Table of Contents
- 1
- 1.1 1. द्विभाषिकता की स्थिति और अनुवादाश्रित भाषा की चुनौती
- 1.2 2. दुरूहता की समस्या
- 1.3 3. सरलता के नाम पर हिंदी के कृत्रिम रूप से विकास का प्रश्न
- 1.4 4. हिंदी में काम करने की इच्छा की कमी
- 1.5 5. वर्तमान परिदृश्य
- 1.6 5.1 प्रशासनिक हिंदी के समक्ष चुनौतियाँ
- 1.7 5.2 प्रशासनिक हिंदी की समस्याएँ
- 1.8 5.3 प्रशासनिक क्षेत्र में सहज और सरल भाषा का प्रयोग
- 1.9 5.3.1 कथ्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति
- 1.10 5.3.2 अभिव्यक्ति की सहजता
- 1.11 5.3.3 बोधगम्य व उपयुक्त शब्दावली का प्रयोग
- 1.12 निष्कर्ष
प्रशासनिक हिंदी मूलतः अनुवाद के माध्यम से विकसित हुई है । अनुवाद की भाषा होने के कारण इसकी अपनी कुछ विशिष्टताएँ हैं जो शब्दावली, वाक्य विन्यास से लेकर अभिव्यक्ति शैली और अर्थवत्ता तक व्याप्त है । हिंदी का यह रूप अपेक्षाकृत नया है ।
जैसा कि होता रहा है हर नई चीज़ को स्वीकृति मिलने में समय
लगता है उसी तरह प्रशासनिक हिंदी को स्वीकृति मिलने में समय लगा है और लग रहा है ।
हर नई चीज़ को लेकर कुछ प्रश्न चिन्ह लगाए जाते हैं,
कुछ समस्याएँ उठती हैं ।
लगता है उसी तरह प्रशासनिक हिंदी को स्वीकृति मिलने में समय लगा है और लग रहा है ।
हर नई चीज़ को लेकर कुछ प्रश्न चिन्ह लगाए जाते हैं,
कुछ समस्याएँ उठती हैं ।
दूसरी ओर उन प्रश्नों और समस्याओं के समाधान भी खोजे जाते
हैं । उनकी चुनौतियों का मुक़ाबला किया जाता है । हिंदी के साथ भी यही स्थिति है ।
यह लेख इन्हीं प्रश्नों, समस्याओं
और चुनौतियों से संबंधित है ।
हैं । उनकी चुनौतियों का मुक़ाबला किया जाता है । हिंदी के साथ भी यही स्थिति है ।
यह लेख इन्हीं प्रश्नों, समस्याओं
और चुनौतियों से संबंधित है ।
यहाँ यह
देखने का प्रयास किया गया है कि इन समस्याओं और चुनौतियों में से कितनी वास्तविक
हैं और कितनी सतही हैं । जो वास्तविक समस्याएँ हैं उनका समाधान किस तरह किया जा
सकता है, जो वास्तविक नहीं हैं उनसे कैसे
बचा जा सकता है । इस दृष्टि से इन प्रश्नों को विभिन्न संदर्भों में देखा गया है ।
देखने का प्रयास किया गया है कि इन समस्याओं और चुनौतियों में से कितनी वास्तविक
हैं और कितनी सतही हैं । जो वास्तविक समस्याएँ हैं उनका समाधान किस तरह किया जा
सकता है, जो वास्तविक नहीं हैं उनसे कैसे
बचा जा सकता है । इस दृष्टि से इन प्रश्नों को विभिन्न संदर्भों में देखा गया है ।
1. द्विभाषिकता की स्थिति और अनुवादाश्रित भाषा की
चुनौती
प्रशासनिक हिंदी के विकास
में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका है । वास्तव में इसका निर्माण ही अनुवाद के
माध्यम से हुआ है । नियम निर्धारण, नियमों के
कार्यान्वयन, दैनिक प्रशासन आदि से संबंधित
समस्त कार्यविधि साहित्य का अँग्रेजी से हिंदी अनुवाद कराने की प्रक्रिया में
हिंदी में प्रशासनिक भाषा की शब्दावली और मुहावरा विकसित हुआ है ।
में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका है । वास्तव में इसका निर्माण ही अनुवाद के
माध्यम से हुआ है । नियम निर्धारण, नियमों के
कार्यान्वयन, दैनिक प्रशासन आदि से संबंधित
समस्त कार्यविधि साहित्य का अँग्रेजी से हिंदी अनुवाद कराने की प्रक्रिया में
हिंदी में प्रशासनिक भाषा की शब्दावली और मुहावरा विकसित हुआ है ।
अनुवाद आश्रित यह भाषा अत्यधिक बोझिल होती है
। शब्दावली, वाक्य विन्यास और अभिव्यक्ति शैली
तीनों के स्तर पर ही यह चुनौती प्रशासनिक हिंदी के सामने खड़ी है । निरंतर अनुवाद
के चलते कहीं-कहीं तो वाक्य अँग्रेजी वाक्यों की छायामात्र रह जाते हैं क्योंकि
अँग्रेजी की कथन पद्धति के अनुरूप ही हिंदी का वाक्य-विन्यास कर दिया जाता है या
फिर हिंदी की प्रकृति की उपेक्षा करते हुए मनमाने ढंग से वाक्य-विन्यास किया जाता
है ।
दूसरी ओर अँग्रेजी शब्दों के लिए उपयुक्त
हिंदी पर्याय का चयन न करने की प्रवृत्ति भी काफी प्रचलित है । ये दोनों ही
प्रशासनिक हिंदी को विरूपित करते हैं और कभी-कभी हास्यास्पद बना देते हैं ।
अँग्रेजी शब्दों का अनावश्यक लिप्यंतरण करने
की प्रवृत्ति भी प्रशासनिक हिंदी के सामने चुनौती के रूप में खड़ी है । जब किसी
शब्द के लिए हिंदी में या अन्य भारतीय भाषाओं में उपयुक्त पर्याय मौजूद न हो तब उस
अँग्रेजी शब्द का लिप्यंतरण उचित है। लेकिन आदतन अँग्रेजी शब्दों को ग्रहण करने से
भाषा में बाह्य शब्दों की भरमार दिखाई देने लगती है ।
2. दुरूहता की समस्या
प्रशासनिक हिंदी के संदर्भ
में आज सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न भाषा की सहजता और सरलता का है । अक्सर यह कहा जाता
है कि प्रशासनिक हिंदी दुरूह और अस्पष्ट हो जाती है । द्विभाषिक सामग्री में लोग
हिंदी के बजाए अँग्रेजी में प्रस्तुत पाठ को इसलिए पढ़ना चाहते हैं क्योंकि उसमें
उन्हें स्पष्टता अधिक महसूस होती है ।
में आज सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न भाषा की सहजता और सरलता का है । अक्सर यह कहा जाता
है कि प्रशासनिक हिंदी दुरूह और अस्पष्ट हो जाती है । द्विभाषिक सामग्री में लोग
हिंदी के बजाए अँग्रेजी में प्रस्तुत पाठ को इसलिए पढ़ना चाहते हैं क्योंकि उसमें
उन्हें स्पष्टता अधिक महसूस होती है ।
यह आरोप गलत नहीं है कि वर्तमान कार्यालयी
हिंदी में एक हद तक कृत्रिमता अथवा अटपटापन देखने को मिलता है । लेकिन इस अटपटेपन
का प्रमुख कारण हिंदी वाक्य विन्यास पर अँग्रेजी वाक्यों की छाया है । प्रशासनिक
हिंदी के स्वरूप, निर्माण में अनुवाद की व्यापक
भूमिका रही है । परिणामस्वरूप, शब्दावली,
पदबंध, अभिव्यक्ति तथा वाक्य-विन्यास सभी
के स्तर पर अँग्रेजी का प्रभाव दिखाई देता है ।
इस दृष्टि से भरसक प्रयास किया भी जा रहा है
कि कृत्रिम और अनगढ़ वाक्य-विन्यास की प्रवृत्ति को यथासंभव रोका जा सके ।
कार्यालयों में काम करने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों को निरंतर सुझाव दिया
जाता है कि वे किसी बात को पहले अँग्रेजी में सोचकर फिर उसका हिंदी रूपांतर करने
की आदत छोड़ें और जो कुछ उन्हें कहना या लिखना है उसे हिंदी में ही सोचें ताकि
प्रशासनिक भाषा में सहज अभिव्यक्ति का मुहावरा विकसित हो सके ।
3. सरलता के नाम पर हिंदी के कृत्रिम रूप से विकास
का प्रश्न
हिंदी के प्रयोग में विभिन्न
प्रकार की कठिनाइयाँ व्यक्त करते हुए उसके सरलीकरण की बात कई स्तरों पर की जाती है
। वास्तव में हिंदी भाषा को कठिन महसूस करने की समस्या मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक
अधिक है और वास्तविक कम । हर भाषा अपने समाज,
संस्कृति और परिवेश से अभिन्न रूप से जुड़ी होती है । ऐसे में उसके अव्यावहारिक
अथवा कृत्रिम सरलीकरण अथवा विकास की बात उपयुक्त प्रतीत नहीं होती ।
हिंदी का
विकास भी उसके सहज स्वरूप के भीतर ही होना चाहिए । इस स्वरूप को खंडित करते हुए
नहीं । संविधान के अनुच्छेद 351 में भी
इसी प्रकार की अपेक्षा की गई है और हिंदी की मूल प्रकृति को अक्षुण्ण रखते हुए
उसके विकास पर ज़ोर दिया गया है ।
विकास भी उसके सहज स्वरूप के भीतर ही होना चाहिए । इस स्वरूप को खंडित करते हुए
नहीं । संविधान के अनुच्छेद 351 में भी
इसी प्रकार की अपेक्षा की गई है और हिंदी की मूल प्रकृति को अक्षुण्ण रखते हुए
उसके विकास पर ज़ोर दिया गया है ।
4. हिंदी में काम करने की इच्छा की कमी
प्रशासनिक हिंदी की सबसे बड़ी
समस्या हिंदी में काम करने की प्रवृत्ति अथवा इच्छा का अभाव है । देश में कुछ ऐसा
अँग्रेजी का वातावरण पैदा हुआ है कि लोग हिंदी में काम करना ही नहीं चाहते । जो
काम व्यक्ति करना नहीं चाहता उसे प्रोत्साहनों,
पुरस्कारों या प्रलोभनों से कराना संभव नहीं है ।
समस्या हिंदी में काम करने की प्रवृत्ति अथवा इच्छा का अभाव है । देश में कुछ ऐसा
अँग्रेजी का वातावरण पैदा हुआ है कि लोग हिंदी में काम करना ही नहीं चाहते । जो
काम व्यक्ति करना नहीं चाहता उसे प्रोत्साहनों,
पुरस्कारों या प्रलोभनों से कराना संभव नहीं है ।
अँग्रेजी में काम करके अपने को
श्रेष्ठ समझने की मानसिक दासता के चलते हिंदी में काम करने की लगन तो दूर उत्साह
पैदा हो पाना भी संभव नहीं है । यह कठिनाई केवल अहिंदीभाषियों की ही नहीं,
हिंदीभाषियों की भी है ।
श्रेष्ठ समझने की मानसिक दासता के चलते हिंदी में काम करने की लगन तो दूर उत्साह
पैदा हो पाना भी संभव नहीं है । यह कठिनाई केवल अहिंदीभाषियों की ही नहीं,
हिंदीभाषियों की भी है ।
हिंदी के प्रयोग में अटपटापन,
दुरुहता, जटिलता आदि काफी कुछ इसी अनिच्छा
की प्रवृत्ति का परिणाम है । जिसके चलते वे इस भाषा के प्रति अपनापन महसूस नहीं
करना चाहते और सहज, सुबोध भाषा प्रयोग तो दूर सही भाषा
लिखने पर भी ध्यान नहीं देते ।
5. वर्तमान परिदृश्य
प्रशासनिक हिंदी के प्रयोग
के संबंध में वर्तमान में विद्यमान परिदृश्य का विश्लेषण निम्न बिन्दुओं के आधार
पर किया जा सकता है :
के संबंध में वर्तमान में विद्यमान परिदृश्य का विश्लेषण निम्न बिन्दुओं के आधार
पर किया जा सकता है :
5.1
प्रशासनिक हिंदी के समक्ष चुनौतियाँ
जनभाषा हिंदी को राजभाषा
हिंदी या प्रशासनिक हिंदी के रूप में ‘प्रतिष्ठित’
किए हुए साठ दशक हो गए हैं । इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस प्रतिष्ठा को अर्जित
करने के बाद हिंदी शनैः-शनैः अपनी जनप्रियता का आधार खोकर प्रशासनिक स्तर पर एक ‘अनचाही
विवशता’ के रूप में परिवर्तित होती गई और
अहिंदीभाषियों की बात तो दूर,
हिंदीभाषियों में से भी अधिकांश ने इससे विमुखता दर्शाते हुए भावनात्मक नाता तोड़ना
श्रेयस्कर समझा । व्यवहार के स्तर पर प्रशासनिक हिंदी को जिन प्रमुख चुनौतियों का
सामना करना पड़ रहा है, उनका संक्षिप्त उल्लेख यहाँ किया
गया है :
1. लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार की गई तथा दिनांक 07
मार्च, 1835 को लागू की गई अँग्रेजी शिक्षा प्रणाली,
जिसके चलते देश में बड़े पैमाने पर ‘बाबुओं का उत्पादन’
आरंभ किया गया और शिक्षित पीढ़ी को राष्ट्र की मुख्य धारा से दूर रखने का प्रयास किया गया ।
2. ‘फूट डालो
और राज करो’ के राजनैतिक मूल मंत्र के कारण एकता
का आभास न होने से हिंदी को ‘क्षेत्रीयता
का अभिशाप’ भुगतना पड़ा ।
3. लोचपूर्ण एवं दोहरी नीतियों का समानान्तर
प्रवाह जिसके कारण हिंदी अँग्रेजी की
पिछलग्गू बनकर रह गई ।
4. ‘रोटी की
गारंटी’ के रूप में हिंदी की अक्षमता और
अँग्रेजी की अपेक्षा उसमें दीनता-हीनता का
भाव पनपना ।
5. अँग्रेजी को ‘ज्ञान
का द्वार’ या ‘प्रतिष्ठा
का प्रतीक’
समझा जाना।
6. हिंदी भाषियों में बड़ी सीमा तक हिंदी के प्रति
समर्पण का अभाव है ।
7. एक सामान्य धारणा यह भी है कि हिंदी पत्रों को
पर्याप्त महत्व की दृष्टि से नहीं देखा
जाता ।
8. संदेश को सही रूप में व्यक्त करने में हिंदी की
सम्प्रेषण-क्षमता व शब्द-सामर्थ्य को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है ।
9. राजभाषा-नीति को पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया
जाता क्योंकि इसमें उल्लंघन की दशा में
किसी दंड का विधान नहीं है ।
10. अँग्रेजी में पूर्वनिर्मित पत्रों,
वाक्यांशों, टिप्पणों आदि को बार-बार दोहराना बहुत सरल होता
है जबकि हिंदी में उनकी मूल रचना करना अपेक्षाकृत श्रमसाध्य होता है । लेकिन यह सोच वास्तव में अनुकरण की प्रवृत्ति का परिणाम है ।
5.2 प्रशासनिक हिंदी की समस्याएँ
राजभाषा के रूप में हुई
प्रशासनिक हिंदी की प्रगति को नकारा नहीं जा सकता । इस दिशा में नीति-निर्देशों
आदि का योगदान चाहे जो भी रहा हो किन्तु समग्र रूप में उन्होंने हिंदी के
प्रति ‘वातावरण निर्माण’
में सराहनीय योगदान दिया है ।
प्रशासनिक हिंदी की प्रगति को नकारा नहीं जा सकता । इस दिशा में नीति-निर्देशों
आदि का योगदान चाहे जो भी रहा हो किन्तु समग्र रूप में उन्होंने हिंदी के
प्रति ‘वातावरण निर्माण’
में सराहनीय योगदान दिया है ।
इन सबके बावजूद भी हिंदी में अपनी बेहतर
सृजन-क्षमता के होते हुए भी अभिव्यक्तियों या प्रारूपों का अँग्रेजी में लिखना
अकारण ही एक मानसिक बाध्यता बना हुआ है जबकि भाषिक संरचना और अभिव्यक्ति शैली की
दृष्टि से अक्सर नकारा किस्म की अँग्रेजी देखने में आती है । क्या वास्तव में
प्रशासन के क्षेत्र में हिंदी की उपयोगिता को व्यवहार में ढाला गया है अथवा
लक्ष्यों की पूर्ति के लिए दिखावा करते हुए आंकड़ों के चमत्कार पैदा कर इसकी उन्नति
का खोखला ढोल ही बजाया जा रहा है ? इसका
निर्धारण करना आवश्यक है । इस हेतु मुख्यतः काम में लाए जा रहे उपायों पर
दृष्टिपात करने से सहज ही निम्न तथ्य उभरते हैं :
1. कर्मचारियों को प्रशासनिक हिंदी सिखाने के लिए
हिंदी कार्यशालाएँ आयोजित की जाती हैं,
जिन पर काफी व्यय होता है जबकि अधिकतर कर्मचारी इसे आनंद गोष्ठी या सवेतन अवकाश के रूप में देखते हैं ।
2. हिंदी संबंधी बैठकों में निर्णय अवश्य लिए जाते
हैं, किंतु उनके समुचित अनुपालन
हेतु सही रूख अपनाने में उच्चाधिकारी हिचकिचाते हैं । क्योंकि इसके कड़ाई से पालन के समुचित प्रावधान नहीं हैं ।
3. अधिकतर बड़े हिंदी सम्मेलनों,
संगोष्ठियों व अन्य कार्यक्रमों में हिंदी के प्रति
‘श्रद्धांजलि’
या
‘स्तुति’ का रूख ही
अधिक रहता है और यदि कोई महत्वपूर्ण
प्रस्ताव रखा भी जाता है तो लंबे अरसे तक
विचाराधीन रहकर वह प्रायः लुप्त हो
जाता है ।
4. हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान,
हिंदी टंकण/आशुलिपि प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतु कर्मचारियों
को नामित तो अवश्य किया जाता है किंतु
इनमें से कुछ प्रशिक्षणार्थी अनिच्छा
से इनमें प्रवेश लेते हैं तथा कुछ इसे
प्राप्त सुविधाओ का लाभ उठाने का माध्यम
मानते हैं और अंतिम रूप से प्रशिक्षित कर्मचारियों
के सामान्यतः एक चौथाई भाग का उपयोग भी राजभाषा हिंदी की प्रगति के लिए उचित रूप से नहीं हो पाता ।
5. हिंदी पत्राचार/कार्य की प्रगति के लिए
छपे-छपाए फ़ार्मों, निर्धारित प्रारूपों, कार्डों,
पर्चियों आदि को हिंदी में लिखने/भरने पर अधिक बल दिया जाता है जबकि मूल रूप से हिंदी पत्र-लेखन आदि अधिकतर
उपेक्षित ही रहता है । इसलिए अधिकांश प्रशासनिक रिपोर्टें,
कार्यवृत्त, निरीक्षण/जाँच आदि से संबंधित रिपोर्टें केवल अँग्रेजी में बनती हैं
और उन पर आगामी कार्रवाई भी अँग्रेजी में
की जाती है।
6. हिंदी कार्य को प्रोत्साहन देने की दृष्टि से
अँग्रेजी प्रारूपों, पत्रों व टिप्पणों आदि का हिंदी में अनुवाद कराया जाता है जो कि
भाषा की दृष्टि से सर्वाधिक शोचनीय
स्थिति है क्योंकि इससे मूलरूप से लेखन की परिस्थिति ही पैदा नहीं होती ।
7. हिंदी संबंधी प्रतियोगिताओं,
समारोहों व पुरस्कार योजनाओं ने भी हिंदी के प्रयोग
के प्रति ‘सांत्वनापूर्ण’
रूख
जताने वाले वातावरण का निर्माण किया है,
जिससे उपजी सहानुभूति हिंदी की सक्षमता झलकाने के बजाए विकलांगता की परिचायक अधिक है।
8. अंतिम किंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण है हिंदी
अधिकारियों, हिंदी लिपिकों व अनुवादकों की नियुक्ति,
जिसे प्रत्येक संस्था के साथ में दी गई बैसाखी से कम नहीं कहा जा सकता और जिसके
होते वह सक्षम होकर भी लंगड़ाकर चलने को
मजबूर है । मुख्य रूप से कामकाज अँग्रेजी में होने के कारण हिंदी से संबंधित यह कार्य किसी विभाग के कार्य
की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाता और
उनकी क्षमताएँ बेकार जाती हैं ।
5.3 प्रशासनिक क्षेत्र में सहज
और सरल भाषा का प्रयोग
प्रशासनिक हिंदी के कामकाजी
स्वरूप को निम्न प्रकार से सुनिर्धारित किया जा सकता है :
स्वरूप को निम्न प्रकार से सुनिर्धारित किया जा सकता है :
5.3.1 कथ्य की
स्पष्ट अभिव्यक्ति
जो भी लिखा
जा रहा हो, उसे पहले अच्छी तरह से जान लेना
ज़रूरी है । यदि विषय की पर्याप्त जानकारी न हो तो भाषिक अभिव्यक्ति क्षमता के
बावजूद भी उसे स्पष्ट तरीके से लिखना कठिन होता है । कभी-कभी विषय का ज्ञान होने
पर भी संतोषजनक अभिव्यक्ति नहीं हो पाती । ऐसी स्थिति में विषय को स्पष्ट करने के
लिए अतिरिक्त वाक्य भी जोड़ना पड़े तो ऐसा अवश्य करना चाहिए ।
जा रहा हो, उसे पहले अच्छी तरह से जान लेना
ज़रूरी है । यदि विषय की पर्याप्त जानकारी न हो तो भाषिक अभिव्यक्ति क्षमता के
बावजूद भी उसे स्पष्ट तरीके से लिखना कठिन होता है । कभी-कभी विषय का ज्ञान होने
पर भी संतोषजनक अभिव्यक्ति नहीं हो पाती । ऐसी स्थिति में विषय को स्पष्ट करने के
लिए अतिरिक्त वाक्य भी जोड़ना पड़े तो ऐसा अवश्य करना चाहिए ।
कभी-कभी अँग्रेजी के
एक शब्द को स्पष्ट करने के लिए पूरा एक वाक्य भी देना पड़ सकता है । इसे भाषिक
सम्प्रेषण क्षमता की कमी नहीं समझना चाहिए । हो सकता है जो बात एक भाषा में एक
शब्द में कही जा सके उसके लिए दूसरी भाषा में पूरा वाक्य या वाक्यांश अपेक्षित हो
। दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि एक भाषा के पूरे वाक्य के लिए दूसरी भाषा का एक
शब्द ही पर्याप्त हो।
एक शब्द को स्पष्ट करने के लिए पूरा एक वाक्य भी देना पड़ सकता है । इसे भाषिक
सम्प्रेषण क्षमता की कमी नहीं समझना चाहिए । हो सकता है जो बात एक भाषा में एक
शब्द में कही जा सके उसके लिए दूसरी भाषा में पूरा वाक्य या वाक्यांश अपेक्षित हो
। दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि एक भाषा के पूरे वाक्य के लिए दूसरी भाषा का एक
शब्द ही पर्याप्त हो।
5.3.2 अभिव्यक्ति
की सहजता
भाषा का
स्वरूप निर्धारित करते समय अर्थात् लिखते समय यह ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि
पत्र या प्रारूप किस व्यक्ति को संबोधित है । उस व्यक्ति की सामाजिक,
पदीय स्थिति और भाषिक योग्यता के अनुरूप ही शब्दों का प्रयोग करना चाहिए ।
छोटे-छोटे वाक्य लिखना सुविधाजनक होता है और वैसे भी कई उप-वाक्यों को मिलाकर एक
वाक्य की रचना करना हिंदी की प्रकृति नहीं है ।
प्रशासनिक कार्यों को सरल अभिव्यक्ति ही देनी चाहिए । शब्द ऐसे हों कि पाठक
को शब्दकोश न देखना पड़े ।
स्वरूप निर्धारित करते समय अर्थात् लिखते समय यह ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि
पत्र या प्रारूप किस व्यक्ति को संबोधित है । उस व्यक्ति की सामाजिक,
पदीय स्थिति और भाषिक योग्यता के अनुरूप ही शब्दों का प्रयोग करना चाहिए ।
छोटे-छोटे वाक्य लिखना सुविधाजनक होता है और वैसे भी कई उप-वाक्यों को मिलाकर एक
वाक्य की रचना करना हिंदी की प्रकृति नहीं है ।
प्रशासनिक कार्यों को सरल अभिव्यक्ति ही देनी चाहिए । शब्द ऐसे हों कि पाठक
को शब्दकोश न देखना पड़े ।
5.3.3 बोधगम्य व
उपयुक्त शब्दावली का प्रयोग
कामकाजी
हिंदी या प्रशासनिक हिंदी की सहजता, कथ्य की
स्पष्टता और सरल-सुबोध वाक्यों की रचना, उपयुक्त
शब्दों के चयन पर निर्भर करती है । एक ओर तो सहज और प्रचलित शब्दों के चयन पर बल
देना चाहिए और दूसरी ओर यह देख लेना चाहिए कि प्रयोग किए जा रहे शब्द अभीष्ट अर्थ
दे रहे हैं अन्यथा अभीष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति न होने पर सरलता का कोई महत्व नहीं
रह जाता ।
हिंदी या प्रशासनिक हिंदी की सहजता, कथ्य की
स्पष्टता और सरल-सुबोध वाक्यों की रचना, उपयुक्त
शब्दों के चयन पर निर्भर करती है । एक ओर तो सहज और प्रचलित शब्दों के चयन पर बल
देना चाहिए और दूसरी ओर यह देख लेना चाहिए कि प्रयोग किए जा रहे शब्द अभीष्ट अर्थ
दे रहे हैं अन्यथा अभीष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति न होने पर सरलता का कोई महत्व नहीं
रह जाता ।
अतः यह ज़रूरी है कि दूसरी भाषाओं के जो प्रचलित शब्द आम बोलचाल की भाषा
में घुलमिल गए हैं, उन्हें ज्यों का त्यों अपना लेना
चाहिए । विशेष रूप से ऐसे शब्द अँग्रेजी या उर्दू भाषा से लिए जा सकते हैं ।
में घुलमिल गए हैं, उन्हें ज्यों का त्यों अपना लेना
चाहिए । विशेष रूप से ऐसे शब्द अँग्रेजी या उर्दू भाषा से लिए जा सकते हैं ।
निष्कर्ष
प्रशासनिक हिन्दी के समक्ष आने वाली चुनौतियों और समस्याओं से निपटने के लिए राजभाषा प्रबंधन और राजभाषा नीति का सफलतापूर्वक कार्यान्वयन सुनिश्चित करना होगा और इसके लिए आवश्यक है कि – (1) विभिन्न कार्यालयों के राजभाषा विभाग को सही माने में शक्तियाँ प्रत्यायोजित की जाएँ, (2) प्रशिक्षण के लिए कार्योन्मुखी पाठ्यक्रम बनाए जाएँ, (3) अनुवादकों को शासकीय कामकाज से संबंधित अनुवाद का प्रशिक्षण प्रदान किया जाए, (4) हिन्दी में शासकीय कामकाज करने के लिए शब्दकोशों, सहायक एवं संदर्भ साहित्य की समुचित व्यवस्था की जाए तथा (5) टाइपराइटर, कंप्यूटर आदि इलेक्ट्रानिक मशीनें उपलब्ध कराई जाएँ। अतः यह आवश्यक है कि राजभाषा प्रबंधन के लिए एक ठोस और व्यावहारिक कार्यक्रम तय किया जाए जिसमें प्रेरणा, प्रशिक्षण और प्रोत्साहन को प्रमुखता प्रदान की जाए ताकि कार्यालय में काम करने वाले अधिकारी और कर्माचारी कार्यालय की भाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग पूर्ण निष्ठा से करें ।

नमस्कार ! मेरा नाम भूपेन्द्र पाण्डेय है । मेरी यह वेबसाइट शिक्षा जगत के लिए समर्पित है । हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य और अनुवाद विज्ञान से संबंधित उच्च स्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाना मेरा मुख्य उद्देश्य है । मैं पिछले 20 वर्षों से इस क्षेत्र में काम कर रहा हूँ । मेरे लेक्चर्स हिंदी के छात्रों के द्वारा बहुत पसंद किए जाते हैं ।
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