललित कल्पना (Fancy) को एक माना है।
पर कालरिज ने इन दोनों को अलग-अलग माना है। कालरिज प्रतिभा (genius) को प्रज्ञा (talent) से ऊँचा मानते हैं। उसी प्रकार कल्पना को वे ललित कल्पना से श्रेष्ठ समझते हैं। उनके अनुसार कल्पना का सम्बन्ध आत्मा और मन से है जबकि ललित कल्पना का मस्तिष्क से।
जॉन ड्राइडन दोनों को एक मानकर काव्य के लिए कल्पना को आवश्यक मानते है।
जॉन ड्राइडन के अनुसार काव्य मानव प्रकृति का मानस चित्र है और वह चित्र यथार्थ और सप्राण होता है। काव्य सप्राण या जीवंत तभी होगा जब कल्पनाशक्ति का उपयोग किया जाएगा। कल्पना के द्वारा ही काव्य में आनन्द और सौन्दर्य की सृष्टि होती हैं।
अरस्तू के अनुसार काव्य में कथानक ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है किन्तु जॉन ड्राइडन के अनुसार जब तक काव्य का कथानक कवि की कल्पना के रंगों से चित्रित नहीं होता तब तक वह तुच्छ होता है।
जॉन ड्राइडन के अनुसार कल्पना की प्रथम क्रिया द्वारा कवि उपयुक्त विचारों को पाता है, दूसरी क्रिया में वह पाए हुए विचारों को विषय के अनुकूल बनाता है, तीसरी क्रिया में वह इन विचारों को उपयुक्त सार्थक शब्दों में अभिव्यक्त करता है।
उनके मत में काव्य या नाटक में कल्पना का काम रमणीय चरित्रों, मनोवेगों, स्थायीभावों और विचारों को प्रस्तुत करना है। इन सबका वर्णन कवि ऐसी स्पष्ट और आलंकारिक भाषा में करता है कि वह यथार्थ से भी अधिक सुन्दर और जीवंत हो जाता है। इस प्रकार जॉन ड्राइडन ने कल्पनाशक्ति के महत्त्व को समझा और उसकी आवश्यकता पर समुचित बल दिया है।
नाटक सम्बन्धी अवधारणा
जॉन ड्राइडन ने “एसे आन ड्रमैटिक पोयजी” (Essay on Dramatic Poesy) नामक ग्रन्थ में नाटक साहित्य पर विचार प्रकट किया है। नाटक में जॉन ड्राइडन ने त्वरित बुद्धि (wit) को विशेष महत्त्व दिया है। यह त्वरित बुद्धि की बात राजदरबार के प्रभाव के कारण आयी थी।
वे दुःखान्त नाटक को सामाजिक बुराइयों के सुधार का सबल माध्यम मानता थे। व्यंग्य नाटक के संबंध में उनका विचार है कि किसी व्यक्ति के ऊपर प्रहार नहीं करना चाहिए। उसे समाज के लोगों की बुराइयों पर प्रहार करना चाहिए।
वीर नाटक के संबंध में उनका मत है कि उसमें उदात्त शैली और अलौकिक घटनाएँ होनी चाहिए। नायक श्रेष्ठ चरित्र वाला और नायिका पतिव्रता हो। उसकी कहानी युद्ध, सामरिक उत्साह और प्रेमभावना से परिपूर्ण होनी चाहिए।
नाटक की संवाद योजना को वे काव्यात्मक और अलंकारों से विभूषित देखना चाहते थे ।
भाषा के सन्दर्भ में उनका मत है कि नाटक में गद्य की जगह पद्य का प्रयोग करना श्रेयस्कर है क्योंकि पद्य प्रयोग से हर्ष, उल्लास के उद्रेक में सहायता मिलती है।
पद्य में भी वे अतुकान्त की अपेक्षा तुकान्त को महत्त्व देते हैं । क्योंकि तुकान्त रचना पद्य को अलंकृत करती है और स्मरणशक्ति को सहायता देती है।
जॉन ड्राइडन ने तुकांत कविता की प्रशंसा करते हुए लिखा है- “अतुकान्त कविता की तुलना में तुकान्त कविता के लाभ इतने अधिक हैं कि उनका उल्लेख करने का अर्थ समय नष्ट करना भर होगा।”
जॉन ड्राइडन ने संकलनत्रय (Three unities) को भी महत्त्व दिया है। संकलनत्रय में (1) काल या समय की अन्विति, (2) देशगत अन्विति और (3) कार्य की अन्विति है।
- काल या समय की अन्विति (The Unity of Time) में जॉन ड्राइडन नाटक के लिए चौबीस घण्टे की अवधि निर्धारित करते हैं। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि नाटक के सब अंक बराबर हों। कोई अंक बहुत बड़ा न हो और बहुत छोटा भी नहीं।
- देशगत अन्विति (The unity of Place) के विषय में उनका मत है कि चूँकि नाटक में रंगमंच एक ही होता है अतः नाटक में अनेक दृश्य नहीं होने चाहिए। रंगमंच पर अभिनेता इस प्रकार आयें-जायें कि नाटक की गति निर्बाध चलती रहे और मंच कभी खाली न रहे।
- कार्य की अन्विति (The Unity of action) के सम्बन्ध में जॉन ड्राइडन का मत है कि नाटक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना है इसलिए नाटक का आरम्भ, मध्य और अन्त अर्थात् उसका सम्पूर्ण कलेवर इस प्रकार गठित हो कि दर्शक को समझने में कठिनाई न हो। नाट्य प्रयोजन की उपलब्धि में प्रत्येक घटना का योग होना चाहिए। इस प्रकार जॉन ड्राइडन संकलनत्रय का समर्थन तो करते हैं, किन्तु अन्धानुकरण का विरोध करते हैं।
प्रहसन और हास्य रचना
जॉन ड्राइडन के अनुसार प्रहसन और हास्य रचना दोनों में अन्तर है। हास्य रचना में पात्र निम्न श्रेणी के होते हैं उनके चरित्र और कृत्य स्वाभाविक होते है। इसके विपरीत प्रहसन में अस्वाभाविक घटनाएँ होती है।
हास्यरचना हमारे सामने मानव स्वभाव की त्रुटियाँ लाती है। प्रहसन हमारा केवल मनोरंजन करता है।
हास्य रचना से उत्पन्न हँसी में संतुष्टि होती है, जबकि प्रहसन से उत्पन्न हँसी में घृणा अधिक होती है।
वे हास्य रचना के लिए “काव्यन्याय” (अर्थात् अच्छे को अच्छा परिणाम और बुरे को बुरा परिणाम मिलने वाला सिद्धान्त) को आवश्यक नहीं मानते जबकि दुःखान्त या करुण रचना के लिए काव्य न्याय को आवश्यक मानते हैं।
अरस्तू इस मत से सहमत नहीं है। उसके अनुसार ‘काव्यन्याय’ त्रासदी के लिए उपयुक्त नहीं है। क्योंकि बुरे के लिए बुरा फल त्रासदी का भाव नहीं जगा पाएगा।
निष्कर्ष
जॉन ड्राइडन पहले आलोचक हैं जिन्होंने अंग्रेजी काव्य और साहित्य की महत्ता प्रतिपादित की और फ्रांसीसी तथा ग्रीक साहित्य की त्रुटियाँ बताकर, उनको उनके सही परिप्रेक्ष्य में देखकर अंग्रेजी साहित्य की महत्ता अंग्रेजी जनता के सामने रखी।
उनकी आलोचना पाठक तथा लेखक के बीच सेतु का काम करती है। तुलनात्मक और ऐतिहासिक आलोचना के क्षेत्र में भी उसका कृतित्व स्तुत्य है। उन्होंने विश्लेषणात्मक समीक्षा की नींव डाली।
पहली बार उन्होंने उन प्रभावों का निरूपण किया जिनसे साहित्यिक व्यक्तित्व बनता है। ‘Fables’ के प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है, “मिल्टन स्पेंसर का सच्चा काव्यमय पुत्र था…….क्योंकि हम कवियों की भी जाति, परिवार और वंश-परम्परा वैसी ही होती है जैसी लोगों की।” स्पष्ट है कि इन पंक्तियों में वह एक कवि के दूसरे कवि पर प्रभाव की चर्चा कर रहा है जो उससे पूर्व किसी आलोचक ने नहीं की थी।
जॉन ड्राइडन के समकालीन आलोचक कोई परम्परा निर्मित नहीं कर पाये थे। इसी कारण उनकी तुलना में जॉन ड्राइडन को इतना महत्व दिया जाता है, पर जॉन ड्राइडन ने जो कार्य किया है वह अपने आप में भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।
उन्होंने पूर्ववर्ती साहित्य-शास्त्रियों-अरस्तू, हौरेस और बोइलो-की बात अन्धे होकर स्वीकार नहीं की, क्योंकि वे जानते थे कि प्रत्येक युग, देश और जाति का साहित्य इसलिए भिन्न होता है कि भिन्न-भिन्न लोगों और जातियों की रुचि भिन्न होती है तथा समय के साथ रुचि, स्वभाव तथा शिल्प बदलते रहते हैं।
साहित्य का उद्देश्य आनन्द अधिक है, शिक्षा कम, यह बताकर उन्होंने कलापूर्ण तथा नैतिक काव्य का अन्तर बताया।
उन्होंने साहित्य में सौन्दर्य तत्व की महत्ता पर बल दिया तथा साहित्य को अनुकरण न मानकर पुनःसृजन कहा और इस प्रकार काव्य में कल्पना-तत्व का महत्व स्वीकार किया।
नियम-पालन से अधिक प्रतिभा को आवश्यक बताकर भी उन्होंने सही निर्देशन किया। यद्यपि कुछ विद्वानों ने उनके महत्व को घटाने की चेष्टा की । यह सत्य है कि उन्होंने नए सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा से अधिक प्राचीन सिद्धान्तों में संशोधन किया, उन्होंने सिद्धान्त तत्वतः नव्यशास्त्रीय हैं, फिर भी स्वतन्त्र आलोचक दृष्टि तथा साहसपूर्ण निष्कर्षों के कारण उनका योगदान अविस्मरणीय है।


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