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काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि करने वाले और उसमें अनिवार्य रूप से नित्य विद्यमान रहने वाले धर्म को गुण कहते हैं।
काव्य गुण की अवधारणा भरतमुनि के समय से ही मान्य है। इस प्रकार हम देखते हैं कि kavya gun पर प्राचीन काल से ही चर्चा की जा रही है । तो आइये अब हम kavya gun को विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं।
आचार्य भरत मुनि के अनुसार काव्य गुण
आचार्य भरत मुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में दस काव्य-गुणों का उल्लेख किया है। kavya gun को और भी भली-भाँति समझने के लिए आप लोग इस लेख में दिए गए वीडियो के लिंक पर क्लिक करके भी इसे और भी बेहतर ढंग से समझ सकते हैं । कृपया उस वीडियो को ज़रूर देखें ।
भरतमुनि ने गुणों की संख्या दस मानी है –
(1) माधुर्य, (2) ओज, (3) प्रसाद, (4) श्लेष, (5) समता, (6) सुकुमारता,
(7) अर्थव्यक्ति, (8) उदारता, (9) कान्ति, (10) समाधि।
आचार्य भरत मुनि द्वारा विवेचित गुणों की तीन विशेषताएं हैं :
- गुण काव्य या शब्दार्थ की शोभा में वृद्धि करने वाले तत्त्व हैं।
- गुण एवं अलंकार अलग होते हुए भी समान महत्व के हैं ।
- रस के अनुकूल प्रयोग के कारण ही गुण काव्य की शोभा बढ़ाते हैं ।
आचार्य दण्डी के अनुसार काव्य गुण
आचार्य दण्डी ने इन्हें महत्त्व देते हुए काव्य-सौन्दर्य-विधायक तो माना है किन्तु अलंकारों के भीतर ही समेट लिया है। उनके अनुसार काव्य-शोभा करने वाले सभी धर्म – श्लेषादि गुण और उपमादि अलंकार ‘अलंकार’ शब्द से ही वाच्य हैं।
आचार्य वामन के अनुसार काव्य गुण
आचार्य वामन ने गुणों को काव्य का नित्य धर्म मानकर अलंकारों से अलग किया है। उनके अनुसार अलंकार काव्य के अनित्य धर्म हैं। वे हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं; किन्तु गुणों की सत्ता तो अनिवार्य है।
आचार्य वामन ने गुणों को ‘शब्दगत’ और ‘अर्थगत’ दोनों माना। इनके अनुसार काव्य-गुणों की संख्या 20 है ।
आचार्य आनन्दवर्धन के अनुसार काव्य गुण
आचार्य आनन्दवर्धन ने गुणों को ‘रस’ का अंग माना और इनकी संख्या तीन – ओज, प्रसाद, माधुर्य – तक ही सीमित कर दी।
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य गुण
आचार्य मम्मट के अनुसार जैसे शौर्य आदि आत्मा के नित्य धर्म हैं वैसे ही ‘माधुर्य’ आदि गुण ‘रस’ के नित्य धर्म हैं। आचार्य मम्मट ने भी गुणों की संख्या तीन ही मानी है।
आचार्य भामह और आचार्य मम्मट ने ‘माधुर्य, ‘ओज’ और ‘प्रसाद’ इन तीन गुणों को ही मान्यता दी है। प्रायः सभी उत्तरकालीन आचार्यों ने इन्हीं तीन गुणों को मान्यता प्रदान की है । वास्तव में इन्हीं तीन गुणों के अंर्तगत अन्य सभी गुण समाहित हैं ।
हिंदी के आचार्यों के अनुसार काव्य गुण
हिंदी के आचार्यों ने सामान्यतः तीन गुणों को ही महत्त्व दिया है।‘देव’ और ‘भिखारीदास’ ने गुणों की संख्या दस मानी है। इस प्रकार गुणों के विवेचन का भी एक लम्बा इतिहास है।
भारतीय काव्यशास्त्र में kavya gun को काव्यात्मा का धर्म माना गया है। काव्य की आत्मा रस है, गुण रस का धर्म है, अर्थात् गुण रस के अंतरंग तत्त्व हैं और रस में सदैव विद्यमान रहते हैं। नीरस काव्य में गुण नहीं रहते।
अब हम इन तीन काव्य-गुणों – माधुर्य, ओज और प्रसाद का विस्तृत विवेचन करेंगे:
माधुर्य गुण
माधुर्य का अर्थ है- मिठास, श्रुति-मधुर शब्दों का ऐसा विन्यास जो सहृदयों को अपनी सरसता और मधुरता से द्रवीभूत और आह्लादित कर दे, वह ‘माधुर्य’ है।
जहाँ काव्य पाठ से पाठक या श्रोता का अंतःकरण द्रवित होकर आनन्दमग्न हो जाता है। वहाँ ‘माधुर्य गुण’ होता है।
माधुर्य गुण ‘श्रृंगार’, ‘करुण’ और ‘शांत’ रस में विद्यमान रहता है। सरस और मधुर वर्णों से युक्त काव्य-शब्दावली हृदय को द्रवीभूत कर देती है।
उदाहरण :
कंकन किंकिन नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय गुनि ।।
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा विश्व विजय कहें कीन्हीं ॥
माधुर्य गुण का लक्षण : माधुर्य गुणयुक्त काव्य में ‘ट’ वर्ग (ट, ठ, ड, ढ) आदि के कठोर वर्ण, लम्बे समासयुक्त पद और ‘र’ के संयोग से बने हुए शब्दों का प्रयोग वर्जित है।
ओज गुण
ओज का अर्थ है- तेज, प्रताप, दीप्ति, काव्य में ऐसा वर्ण-विन्यास जो पाठक या श्रोता में उत्साह, स्फूर्ति, आवेश आदि जागृत कर दे, तो इसे ‘ओज गुण’ कहते हैं।
जिस काव्य को पढ़कर या सुनकर हृदय की भावनाएं उदीप्त हो जाती हैं और मन में उत्साह, स्फूर्ति, तेज, आवेश आदि उत्पन्न हो जाता है। उस काव्य में ‘ओज गुण’ होता है।
उदाहरण :
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतन्त्रता पुकारती।
(चन्द्रगुप्त, जयशंकर प्रसाद)
ओज गुण वीर, रौद्र, भयानक और वीभत्स रस में विद्यमान रहता है।
ओज गुण का लक्षण : ओज गुण में द्वित्व, संयुक्त अर्द्ध ‘र’ वर्णों के साथ ‘ट’ वर्ग (ट, ठ, ड, ढ ) के कठोर वर्णों का प्रयोग होता है तथा लम्बे समासयुक्त शब्दों की भी अधिकता रहती है।
प्रसाद गुण
प्रसाद का शाब्दिक अर्थ है- प्रसन्नता, खिल जाना या विकसित होना । वस्तुतः प्रसाद गुणयुक्त काव्य को पढ़कर या सुनकर सहृदय का चित्त प्रसन्न हो जाता है। मन खिल जाता है इसलिए इसे ‘प्रसाद गुण’ कहते हैं।
जहाँ कविता का अर्थ और भाव पढ़ते या सुनते ही समझ में आ जाए और पाठक या श्रोता के चित्त में व्याप्त होकर उसे भावविभोर कर दे, तो वहाँ ‘प्रसाद गुण’ होता है।
सरल, सरस तथा सीधे-सादे शब्दों की रचना में ‘प्रसाद गुण’ होता है।
उदाहरण :
सुख-दुःख के मधुर मिलन से, यह जीवन हो परिपूरन ।
फिर घन में ओझल हो शशि, फिर शशि से ओझल हो घन ॥
प्रसाद गुण का लक्षण : अर्थ की स्पष्टता प्रसाद गुण की प्रमुख विशेषता है। भावों के अनुसार इसमें कोमल तथा कठोर सब तरह के वर्णों का प्रयोग किया जा सकता है।
- ‘प्रसाद गुण’ सभी रसों के उत्कर्ष में सहायक हो सकता है।
- काव्य-गुणों का सहृदय के चित्त पर प्रभाव :
- माधुर्य गुण चित्त में ‘द्रुति’ उत्पन्न करता है । अर्थात् वह चित्त को ‘द्रवित’ करता है।
- ओज गुण चित्त में ‘दीप्ति’ उत्पन्न करता है अर्थात् वह मन में ‘उत्साह’ का संचार करता है।
- प्रसाद गुण चित्त को ‘व्याप्ति’ प्रदान करता है । इसलिए प्रसाद गुणयुक्त काव्य पढ़ने या सुनने से पाठक या श्रोता का मन ‘उदार’ होता है।
निष्कर्ष
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि kavya gun का अर्थ है – वैशिष्ट्य, शोभाकारी धर्म या दोष का अभाव। गुणों की संख्या के विषय में मतभेद है । आचार्य भरत मुनि ने दस गुण बताए हैं ।
आचार्य वामन के अनुसार शब्द के दस और अर्थ के दस गुण होते हैं। इस प्रकार इनकी संख्या बीस हो जाती है ।
महाराज भोज के अनुसार गुणों की संख्या 24 है ।
आचार्य आनन्दवर्धन ने रस के धर्म रूप में गुण को माना और इस प्रकार चित्त (अंत:करण या मन) की तीन अवस्थाओं – द्रुति, दीप्ति और व्यापकत्व के आधार पर केवल तीन गुणों – माधुर्य, ओज और प्रसाद को स्वीकार किया ।
आचार्य मम्मट ने 10 गुणों का खंडन कर आचार्य आनन्दवर्धन द्वारा प्रतिपादित तीन गुणों को ही मान्यता प्रदान किया है । आचार्य मम्मट के इस मत को प्रायः सभी परवर्ती आचार्यों ने स्वीकार किया है । इन तीन गुणों के नाम हैं – माधुर्य, ओज और प्रसाद ।

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