Table of Contents
- 1 संस्कृत आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट काव्य लक्षण Kavya Lakshan
- 2 भामह (छठी शताब्दी)
- 3 आचार्य दण्डी (7वीं शताब्दी)
- 4 आचार्य वामन (8 वीं शताब्दी)
- 5 आचार्य मम्मट (12वीं शताब्दी)
- 6 मम्मट के काव्य लक्षण की विवेचना
- 7 आचार्य विश्वनाथ (14वीं शती)
- 8 पण्डितराज जगन्नाथ (17वीं शती)
- 9 हिंदी आचार्यों का काव्य लक्षण Kavya Lakshan
- 10 आचार्य रामचंद का काव्य लक्षण Kavya Lakshan
- 11 आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
- 12 पाश्चात्य समीक्षकों द्वारा निर्दिष्ट काव्य लक्षण
- 13 मैथ्यू आर्नल्ड
- 14 कालरिज
- 15 हडसन
- 16 निष्कर्ष
संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य के स्वरूप पर पर्याप्त विचार-विमर्श हुआ है, जिससे विभिन्न काव्य सम्प्रदायों का विकास हुआ और काव्य के प्रमुख तत्वों की चर्चा करते हुए kavya ke lakshan निर्धारित करने का प्रयास किया गया। विद्वानों में मतभेद होने के कारण काव्य की कोई सर्वमान्य परिभाषा प्रस्तुत करने में वे सफल नहीं हो सके।

आचार्यों ने अपने-अपने मत को प्रमुखता देते हुए जो kavya ke lakshan निर्धारित किए हैं, वे सर्वमान्य नहीं कहे जा सकते। अब हम कालक्रमानुसार संस्कृत आचायों द्वारा दिए गए काव्य लक्षणों पर विचार करने के उपरांत हिंदी के प्रमुख आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट काव्य लक्षणों पर विचार करेंगे। इसके बाद अंग्रेजी के प्रमुख समीक्षकों द्वारा दी गई काव्य की परिभाषाओं का अध्ययन करेंगे।
संस्कृत आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट काव्य लक्षण Kavya Lakshan
आइये सबे पहले संस्कृत के आचार्याओं द्वारा बताए गए kavya ke lakshan का अध्ययन करते हैं ।
भामह (छठी शताब्दी)
भामह ने अपने ग्रंथ ‘काव्यालंकार’ में काव्य की परिभाषा देते हुए लिखा है: “शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्।” अर्थात् शब्द और अर्थ के ‘सहित भाव’ को काव्य
कहते हैं। इस परिभाषा में ‘सहित’ शब्द अस्पष्ट है। इसके दो अर्थ हो सकते हैं: 1. साहित्यिक सामंजस्य 2. हित सहित यदि सहित का पहला अर्थ लिया जाए तो इस परिभाषा का अभिप्राय होगा कि शब्द और अर्थ के ‘साहित्यिक सामंजस्य’ को काव्य कहा जाता है, परंतु यदि दूसरा अर्थ लिया जाए तब इस परिभाषा का तात्पर्य होगा कि ऐसा शब्दार्थ जो लोक कल्याणकारी हो, सबका हित करने वाला हो, काव्य है। स्पष्ट है कि आचार्य भामह शब्द और अर्थ के सामंजस्य पर बल देते हैं; अर्थात् कविता न तो शब्द चमत्कार है और न केवल अर्थ का सौष्ठव है। उसमें सुंदर, कलात्मक और सरस शब्द प्रयुक्त होने चाहिए जो उचित, भावपूर्ण अर्थ को व्यक्त करने वाले हों । साथ ही कविता में प्रस्तुत ‘शब्दार्थ’ लोकमंगल का विधायक भी होना चाहिए।
आचार्य दण्डी (7वीं शताब्दी)
आचार्य दण्डी ने अपने ग्रंथ ‘काव्यादर्श’ में काव्य की निम्नलिखित परिभाषा दी है: “शरीरंतावदिष्टार्थ व्यवच्छिना पदावली” अर्थात् इष्ट अर्थ से युक्त पदावली तो उसका (अर्थात् काव्य का) शरीर मात्र है। स्पष्ट है कि दण्डी केवल शब्दार्थ को काव्य नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार शब्दार्थ तो काव्य का शरीर मात्र है, उसकी आत्मा नहीं । दण्डी अलंकारवादी आचार्य थे और अलंकार को काव्य की आत्मा मानते थे, जिसकी व्यंजना उपर्युक्त परिभाषा में उन्होंने कर दी है। सार रूप में यह कहा जा सकता है कि दण्डी के अनुसार वह शब्दार्थ जो अलंकार युक्त हो, काव्य है। अलंकार विहीन शब्दार्थ दण्डी के विचार से काव्य नहीं कहा जा सकता।
आचार्य वामन (8 वीं शताब्दी)
रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन ने अपने ग्रंथ ‘काव्यालंकार सूत्रवृत्ति’ में काव्य की निम्न परिभाषा दी है: “गुणालंकृतयो शब्दार्थयो काव्य शब्दो विद्यते।” अर्थात् गुण और अलंकार से युक्त शब्दार्थ ही काव्य के नाम से जाना जाता है । आचार्य वामन ने भामह और दण्डी से कुछ आगे बढ़कर गुण युक्त और अलंकार युक्त शब्दार्थ को ही काव्य की संज्ञा प्रदान की है। एक अन्य स्थान पर उन्होंने दोषहीनता को भी काव्य लक्षणों में स्थान दिया है।
आचार्य मम्मट (12वीं शताब्दी)
संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रमुख आचार्य मम्मट ने अपने ग्रंथ ‘काव्यप्रकाश’ में काव्य की निम्न परिभाषा दी: “तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि।” अर्थात् काव्य, वह शब्द और अर्थ होता है जो दोष से रहित हो, गुण से मंडित हो तथा कभी-कभी अलंकार से रहित भी हो सकता है । इस परिभाषा के आधार पर काव्य के निम्न लक्षण सामने आते हैं –
- 1. शब्दार्थौ – अर्थात् काव्य शब्द और अर्थ का योग है।
- 2. अदोषौ – अर्थात् काव्य दोष रहित होना चाहिए।
- 3. सगुणौ – अर्थात् काव्य गुण युक्त होना चाहिए।
- 4. अनलंकृति पुनः क्वापि – अर्थात् काव्य में अलंकार अनिवार्य नहीं है।
मम्मट के काव्य लक्षण की विवेचना
1. अदोषौ – मम्मट ने काव्य का एक लक्षण दोषहीनता माना है। मम्मट से पहले आचार्य वामन और भोजराज ने भी अपनी परिभाषाओं में दोषहीनता का उल्लेख किया है।
आचार्य विश्वनाथ ने दोषहीनता को काव्य परिभाषा में स्थान देना अनुपयुक्त माना है, क्योंकि दोषहीन काव्य आकाश कुसुमवत् अर्थात् असंभव है। आचार्य विश्वनाथ का यह भी मत है कि दोषों के आ जाने से काव्य का काव्यत्व नष्ट नहीं होता, ठीक उसी प्रकार जैसे कीड़े द्वारा काटे गए रत्न का रत्नत्व समाप्त नहीं होता, हाँ उसका मूल्य अवश्य कम हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि दोष काव्य के सौंदर्य में व्याघात तो उत्पन्न करते हैं किंतु उसका काव्यत्व नष्ट नहीं करते।
2. सगुणौ – मम्मट ने काव्य का गुणयुक्त होना स्वीकार किया है, पर आचार्य विश्वनाथ ने मम्मट के काव्य लक्षण में सगुणौ पद की आलोचना की है। उनके अनुसार सगुणौ शब्दार्थौ का विशेषण कदापि नहीं हो सकता। वस्तुतः गुण रस के धर्म हैं, शब्दार्थ के नहीं।
3. अनलंकृति पुनः क्वापि – मम्मट अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व नहीं मानते । उनके अनुसार अलंकार काव्य में होने तो चाहिए, पर वे काव्य के ऐसे तत्व नहीं हैं जिनके अभाव में काव्य का काव्यत्व ही नष्ट हो जाएगा। अलंकार से रहित होने पर भी कोई सरस उक्ति कविता की श्रेणी में ही गिनी जाएगी।
परंतु अलंकारवादी आचार्य जयदेव ने कहा है कि अलंकार काव्य के स्वाभाविक धर्म हैं, ठीक उसी प्रकार से जैसे उष्णता आग का धर्म है। अतः बिना अलंकारों के कोई रचना काव्य हो ही नहीं सकती। मम्मट रसवादी आचार्य थे अतः वे काव्य में अलंकारों की अपेक्षा गुण और रस पर विशेष बल देते हुए दिखाई पड़ते हैं ।
4. शब्दार्थौ – काव्य शब्द है अथवा शब्दार्थ- इस विषय में विद्वानों के दो वर्ग हैं। एक वर्ग उन आचार्यों का है जो काव्य को शब्दार्थ स्वीकार करते हैं । मम्मट इसी वर्ग के आचार्य हैं। उनके अतिरिक्त आचार्य भामह, वामन, रुद्रट आदि ने काव्य को शब्दार्थ स्वीकार किया है।
आचार्य विश्वनाथ (14वीं शती)
‘साहित्यदर्पणकार’ आचार्य विश्वनाथ ने मम्मट के काव्य लक्षण का तर्कपूर्ण खंडन किया है। उन्होंने काव्य की निम्न परिभाषा प्रस्तुत की है: ‘वाक्यम् रसात्मक काव्यम्’ अर्थात् “रस से पूर्ण वाक्य ही काव्य है।”
इस परिभाषा से स्पष्ट है कि आचार्य विश्वनाथ ने रस को ही काव्य का प्रमुख तत्त्व माना है।
पण्डितराज जगन्नाथ (17वीं शती)
पण्डितराज जगन्नाथ ने अपने ग्रंथ ‘रसगंगाधर’ में काव्य लक्षण को निम्न शब्दों में व्यक्त किया: “रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्।” अर्थात् रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द ही काव्य है।\
इस परिभाषा में रमणीय शब्द अस्पष्ट है।
बाबू गुलाबराय ने रमणीय का अर्थ मन को रमाने वाला या लीन करने वाला बताया है। रस में लीन मन आनंद से व्याप्त हो जाता है। अतः रमणीयता के अंतर्गत रसात्मकता भी आ जाती है।
संस्कृत की इन परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आचार्य मम्मट की काव्य परिभाषा सर्वाधिक उपयुक्त एवं तर्कसंगत है, तथापि आचार्य विश्वनाथ एवं पंडितराज जगन्नाथ की परिभाषाओं की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
हिंदी आचार्यों का काव्य लक्षण Kavya Lakshan
हिंदी के रीतिकालीन आचार्यों ने संस्कृत काव्यशास्त्र के आधार पर अनेक काव्य लक्षण प्रस्तुत किए, अतः उनमें मौलिकता का अभाव है । आधुनिक युग के जिन हिंदी समीक्षकों ने काव्य पर मौलिक ढंग से विचार किया है, इनमें सर्वप्रमुख हैं -आचार्य रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बाबू गुलाबराय आदि।
आचार्य रामचंद का काव्य लक्षण Kavya Lakshan
शुक्ल जी ने अपने निबंध संग्रह ‘चिंतामणि भाग 1’ के निबंध : “कविता क्या है” में काव्य की परिभाषा देते हुए लिखा है- “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं ।”
हृदय की मुक्तावस्था से उनका अभिप्राय है हृदय का अपने-पराए की भावना से मुक्त होना। इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि शुक्लजी काव्य में रागात्मकता तत्त्व ‘रसात्मकता’ और ‘भावात्मकता’ को प्रधानता देते हैं । वे चमत्कार पक्ष को काव्य लक्षण के अंतर्गत महत्व नहीं देते। इस परिभाषा में ‘रस’ का आग्रह अधिक है। अलंकार, उक्ति वैचित्र्य आदि का समावेश इसमें नहीं हो सका है, अतः यह परिभाषा संकीर्ण हो गई है और केवल रसवाद का पोषण करती है।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
“किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजक लेख, बात या वक्तृता का नाम कविता है ।”
इस अर्थ में कविता अत्यन्त व्यापक हो जाती है। वह गद्य और पद्य दोनों ही रूपों में हो सकती है तथा उसमें दो गुण होने चाहिए – प्रभाव डालने की क्षमता और आनंद प्रदान करने की शक्ति।
हिंदी के अन्य विद्वानों ने भी काव्य की परिभाषाएँ दी हैं, पर वे उपर्युक्त परिभाषाओं से मिलती-जुलती हैं। अतः उनका उल्लेख आवश्यक नहीं है।
पाश्चात्य समीक्षकों द्वारा निर्दिष्ट काव्य लक्षण
पाश्चात्य समीक्षकों ने काव्य के जो लक्षण बताए हैं उनमें से कुछ भावपक्ष को प्रधानता देकर चले हैं और कुछ कलापक्ष को। इन समीक्षकों में से कुछ समीक्षकों द्वारा निर्दिष्ट लक्षण इस प्रकार हैं-
मैथ्यू आर्नल्ड
“Poetry at bottom is the criticism of life.” अर्थात् “कविता मूल रूप में जीवन की आलोचना है।” इस परिभाषा में काव्य का लक्षण निर्दिष्ट नहीं होता, पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कविता का जीवन से गहरा संबंध है।
कालरिज
“Poetry is the best word in best order.” अर्थात् “सर्वोत्तम व्यवस्था में सर्वोत्तम शब्द ही कविता है।” इस परिभाषा में काव्य के अभिव्यक्ति पक्ष अथवा कला पक्ष को ही प्रधानता दी गई है।
हडसन
“Poetry is the interpretation of life through imagination and emotion.”
अर्थात् “कविता कल्पना और संवेग के द्वारा जीवन की व्याख्या है।”
इस परिभाषा में हडसन ने कविता का संबंध जीवन से जोड़ा है तथा कल्पना और संवेग को कविता का साधन माना है। हडसन का यह मत भारतीय विद्वानों के मत से मेल खाता है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि काव्य की सर्वमान्य परिभाषा दे पाना कठिन है, क्योंकि कविता प्रत्येक काल में अपना रूप बदलती है।
विद्वान अपने-अपने ढंग से काव्य की परिभाषा देते है तथा इन परिभाषाओं के आधार पर आधुनिक काल की नई कविता खरी नहीं उतरती। इसके लिए अपने युग के अनुसार काव्य की नई परिभाषा होनी चाहिए।फिर भी काव्य के स्वरूप को स्पष्ट करने वाले निम्नलिखित सामान्य लक्षण दिए जा सकते हैं
– (1) मानवीय अनुभूति।(2) भाषा द्वारा उसकी अभिव्यक्ति।(3) अभिव्यक्ति में कलात्मकता ।
इन लक्षणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि मानवीय अनुभूतियों की भाषा के माध्यम से की गई रसात्मक एवं कलात्मक अभिव्यक्ति ही कविता है। आशा करता हूँ कि अब kavya ke lakshan के विषय में विभिन्न विद्वानों के विचार अब आप लोगों को स्पष्ट हो गया होगा ।

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